पुरस्कृत रचना (सांत्वना पुरस्कार,,हिन्दी साहित्य मंच द्वितीय कविता प्रतियोगिता)
कल रात एक देवी ने
स्वप्न में दर्शन दिये
चेहरे पर उदासी, कपड़ों में बदहवासी
हाथों में तिरंगा पकड़े हुए
पैर बेड़ियों में जकड़े हुए
आँखों में वेदना थी
इसीलिये उनके प्रति-
मेरी संवेदना थी
आखिर मैंने पूछ ही लिया-
हे देवी ! आप कौन हैं ?
जो इस हाल में भी मौन हैं
हाथ में तिरंगा, पैरों में बेड़ियाँ, आँखों में पानी है
लगता है-
भारत माँ की, आज़ादी की, कोई बीती कहानी है
इतना सुनते ही-
उस देवी का मौन टूटा
मन की वेदना का ज्वार फूटा
हे पुत्र ! जिसे तुम भारत माँ कहते हो
मैं उसी भारत माँ के-
मस्तक का श्रृंगार हूँ
लेकिन आजकल लाचार हूँ
मैं भारत माँ के मस्तक की कुमकुम हूँ, बिन्दी हूँ
जिसे तुम मातृभाषा कहते हो, मैं वो ही, हिन्दी हूँ
एक समय था-
जब मैं भी स्वयं पर इठलाती थी
विद्वानों के द्वारा पढ़ी और पढ़ायी जाती थी
मेरा मन तब-तब प्रफुल्लित होता था
जब कोइ साहित्यकार-
मेरे कारण सम्मानित होता था
लेकिन आज मुझे बंधनों में जकड़ दिया है
अंग्रेजी रूपी सौतेली बहन ने मेरा ये हाल किया है
विदेश से आई, आधुनिकता का लिबास पहने-
आप और तुम के अन्तर को खत्म किया है
अखबार से इंटरनेट तक
प्रेम-पत्र से लेकर चैट तक
बस, रेल, हवाई अड्डा या मदिरालय हो
स्कूल, दफ्तर, हस्पताल या न्यायालय हो
चारों ओर अंग्रेजी का ही बोलबाला है
अंग्रेजी के पीछे हर कोई मतवाला है
मैं तो अब केवल हिन्दी कवियों की रचनाओं में
या सरकारी दफ्तर के, हिन्दी विभाग की फाईलॊं में
धूल की चादर ओढ़े, पाई जाती हूँ
या हिन्दी दिवस पर-
हिन्दी कविता के रूप में सुनायी जाती हूँ
मुझे प्रतिक्षा है उस दिन की-
जब कोई मेरा पुजारी, नींद से जागेगा
मुझे मेरे बंधनों से मुक्त करेगा
और भारत में हिन्दी दिवस,
केवल एक दिन ही नहीं-
वर्ष भर मनेगा, वर्ष भर मनेगा, वर्ष भर मनेगा ॥