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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

भ्रष्टाचार

यहा हर तरफ है बिछा हुआ भ्रष्टाचार !
हर तरफ फैला है काला बाजार !!
राजा करते है स्पेक्ट्रम घोटाला !
जनता कहती है उफ मार डाला !!
लालू का चारा कलमाणी का राष्ट्रमण्डल !
जनता बेचारी घुट रही है पल-पल !!
यहा होते है घोटाले करोणो मे !
यहा फलता है भ्र्ष्टाचार नेताओं के पेङो मे !!
मेरी दुनिया का इतिहास है ये,चोरी,दंगा,फसाद है ये !
बलात्कार,जुर्म और शोषण,मनुष्यो का इतिहास है ये !!
हत्या,फिरौती और लूट दुनिया का इश्तहार है ये !
नेता,डीलर और किलर रीश्तो मे रीश्तेदार है ये !!
और हमारे नेता कांट्रेक्ट किलर के बाप है ये !
मंच और भाषण मे फिल्मो के अमिताभ है ये !!
लाखो नही करोणो नही अरबो का व्यापार है ये !
शान्ति और शौहार्द नही नताओ का जंगलराज है ये!!
स्वीस बैंक मे पङा रुप्पया नेताओ की शान है ये !
भ्रष्ट्राचार से घिरा भ्रष्ट समाज है ये !!
नेता नोटो की माला पहने मरे ये जनता बेचारी !
नेता करता बङा घोटाला मरे चाहे दुनिया सारी !!
चुनाव के पहले प्यार दिखाये !
चुनाव के बाद तलवार दिखाये !!
ये है घर के भेदी लूटे हिन्दुस्तान को !
जाती,धर्म के नाम पर बाते इन्सान को !!
चुनाव के पहले करते रहते भैया भैया !
चुनाव के बाद इन्के लिये सबसे बङा रुप्पया !!
भ्रष्ट्राचार हो गयी है इस देश की बिमारी !
जिसमे पिस रही निर्दोष जनता बेचारी !!

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

कुंडलियाँ -----त्रिलोक सिंह ठकुरेला



                           
(  1  ) सोना तपता आग में , और निखरता रूप .
कभी न रुकते साहसी , छाया हो या धूप.
छाया हो या धूप , बहुत सी बाधा आयें .
कभी न बनें अधीर ,नहीं मन में घवराएँ .
'ठकुरेला' कवि कहें , दुखों से कैसा  रोना .
निखरे सहकर कष्ट , आदमी हो या सोना .
 
                 ( 2  )
होता है मुश्किल  वही, जिसे कठिन लें मान.
करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान.
सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी.
यदि खुद कोशिश करे, मूर्ख बन जाता ज्ञानी.
'ठकुरेला' कवि कहें, सहज पढ़ जाता तोता.
कुछ भी नहीं अगम्य, पहुँच में सब कुछ होता.
                                 
                      (   3  )     

मानव की कीमत तभी,जब हो ठीक चरित्र.
दो कौड़ी का भी नहीं, बिना महक का इत्र.
बिना महक का इत्र, पूछ सदगुण की होती.
किस मतलब का यार,चमक जो खोये मोती.
'ठकुरेला' कवि कहें,गुणों की ही महिमा सब.
गुण,अबगुन अनुसार,असुर,सुर,मुनिगन,मानव.
 
                   (  4   )                         
पाया उसने ही सदा,जिसने किया प्रयास.
कभी हिरन जाता नहीं, सोते सिंह के पास.
सोते सिंह के पास,राह तकते युग बीते.
बैठे -ठाले रहो, रहोगे हरदम रीते.
'ठकुरेला' कवि कहें,समय ने यह समझाया.
जिसने भी श्रम किया,मधुर फल उसने पाया

                         (   5  )
धीरे धीरे समय ही , भर देता है घाव.
मंजिल पर जा पहुंचती,डगमग करती नाव.
डगमग करती नाव,अंततः मिले किनारा.
मन की पीड़ा मिटे,टूटती तम की कारा.
'ठकुरेला' कवि कहें, ख़ुशी के बजें मजीरे.
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे,धीरे.

                    -

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

ज़िन्दगी कब जी मैंने? {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"


ज़िन्दगी जीते-जीते आया एक अजनबी खयाल
क्या कभी ज़िन्दगी जी मैंने? कौंधा ये सवाल
हरपल  रहा  बस  सुनहले  ख्वाबों  में  खोया
 रचा निज विचारो का संसार, कभी हंसा तो कभी रोया
निष्फिक्र होकर, बन विक्रम, बचपन बिताया
न जाने कब फिर मैं "किशोर कुल" में आया
अभी भी ज़िन्दगी से दूर खोया रहा किताबों में
कभी अन्वेषक तो कभी जनसेवक, रोज बनता मैं ख्वाबों में
यूँ ही फिर एक दिन, दिल के किसी कोने में कोई फूल खिला
कोई अजनबी लगा आने ख्वाबों में, हुआ शुरू ये सिलसिला
फिर क्या आरज़ू जगी दिल में , तड़प ने उससे मिलवाया
फिर उदित हुआ नव भ्रम रवि, लगा जैसे मैं सब कुछ  पाया
       मित्र-मस्ती, चहल-पहल-, प्रेमिका-और-प्यार
       इन्ही में कुछ पल टिका रहा मेरा जीवन संसार
         अभी भी दूर था , मुझसे-मुझतक का फासला  
      अभी भी न मिटा ज़िन्दगी और मेरे बीच का फासला
फिर ज़िन्दगी कुछ आगे चली, फिर आया एक मोड़
    फिक्र-ऐ-रोजगार में आया सबकुछ पीछे छोड़
    जब खाईं ठोकरें तो हुआ वास्तविकता का कुछ बोध
कुछ-हद तक पहचाना ज़िन्दगी को, चाहा करना इसपर शोध
  पर समय कहाँ ठहरा ? जीवन चक्र चलता रहा निरंतर
बस यूँही घटता-बड़ता रहा ज़िन्दगी और मेरे बीच का अंतर....("प्यासा")

शुक्रवार, 18 मई 2012

गर्मी (कविता) सन्तोष कुमार "प्यासा"



(विभिन्न रंगों से रंगी एक प्रस्तुति, हालिया समय का स्वरूप, गर्मी का भयावह रूप,)

जालिम है लू जानलेवा है ये गर्मी


काबिले तारीफ़ है विद्दुत विभाग की बेशर्मी


तड़प रहे है पशु पक्षी, तृष्णा से निकल रही जान


सूख रहे जल श्रोत, फिर भी हम है, निस्फिक्र अनजान


न लगती गर्मी, न सूखते जल श्रोत, मिलती वायु स्वक्ष


गर न काटे होते हमने वृक्ष


लुटी हजारों खुशियाँ, राख हुए कई खलिहान


डराता रहता सबको, मौसम विभाग का अनुमान


अपना है क्या, बैठ कर एसी, कूलर,पंखे के नीचे गप्पे लड़ाते हैं


सोंचों क्या हाल होगा उनका, जो खेतों खलिहानों में दिन बिताते है


अब मत कहना लगती है गर्मी, कुछ तो करो लाज दिखाओ शर्मी


जाकर पूंछो किसी किसान से क्या है गर्मी....

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

एक चिट्ठी मिली ..... मेरे यार की ---(लक्ष्मी नारायण लहरे )

बरसों की खबर -खबर बनकर रह गयी
गलियों की चौड़ाई सिमट गयी
उपाह-फोह की आवाज कमरे में दम तोड़ दी
बदल ,गयी लोग -बाक की भाषा
नजरें बदल गयी नया बरस आ गया
ख़बरों में नई उमंग -तरंग नए संपादक आ गए
गलियां में जो हवा बह रही थी
ओ हवा प्रदूषित हो गयी
प्यार करने वाले पथिक
अपनी राह बदल दी
लोगों का भ्रम जब टूटा
पथिक की नई कहानी बन गयी
सच है ,भ्रम का कोई पर्याय नहीं होता
मृत्यु निश्चित है पर
उस पर किसी का विचार नहीं जमता
जीने की कवायद जारी है
कोई प्रेम से ,
नफरत नहीं करता
समाज और परिवार का कोई नाम बदनाम नहीं करता
लोग हंसते
इसलिए परिवार प्रेम पर विश्वाश नहीं करता
मेरे यार की खबर है .....
एक चिट्ठी मिली है ..
प्रेम पत्र ,
नहीं -नहीं
बधाई -पत्र है
नए वर्ष की
लिखा है ....
दोस्ती करके किसी को धोखा ना देना
दोस्त को आंसू का तोहफा ना देना
कोई रोये आपको याद करके ...
जिंदगी में किसी को ऐसा मौका ना देना
नव वर्ष हो मंगलमय !
ऐसा सन्देश हर अंतिम ब्यक्ति को लिखना ...


रविवार, 1 अप्रैल 2012

जिहाद के मायने धर्मयुद्व नहीं---अतुल चंद्र अवस्थी

तुम्हारे लिए जिहाद के मायने धर्मयुद्व है,

लेकिन धर्म की परिभाषा क्या जानते हो ।

जिसकी खातिर तुमने इंकलाब का नारा बुलंद किया,

तोरा बोरा की पहाडियों में खाक छानते रहे,

09/11 की रात अमेरिका को खून से नहलाया,

आतंक का ऐसा पर्याय बने कि,

यमराज को भी पसीना आया।

लेकिन क्या जिहाद की भाषा समझ सके;

जिस जिहाद की खातिर लाखों परिवारों की खुशियां छीनी।

मासूमों के हाथों में किताब की जगह एके 47 थमा दी।

गली मोहल्लों चौक चौराहों पर तुमने खेली खून की होली।

धरती माता के सीने को किया गोलियों से छलनी।

देश की धड़कन मुंबई को किया लहूलुहान।

लेकिन अंजाम क्या हुआ,

तुमने भोगा सारी दुनिया ने देखा।

जिस पर था तुम्हे नाज उन्होने ही मुंह मोड़ लिया।

कल तक जो तुम्हारे आतंकी इरादों को देते थे हवा।

उन्होने ही एबटाबाद में तुम्हारी मौजूदगी से किनारा कस लिया।

अंतिम समय में फिर धरती मां ही तुम्हारा सहारा बनी।

वही धरती मां जिसकी छाती पर तुमने पल-पल गोलियां बरसाई।

मां और बेटे के रिश्ते को जिंदा रहते कलंकित किया।

लेकिन अमेरिकी आपरेशन में तुम्हारी आंख बंद होने के बाद।

उसी धरती मां ने तुम्हे अपने लहूलुहान आंचल में सहेज लिया।

इसलिए क्यूंकि तुम भी उसके जिगर के टुकडे़ थे।

मां को खून से नहलाने के बाद भी उसे तुमसे न गिला था न शिकवा।

क्योंकि मां तो मां होती है।

जिहाद----2

तुमने बारुद के ढेर पर मासूमों के अरमान सुलगाए।

जिहाद के नाम पर उनमें नफरत की भावना भरी।

अपनी धरती मां के खिलाफ ही उकसाया।

सभ्य नागरिक से उन्हे दानव बनाया।

तब शायद तुम्हे नहीं पता था कि,

पिता के कर्मो का फल पु़त्र को भुगतना पड़ता है।

बेटा पिता के छोटे बड़े सभी कर्मो का जबाब देह बनता है।

लेकिन जब एहसास हुआ तब काफी देर हो चुकी थी।

लेकिन यह एहसास अपने उन सिपहसालारों को करा दो।

जो अब भी तुम्हारे पग चिन्हों पर चलने की हुकांर भर रहे हैं।

धरती मां के आंचल को दागदार कर रहे हैं।

उन्हे स्वप्न में जाकर ही सही, यह संदेश दे दो।

कि जिहाद का अर्थ धर्म-मजहब के लिए लड़ना नहीं है।

जिहाद का अर्थ देश की तरक्की के लिए संघर्ष करना है।

अगर तुम यह संदेश देने में सफल रहे।

तो फिर धरा पर वसुधैव कुटुंबकम की कल्पना साकार होगी।

चारों ओर अमन चैन होगा, मानवता शर्मसार न होगी।

इसलिए एक बार फिर अपने मन को टटोलो।

मन में छिपी आंतंकी भावना की आहुति देकर,

हिंदू मुस्लिम सिख इसाई की कल्पना को साकार करो।

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शुक्रवार, 30 मार्च 2012

पीकर धुआं तुम जीतो हो किसके वास्ते---(दीपक शर्मा)

वैसे ही बहुत कम हैं उजालों के रास्ते,
फिर पीकर धुआं तुम जीतो हो किसके वास्ते,

माना जीना नहीं आसान इस मुश्किल दौर में
कश लेके नहीं निकलते खुशियों के रास्ते

जिन्नात नहीं अब मौत ही मिलती है रगड़ कर,
यूँ सूरती नहीं हाथों से रगड़ के फांकते ,

तेरी ज़िन्दगी के साथ जुडी कई और ज़िन्दगी,
मुकद्दर नहीं तिफ्लत के कभी लत में वारते ,

पी लूं जहाँ के दर्द खुदा कुछ ऐसा दे नशा ,
"दीपक" नहीं नशा कोई गाफिल से पालते ,

बुधवार, 28 मार्च 2012

लकीर (कविता)---सुजाता सक्सेना

मैं
इक
लकीर
बनाती अगर
होती हाथ
मेरे कलम,
समां देती उसमे
अपने
सारे सपने
और आशाओं के महल !
इस सिरे से
उस सिरे तक -
लिख देती
नाम तुम्हारे
जीवन की हर इक लहर !
पर एक ख्याल
भर रह गया
जेहन में ये मेरे -
समझ गई
अब इन
टूटते -टकराते -किनारों
से में कि
न इक
लकीर में
समाते हैं
सपने, और
न ही
कलम बनाती
है कोई ऐसी
लकीर !

विनोबा का भूदान और आज का भारत----(कन्हैया त्रिपाठी)

गांधी के सच्चे लोगों में विनोबा भावे एक ऐसा नाम है जो वास्तव में गांधी जी के कार्यों को भली प्रकार उनकी मृत्यु के बाद आगे ले गए। विनोबा ने अपने समय के उन मूल्यों और आध्यात्मिक पहलुओं पर विचार किया जो किसी गांधीवादी और सच्चे समाज सेवक के लिए मिसाल है। उनके जीवन का सबसे उत्तम आन्दोलनों में पहले गांधी के रचनात्मक कार्य प्रमुख थे लेकिन वह जय जगत के वास्तविक स्वरूप को पाने के लिए भूदान आन्दोलन की ओर बढ़े।
उन्होंने 18 अप्रिल, 1958 को गांधी की मृत्यु के 10 वर्ष बाद इस आन्दोलन की शुरुआत तेलंगाना क्षेत्र के पोचमपल्ली गांव से की। भूदान का अर्थ है-भूमिहीनों के भूमि दरिद्रता को दूर करने की एक पहल। इसके अन्तर्गत वह जमींदारों के पास पड़ी पर्याप्त भूमि को वितरण के लिए सबके बीच आगे आए। इस तरह का एक आख्यान भारतीय वाड.मय में विद्यमान है। लेकिन उस दौरान भूमिदान का कार्य बामनावतार के अनभिज्ञता में किया गया था लेकिन इस युग में विनोबा ने जो भूमिदान के लिए लोगों को तैयार किया और तेलंगााना में इसकी शुरुआत की वह जानते बूझते लोगों के बीच हुआ।
उनके इस भूदान आन्दोलन को जनान्दोलन के रूप में हम सभी देखते हैं। जयप्रकाश नारायण ने इस आन्दोलन को शोषणविहीन समाज की स्थापना की संज्ञा दी थी। जेपी का कहना था कि यह आन्दोलन न केवल नवीन जीवन पद्धति और सिद्धांत का दर्शन है बल्कि यह सामाजिक क्रांति का भी द्योतक है। वास्तव में हमारे यहां जमींदारों और जागीरदारों के बीच चल रहे संघर्ष को इसके अलावा किसी अहिंसक पद्धति से निपटा नहीं जा सकता था। सबसे बड़ी बात यह है कि तेलंगाना में 51 दिनों में 12201 एकड़ जमीन दान में आयी, यह मामूली बात नहीं है। किसी भी आन्दोलन की यह निश्चितरूप से बड़ी सफलता थी। यह वह दौर था जब भारत को मात्र 10 वर्ष आजाद हुए हुआ था और जिनके पास जमींदारी थी वह खूब अघाए से थे। भारत की अधिकांश जनता के पास भूमि का कोई अधिकार नहीं था। जिनके पास कुछ भी नहीं जमीन थी वह बेचारगी का जीवन जी रहे थे। स्वयं विनोबा ने कहा है कि गांधी जी के जाने के बाद अहिंसा के प्रवेश के लिए मैं रास्ता ढूढता था। मेवात के मुसलमानों को बसाने का सवाल था उसी ख्याल से मैंने अपने हाथ में लिया। उसमें कुछ अनुभव मिला। उसी साहस से मैं तेलंगाना जाने का साहस किया था। वहां भूान यज्ञ के रूप में अहिंसा से मेरा साक्षात्कार हुआ।
तेलंगांना में जो भूमि मिली उसके पीछे वहां की पृष्ठीाूमि थी। उस पृष्ठीाूमि के अभाव में हिन्दुस्तान के शायद दूसरे हिस्से में वह कल्पना चले या न चले, इस बारे में शंका हो सकती थी। उस शंका से निरसन के लिए दूसरे क्षेत्रों में इसे आजमाना जरूरी था। प्लानिंग कमीशन के सामने विचार रखने के लिए पं. नेहरू ने मुझे आमंत्रण दिया। उस निमित्त मैं पैल यात्रा पर निकल पड़ा और लिली तक करीब दो महीने में मुझे 18000 एकड़ जमीन मिली। मैंने देखा कि अहिंसा में प्रवेश के लिए जनता उत्सुक है। विनोबा के यह शब्द निःसंदेह एक प्रयोगवादी सन्त के शब्द प्रतीत होते हैं जो कुछ निश्चित उद्देश्य को पूर्ण कर लेते हैं। वह अपने उस प्रयोग के बारे में खुद आश्चर्य से देखते हुए जैसे कहते हैं-नतीजा यह हुआ कि सेवापुरी के सर्वोदय सममेलन में सारे हिन्दुस्तान के लोग मिलकर अगले दो साल में 25 लाख एकड़ जमीन प्राप्त करने का संकल्प लिया। 25 लाख एकड़ से हिन्ुस्तान के भूमिहीनो का मसला हल हो जाता है, ऐसा नहीं है।उसके लिए तो कम से कम 5 करोड़ एकड़ जमीन चाहिए, ऐसा उनका मानना था।
भारत में आज भी सीमांत किसान हैं और उनका जीवन मजदूरी आदि पर चलता है। आज संसाधन अधिक है। अवसर अधिक है। गांव नही ंतो शहर ही उनके आजीविका का सहारा है लेकिन उस वक्त जब इतने दरवाजे नहीं थे, उस समय चुनौती थी। विनोबा जी ने उस चुनौती को स्वीकृत करते हुए आम जीवन के बारे में यह मुहिम छेड़ी थी जो बाद में बिहार, उत्तर प्रदेश और भारत के विभिन्न कोने में भूदान से ग्रामदान तक अपना विस्तार पा ली।
यह वही गांव हैं जो भारत को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करते हैं। इतिहास की दृष्टि से भारत का गाँव और उसकी सामाजिक संरचना गाँव की जीवन्तता से थी। वैदिक साहित्य में ‘सभा’ व ‘समिति’ शब्द का ज़िक्र बार-बार मिलता है। पंचायतों में ‘नरिष्ठा’ जैसे सम्मानित पदों का ज़िक्र भी है। अथर्ववेद के एक श्लोक को मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा -
विदद् ते सभे नाम नरिष्ठा नाम वा असि।
ये ते के च सभासदस्ते में सवन्तु सवाचसः।।
अथर्ववेद 7/12/2

वैदिक काल के गाँवों के बारे में ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक गाँव स्वायत्त राज्य की भाँति कार्य करता था जो प्रायः आज भी कबीली संस्कृति में विद्यमान है। ‘गणराज्यों’ और ‘संघों’ का वर्णन तो रामायण में भी है। छोटे गणराज्यों से बने ‘संघ’ और उसमें ‘पौर जनपद’ जैसे पदों का विवेचन वाल्मीकि ने अपने संस्कृत महाकाव्य में किया है।
महाभारत कालीन समय का अवलोकन करें तो भारतीय भू-भाग पर पंचायतें बिल्कुल चर्चा में थीं। वह इसलिए क्योंकि रामायण कालीन ‘पौर जनपद’ वैदिक काल में ग्रामणी ‘मुखिया’ के रूप में मिलते हैं तो महाभारत काल में वही राज्य में सीधा हस्तक्षेप करने वालों में सुमार किए जाते हैं। इस प्रकार भारतीय प्राच्य इतिहास हमारे गाँव व गंवई सभ्यता के महत्वपूर्ण दस्तवेज़ से पटे पड़े हैं।
मौर्यकालीन कौटिल्य का अर्थशास्त्र हो या बौद्धकाल में संघों की कार्यप्रणाली इसमें ग्रामीण जीवनचर्या अथवा अर्थव्यवस्था की जो भी चर्चा की गई है उसमें केवल राज्य नहीं थे बल्कि ग्रामीण जनजीवन भी थे। मैगस्थनीज ने खुद जिन दस्तावेज़ों में अपने संस्करण लिखे हैं उसमें ‘ग्राम शासन’ की पर्याप्त चर्चा की है। फाह्यान और ह्वेन सांग ने भारतीय ग्राम्य जीवन के स्वावलम्बन व शांतिवादी प्रकृति को रेखांकित किया है। इन पर्यटकों की दृष्टि में तत्कालीन न्याय पंचायतों में न्याय व्यवस्था का अद्भुत दृश्य भारत में प्राप्त होते हैं।
मुस्लिम शासन काल में गाँवों की अस्मिता और पहचान उसी रूप में है जो गाँव के ‘स्व’ को बनाए रखें। 1812 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद गाँवों के रिसोर्सेज चिन्हित किए जाने लगें लेकिन उनकी स्वायतत्ता बर्करार रही किंतु रिसोर्सेज की पहचान ने गाँवों को बाद में बहुत हानि पहुंचाई। लघु व कुटीर उद्योगाँें से डरी अंग्रेजी हुकूमत ने गाँवों को तहस-नहस करने का फैसला किया। भारी मात्रा में करों का बोझ तथा ग्रामीण संसाधनों की लूटपाट से गाँव तबाह हुए।
1857 की क्रांति के बाद का भारतीय ग्रामीण जीवन अंग्रेजों का कोपभाजक बना क्योंकि उस समय के गाँव में क्रंाति की लहर इस प्रकार दौड़ी की अंग्रेज हतप्रभ रह गए। नव्य चेतना ने अंग्रेजी हुकूमत की सम्पूर्ण बगावत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी इसमें गाँवों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। गाँव की संख्या भारत में सम्पूर्ण आबादी की 80 प्रतिशत से भी अधिक की आबादी थी। भारतीय लघु व कुटीर उद्योग तथा प्रतिरोध की संस्कृति का स्रोत गाँव था इसलिए गाँवों के प्रति क्रूरता अंग्रेजों का मुख्य पहलू बन गया। यह वह दौर था जब भारत अकाल ग्रस्त बार-बार हो रहा था। गजेटियर यह बताते हैं कि 1850 से 1900 तक भारत में लगभग 24 बार अकाल पड़े। अंग्रेज भारतीयों को राहत पहुँचाने की जगह कर-वसूली के लिए गाँव में ज्यादा पहुँचे। शाही रिपेार्ट (1909) से पूर्व लार्ड मेयों (1870), लार्ड रिपन प्रस्ताव (1882) तथा 1880 के अकाल आयोग की रिपोर्ट में भारतीय गाँवों की दूर्दशा दिल दहला देने वाली घटनाओं का स्मरण कराती हैं। यह इतिहास हमारे गांव के तमाम कहानियों से पटा पड़ा है।
आजादी के बाद हमारा दायित्व कुछ और था जो समता मूलक समाज का सृजन करे लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही दौर कहा जाएगा कि उस दौर में भारत की अधिकांश जमीन सवर्णों के पास थी। भारत के सवर्ण जातियों का इस पर आधिपत्य था। दलित, शोषित और वंचित इनसे वंचित थे। वे अपने मालिक या अपने जमींदार के कृपा पर अपना और अपने परिवार का गुजारा करते थे। यह किसी आजाद भारत के दस वर्षीय इतिहास के बाद के समय था जो कलंकपूर्ण ही समझा जाएगा। इस सिलसिले में विनोबा की भूदान आन्दोलन की ओर गयी दृष्टि निःसंदेह एक ऐसे जन आन्दोलन का पर्याय है।
गाँधी ने अपने अंतिम वसीयतनामे में कहा था, ”शहरों-कस्बों से भिन्न उनके सात लाख गाँवों की दृष्टि से हिंदुस्तान की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आज़ादी हासिल करना अभी बाकी है।“ विनोबा ने सोचा रस्किन के ‘अन टू दिस् लॉस्ट’ व गाँधी का सर्वोदयवाद गाँवों के समस्तजन के लिए अपरिहार्य है। उस अवधारणा का प्रासार्य पूरी गाँव की देसज सभ्यता में जब तक नहीं होता तब तक भारतीय ग्राम्य संरचना, उसका संस्कृतीकरण और मानवीकरण नहीं हो सकता और इस अभाव में स्थानिकता, विकास व पर्यावरण, सबको हानि पहुँचेगी। हमारी प्राचीन सभ्यता से अब तक के गाँव की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक उन्नति जो कुछ हुई, वह उसके मूल सौन्दर्य की वहज से रही, इस कटु सत्य को स्वीकारते हुए हमें उन संस्कृतियों व सभ्यताओं से बचने की जरूरत है जो हमारे गाँव को जीवन्त नहीं देखना चाहते। हमें ऐसे मार्ग प्रशस्त करने हैं, जिससे गाँव का मौलिक व सार्थक सम्मान बढ़ सके, यही समय की अपेक्षा भी है। विनोबा के भूदान आन्दोलन के पीछे यह सपना था।

आज इक्कीसवीं सदी का एक दशक बीत चुका है। आज विनोबा हमारे बीच नहीं हैं। सरकारी स्तर पर भारत में गाँवों के लिए जो योजनाएं चलायी जा रही हैं उसका असर कई कारणों से गाँववासियों को नहीं मिल पा रहा है। इसका एक प्रमुख कारण भ्रष्टाचार तथा अपने उत्तरदायित्वों से नेतृत्वकर्ताओं का भटकाव भी है। उत्तरदायित्वों का भटकाव इस तरह कि अब विनोबा नहीं हैं तो उनके कार्य को आगे ले जाने का साहस जो टूटा है वह किसी भी जन-आन्दोलन की मृत्यु का सूचक है।
पिछले 100 वर्षों में भी हमारे गाँव हमारी अस्मिता को बनाए रखने में संबल का काम किए हैं, लेकिन गाँवों से हमारा मोह टूटता गया। ऐसी भ्रांति पैदा हुई कि गाँव हमारे काम के नहीं रह गए। शहरों की तरफ भागती आबादी को अब गाँव अच्छे नहीं लग रहे हैं। उन्हें शहर लुभा रहे हैं। हालांकि मल्टीनेशनल्स कंपनियों की निगाह में गाँव है शहरों की अपेक्षा, क्योंकि शहर में उन्होंने अपना जादू चला रखा है अब गाँव को बदलने की वकालत वे शुरू किए हैं। उस समय तो भूदान की बात की जाती थी अब जो व्यवस्था है वह ग्रामदान किसी मल्टीनेशनल्स को करना चाहती है जो गांव को बदलेगा। वहां बाजार ढूंढ़कर, वहां अपने उत्पाद बेचकर और अपनी धाक जमाकर उन्हें हर तरह से कंगाल करेगा।
बदलते दौर की इस लूट को हम किस प्रकार से देखें। सवर्ण आज जिस जमीन पर काबिज हैं वह अब आम लोगों की जमीन नहीं बनेगी। जो आदिवासी समाज की जमीन है। जो गांव के किसी छोटे किसान की जमीन है उसको अधिग्रहण करने के लिए सरकार के पास एक्ट बनाए गए हैं। पश्चिम बंगाल के नए भूमिग्रहण आन्दोलन को उस श्रेणी में रखकर हम देखें तो जो पश्चिम बंगाल में पूंजीवादियों के लिए भूमि अधिग्रहण करके दी जा रही थी उसके लिए प्रतिरोध हुआ। भूदान का मायने बदल गया। यह दान लेने की पात्रता किसमें है, यह तो सरकारें तय करेंगी। यह विनोबा के किसी भूदान आन्दोलन का अपमान है। और एक क्रूर नग्न नाच है।
विनोबा का तो सपना था गांधी द्वारा देखा गया राम राज्य का सपना। वह जय जगत का सपना था। जय जगत में जनता-जनार्दन आते हैं। उसमें न तो ये मल्टीनेशनल्स आते हैं और न ही पूंजीवादी लोग जो भूमि को गांव के लिए ही कुछ वक्त बाद अभिशाप बनाकर छोड़ देने वाले है। यह लोग न ट्रस्टीशिप के पोषक हैं और न ही किसी को अपने एक भी पाई का उपयोग चाहते हैं। लुटेरों के लिए दान शब्द का प्रयोग पाप है। उनके भूदान को मैथिलीशरण गुप्त ने निम्न प्रकार प्रकट किया है-


भूमण्डलीकरण के इतिहासकार आज भले गाँधी को भी देहती-बुद्धूपने की सोच की संज्ञा दें और नवपूंजीवादी साम्राज्यवादी व बर्चस्ववादी बाजारू संस्कृति को सही ठहराएं, आधुनिक औद्योगीकरण तथा तकनीकी विकास को जायज बताएं, साथ ही शहरीकरण को मनुष्य को जीवन्त करने का माध्यम बताएं लेकिन इसमें साधन व साध्य की सही समझ का अभाव है। जिस साधन से साध्य हासिल करने की कोशिश है वह साधन काम का नहीं होगा क्योंकि साध्य जो है उस ओर हमारा ध्यान कम आकर्षित हो रहा है। इस प्रकार हमारी जो चंचलता व व्यग्रता है वह हमारे समष्टि के लिए ठीक नहीं है। वैकल्पिक तत्वों की खोज गाँवों की मुक्ति के नए आयामों का द्वार खोलेंगे किंतु वह अपने आप नहीं होगा बल्कि उसके लिए हमारा संकल्प प्रतिबद्धता, विश्वास और निष्ठा ठीक होनी चाहिए। भारतीय समाजवादी विचारकों यहाँ तक कि गाँधी की हम बात करें या सम्पूर्णानन्द की बात करें उन्हें गाँवों की देसज-सभ्यता व देहाती संस्कृति के अपने महत्व दिखे गाँधी ने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में इस पर खुलकर लिखा भी है। वह वही बात करते हैं जो विनोबा ने उनकी उपस्थिति में आगे बढ़ाया लेकिन अब आज जो दौर आ गया है उसमें संघर्ष और संवाद ही खत्म होते जा रहे हैं।
उसकी एक वजह यह लगती है कि लोगों का आध्यत्मिक भटकाव अब कुछ ज्यादा ही हो गया है। लोग सबै भूमि गोपाल की जगह लूट और चोरी पर उतर आए हैं। जनान्दोलनों को कुचलकर उन साम्राज्वादी शक्तियों को पोसने का यह कुचक्र कब तक चलेगा यह कहा नहीं जा सकता। बिहार के अब भी ज्यादातर भूमि के मालिकी पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यह सवाल और उसके उत्तर की खोजबीन अब एक सतत चलने वाली चुनौती बनती जा रही है। आजाद भारत का सपना और गांधी तथा उनके प्रथम शिष्य विनोबा का सपना यह कदापि नहीं था जो भूदान के जरिए या विकेन्द्रकृत ग्रामीण सभ्यता के लिए सपना था। ऐसे में प्रश्न है कि जो आम आदमी के निवाले से जुड़े प्रश्न हैं और आम जिन्दगी के प्रतिष्ठा व गरिमा से जुड़े प्रश्न हैं वह कैसे संपृक्त किए जा सकेंगे।
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शुक्रवार, 23 मार्च 2012

कही दूर हमेशा-हमेशा के लिये---(कविता)---संगीता मोदी "शमा"

कही दूर हमेशा-हमेशा के लिये
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वो दूंड रही थी बेचेनी में ,

करुण क्रंदन के साथ,

वो चिड़िया ,

हाँ --------

वो चिड़िया ---

कल था उसका बसेरा जहाँ ,

आज ढेर था पड़ा बहाँ ,

सुबह सबेरे के उगते सूरज कि लालिमा ,

आसमान में किसी चित्रकार कि चित्रकारी का नमूना सी दिखाई देती थी जहाँ,

कोयल कि तान और

कौओ की कर्कश ध्वनि के साथ किसी के आने का सन्देश देती आवाज़ ,

अब सब लुप्त होती जा रही हें गिरती बिल्डिंग के साथ,

और वो प्यारा सा रंगीन पंखो बाला नीलकंठ !

जिसकी आवाज़ सुन बैचेन हो उटता था मन उसे देखने को ,

कभी-कभी दिखा करता था कबूतर का इक जोड़ा अक्सर

जो बरबस ही होंटों पर ले आता था मुस्कान

उनकी अठखेलियाँ --------------------

कभी कबूतरी को मनाता कबूतर

और कभी गर्व से सीना ताने कबूतरी पर हुकुम बजता सा प्रतीत होता था

आज

आज सब सूना हें

वीराना हें आज चारो तरफ,

बस दिखाई देते हें तो ,बेचेनी में अपना आशियाना दूंदते वो पंछी

अपने करुण क्रंदन के साथ

चले जायेंगे फिर कहीं हमेशा -हमेशा के लिए

दिन-दो-दिन इसी तरह बेचेनी में चक्कर लगाते ,

वापस कही दूर -----

और रह जाएँगी तो बस

दिल में मेरे ये यादे और हर वक्त नश्तर की तरह चुभती ये इमारते

और ये सीमेंट और कंक्रीट के जंगल

नहीं आयेंगे वापस वो

चले जायेंगे सदा -सदा के लिए कही दूर

बहुत दूर ------------------------------------------

शनिवार, 17 मार्च 2012

दिल को बहलाना सीख लिया {ग़ज़ल} सन्तोष कुमार "प्यासा"



जबसे तेरी यादों में दिल को बहलाना सीख लिया
हमने मुहब्बत में खोकर भी पाना सीख लिया
जब धड़कन-२ भीगी गम से, सांसे भी चुभने लगी
दर्द की चिंगारी को बुझाने के लिए आंसू बहाना सीख लिया
तरसी-२ प्यासी-२ भटकती हैं मेरी नजरें इधर उधर
जबसे तेरी आँखों ने संयत अदा में शर्मना सीख लिया
जबसे तेरे शहर में, तेरे इश्क में बदनाम हम हुए
समझ गए ज़माने की अदा, दिल से दिल की बातें छुपाना सीख लिया
पन्नो में लिपटे, मुरझाए गुलाब की खुश्बू से सीखकर
हमने ज़िन्दगी में खुद लुटकर सबको हँसाना सीख लिया

मंगलवार, 13 मार्च 2012

वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ है नागरी लिपि- जस्टिस जोइस

नई दिल्ली। ‘नागरी लिपि पूर्णतयः वैज्ञानिक एवं विश्व की सर्वश्रेष्ठ लिपि है। भारत की सभी भाषाओं की एक अतिरिक्त लिपि के रूप में यह राष्ट्रीय एकता का सेतूबंध है इसलिए मैंने संसद सदस्य के रूप में पेश अपे प्राईवेट बिल के द्वारा हर भारतीय नागरिक के लिए इसका प्रशिक्षण अनिवार्य करने का सुझाव दिया है।’ सांसद जस्टिस एम.रामा जोइस ने आजाद भवन में नागरी लिपि राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के पद से बोलते हुए संसद में विभिन्न स्थानों पर सुनहरी अक्षरों से नागरी लिपि में लिखे सद्वाक्यों की चर्चा भी की। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद एवं नागरी लिपि परिषद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस एक दिवसीय संगोष्ठी के अध्यक्ष सांसद डॉ. रामप्रकाश, विशिष्ट अतिथि पूर्व सांसद डॉ. रत्नाकर पाण्डेय, विशेष अतिथि लोकसभा चैनल के संपादक श्री ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, प्रवासी साहित्यकार डॉ. उषा राजे सक्सेना ने भी नागरी लिपि की जरूरत पर बल दिया। इससे पूर्व संस्था के महामंत्री डॉ. परमानंद डा. पांचाल ने आचार्य विनोबा भावे द्वारा स्थापित नागरी लिपि परिषद के उद्देश्यों की चर्चा करते हुए नागरी को विश्वलिपि बनने के सर्वदा योग्य बताया। सभी का स्वागत श्री बलदेवराज कामराह ने किया।
इसी सत्र में प्रतिष्ठित विनोबा नागरी सम्मान कर्नाटक से पधारे नागरी सेवा डा. इसपाक अली को प्रदान किया गया। पुरस्कार में पुण्पगुच्छ, स्मृतिचिन्ह, प्रशस्तिपत्र, शाल तथा आठ हजार की नकद राशि प्रदान की गई। नागरी लिपि के प्रचार- प्रसार में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले प. गौरीदत्त की स्मृति में आरंभ किया गया प्रथम प.गौरीदत्त नागरी सेवी सम्मान श्री आनंद स्वरूप पाठक को उनकी दीर्घकालीन नागरी सेवाओं के लिए प्रदान किया गया। इसके अरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित नागरी निबन्ध प्रतियोगिता के विजेता छात्रों और उनके विद्यालयों को भी पुरस्कार प्रदान किए गए। धन्यवाद ज्ञापन गगनांचल के संपादक डा. अजय गुप्ता ने किया।
भोजनोपरान्त सत्र ‘सूचना प्रौद्योगिकी और नागरी लिपि कम्प्यूटर प्रयोग के संदर्भ में’ विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा को समर्पित रहा। इस सत्र की अध्यक्षता जाने- माने पत्रकार श्री राहुलदेव ने की। वक्ता डॉ. ओम विकास, डॉ. बी.एन.शुक्ला, श्री अनिल जोशी, डॉ.. भारद्वाज ने वर्तमान युग को सूचना का युग बताते हुए इन्टरनेट पर हिन्दी के बढ़ते कदमों से परिचित करवाया वहीं इसके अधिकाधिक प्रयोग के लिए आधुनिकतम प्रौद्योगिकी की जानकारी पर बल दिया। बहुत बढ़ी संख्या में उपस्थित हिन्दी, नागरी प्रेमियों ने विशेषज्ञों से अनेक प्रश्न भी पूछे जो उनकी रूचि से अधिकं आवश्यकता का प्रमाण थे। अंत में संस्था की कार्यसमिति के सदस्य श्री विनोद बब्बर ने सभागार में उपस्थित विद्वानों, का आभार व्यक्त करते हुए ऐसी कार्यशालाओं की आवश्यकता पर बल दिया।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

अवनीश सिंह चौहान को थिंक क्लब वार्षिक पुरस्कार

संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित द थिंक क्लब (http://www.thethinkclub.com/) ने पूर्वाभास
(http://www.poorvabhas.in/) के संपादक अवनीश सिंह चौहान को हिंदी भाषा
और साहित्य की उन्नति हेतु थिंक क्लब वार्षिक पुरस्कार से सम्मानित करने
की घोषणा की है। थिंक क्लब हिंदी भाषा की उन्नति के लिए प्रतिबद्ध है। इस
हेतु 'थिंक क्लब' ने इस वर्ष हिंदी जगत के अज्ञात तथा संघर्षरत लेखकों को
पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की थी। पुरस्कार की रकम १५,००० (भारतीय
रुपया) है। थिंक क्लब का मानना है कि पूर्वाभास के द्वारा किया गया
प्रयास हिंदी जगत के संघर्षरत कवियों ओर लेखकों को एक आवश्यक मंच प्रदान
करता है।

इसी कारण यह पुरस्कार पूर्वाभास के प्रयत्न को प्रोत्साहित करने हेतु
संपादक चौहान को दिया गया है। पिछले वर्ष यह पुरस्कार मेरी रोच की
अंग्रेजी पुस्तक 'पेकिंग फॉर मार्स' को प्रदान किया गया था। थिंक क्लब की
ओर से पुरस्कार चयन समिति ने चौहान को हार्दिक बधाई देते हुए कामना की है
कि उनका यह रचनात्मक कार्य अनवरत चलता रहे। इस पुरस्कार हेतु चयन समिति
के अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव (प्रबंध सम्पादक, थिंक क्लब
पब्लिकेशन्स,ब्लूमफील्ड हिल्स, मिशीगन, यूं एस ए) ने ८ फरवरी २०१२ को यह
घोषणा की है।

अवनीश सिंह चौहान को थिंक क्लब वार्षिक पुरस्कार अवनीश सिंह चौहान को थिंक क्लब वार्षिक पुरस्कार

संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित द थिंक क्लब
(http://www.thethinkclub.com/) ने पूर्वाभास
(http://www.poorvabhas.in/) के संपादक अवनीश सिंह चौहान को हिंदी भाषा
और साहित्य की उन्नति हेतु थिंक क्लब वार्षिक पुरस्कार से सम्मानित करने
की घोषणा की है। थिंक क्लब हिंदी भाषा की उन्नति के लिए प्रतिबद्ध है। इस
हेतु 'थिंक क्लब' ने इस वर्ष हिंदी जगत के अज्ञात तथा संघर्षरत लेखकों को
पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की थी। पुरस्कार की रकम १५,००० (भारतीय
रुपया) है। थिंक क्लब का मानना है कि पूर्वाभास के द्वारा किया गया
प्रयास हिंदी जगत के संघर्षरत कवियों ओर लेखकों को एक आवश्यक मंच प्रदान
करता है।

इसी कारण यह पुरस्कार पूर्वाभास के प्रयत्न को प्रोत्साहित करने हेतु
संपादक चौहान को दिया गया है। पिछले वर्ष यह पुरस्कार मेरी रोच की
अंग्रेजी पुस्तक 'पेकिंग फॉर मार्स' को प्रदान किया गया था। थिंक क्लब की
ओर से पुरस्कार चयन समिति ने चौहान को हार्दिक बधाई देते हुए कामना की है
कि उनका यह रचनात्मक कार्य अनवरत चलता रहे। इस पुरस्कार हेतु चयन समिति
के अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव (प्रबंध सम्पादक, थिंक क्लब
पब्लिकेशन्स,ब्लूमफील्ड हिल्स, मिशीगन, यूं एस ए) ने ८ फरवरी २०१२ को यह
घोषणा की है।

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

उजालों के रास्ते......दीपक शर्मा


वैसे ही बहुत कम हैं उजालों के रास्ते,
फिर पीकर धुआं तुम जीतो हो किसके वास्ते,

माना जीना नहीं आसान इस मुश्किल दौर में
कश लेके नहीं निकलते खुशियों के रास्ते

जिन्नात नहीं अब मौत ही मिलती है रगड़ कर,
यूँ सूरती नहीं हाथों से रगड़ के फांकते ,

तेरी ज़िन्दगी के साथ जुडी कई और ज़िन्दगी,
मुकद्दर नहीं तिफ्लत के कभी लत में वारते ,

पी लूं जहाँ के दर्द खुदा कुछ ऐसा दे नशा ,
"दीपक" नहीं नशा कोई गाफिल से पालते ,

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मेरी माँ ------(मुस्तकीम खान)

जन्नत मुजको दिला दी जिसने दुनिया मैं

वो हे मेरी माँ

दुनिया मैं जीने का हक दिया मुजको

वो हे मेरी माँ

कचरे का डेर नदिया किनारा था मेरा

मुजको अपनी दुनिया ली

वो हे मेरी माँ

रात का अंधेरा मेरी आखो का डर

मेरे डर मेरी ताकत बनी

वो हे मेरी माँ

मैं डर क़र ना सोया पूरी रात कभी

मेरे लिए जागकर मुझे सुलाया

वो हे मेरी माँ

कभी परेशानी मेरा सवब जो बनी

मेरे रास्ते मैं फूल जिसने बिखेरे

वो हे मेरी माँ

मेरे जुर्म की सजा खुद ने

पाई मुजको अपने आचल मैं छुपा लिया

वो हे मेरी माँ

मंदिर मस्जिद ना किसी की खबर मुजको

ना गीता कुरान का ज्ञान मुजको

फिर भी मुजको जहन्नुम से बचायवो

वो हे मेरी

माँ कहते हे

लोग माँ के कदमो मैं जन्नत होती

हे मैंने कहा

जन्नत से भी जो उपर

हे वो हे मेरी माँ

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

कौन तेरा मार्ग रोके?-----(अभिषेक )


पश्चिम से
उन्मुक्त लहर आई है ,
खजूर के वो पेड़ के
मधुर मिलन की खबर लायी है!

तूफ़ान ने तो दो
पेड़ो को मिला दिया !
जो हम नहीं कर सकते
उन्होंने सिखा दिया !

प्रेम भी तो तूफ़ान है
सदभावनाओं की खान है
जो
अन्दर से भी
पाताल के बहते
निर्झर के जैसा है!

और
शक्ति अपार उस
तांडव जट्टाधारी से
प्रकट हो तो वो
एक प्रलय के जैसा है !

जो हुआ ऐसा अंत
तब
कौन ये विधान रोके?
कौन ये तूफ़ान रोके?

वो डूबता सूरज
भी आ गया है
अब सवार हो
अपने श्वेत घोड़े पर !

इस अनोखे दृश्य के
होंगे हम मनुहारी
साक्षी होगा स्वयं
इस काल का पहर !

गगन और धरा
हो जायेंगे संग संग
तब
कौन ये साकार रोके
कौन ये एकाकार रोके ?

क्षितिज समेटे हैं
कुछ लाल ,पीले
वैगनी ,हरे रंगों को
जो सूरज और वर्षा के
उत्त्साह्पूर्ण नृत्य
और धुल -कणों के
पुष्प वर्षा से निर्मित है


धरा -नभ के मिलन हेतु वो
एक सेज सजाते हैं क्षितिज पर
और बादलों के सफ़ेद टूकड़ों से
आलोकित है

इतने विहंगम दृश्यों
का जब अवलोकन है
तब
कौन ये बहार रोके?
कौन ये मनुहार रोके?

जा ,
गगन और धरा आज एक हो जायेंगे
इन्द्रधनुषी झूले पर
बादलों के आवारण में ,
आज,
तू भी बढ़
अपने मंजिल पर अब !

तुझे बढ़ना है अपने
लक्ष्य के आरोहन में
साहस का रंग संग तेरे है जब !

अंगद की अडिगता का
तुझे जब भान है
तब
कौन ये उद्घोष रोके?
कौन ये जोश रोके?

वो
तुझे ढूंढ़ लेगी
तेरे आहट को सुन लेगी
ज्यों
तेरा और उसका मिलन
इसी धरा पर ही होना है !

खोये है तुने
सतरंगी सपने को
अब अपने प्रियवर को
तुझको न खोना है

अब बढ़ते जा अनवरत
उस दिव्य प्रकाश के ही ओर!
इस आशा के संग कि
जग का नहीं कोई छोर!
सारी दुआएं हैं उसकी तेरे जब संग
तब
कौन तेरा मार्ग रोके?
कौन तेरा भाग रोके?

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

सम्वेदना ये कैसी?---(श्यामल सुमन)

सब जानते प्रभु तो है प्रार्थना ये कैसी?
किस्मत की बात सच तो नित साधना ये कैसी?

जितनी भी प्रार्थनाएं इक माँग-पत्र जैसा
यदि फर्ज को निभाते फिर वन्दना ये कैसी?

हम हैं तभी तो तुम हो रौनक तुम्हारे दर पे
चढ़ते हैं क्यों चढ़ावा नित कामना ये कैसी?

होती जहाँ पे पूजा हैं मैकदे भी रौशन
दोनों में इक सही तो अवमानना ये कैसी?

मरते हैं भूखे कितने कोई खा के मर रहा है
सब कुछ तुम्हारे वश में सम्वेदना ये कैसी?

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
बस खेल मुनाफे का दुर्भावना ये कैसी?

जहाँ प्रेम हो परस्पर क्यों डर से होती पूजा
संवाद सुमन उनसे सम्भावना ये कैसी?

सोमवार, 23 जनवरी 2012

मैं सपने देखता हूँ......ब्रजेश सिंह

मैं सपने देखता हूँ
हाँ मैं भी सपने देखता हूँ
कभी जागते हुए कभी सोते हुए
कभी पर्वतों से ऊंचे सपने
कभी गुलाब से हसीं सपने
कभी खुद को समझने के सपने
कभी खुद को जीतने के सपने
कभी खुद को हारने के सपने
मैं हर तरह के सपने देखता हूँ
मैं हर रंग हर आकार हर हर स्वाद के सपने देखता हूँ
कभी नीले कभी गुलाबी कभी
कभी तीखे कभी मीठे
कभी छोटे कभी बड़े
मैं हर तरह के सपने देखता हूँ

मेरे सपने बहूत जल्दी टूट टूटे हैं
और बिखर जाते हैं
मेरे सपने कांच की तरह होते हैं
एकदम साफ़ और पारदर्शी
दिख जाते है सबको मेरे सपने
मैं छिपाकर नहीं रख पाता इनको
इसलिए लोग खेलने लगते हैं इनसे
और टूट जाते हैं मेरे सपने खेल खेल में
मैं कोशिश करता हूँ इन्हें फिर से सजाने की
पर चुभ जाते हैं मेरे ही सपनो के महीन टूकड़े
और मैं दर्द से तड़पता रहता हूँ

मुझे अफ़सोस नहीं होता
जब ये सपने टूटते हैं
अब आदत हो गयी हैं इनके टूटने की
अब तो अधूरा सा लगता है
जब नहीं टूटता है कोई सपना
मन व्याकुल हो जाता है जब नहीं मिलता है सुनने को वो आवाज
जो पैदा होती है इनके टूटने पर

मैं हर वक़्त सपने देखता हूँ
मैं देखना चाहता हूँ उन चीजों को सपनो में
जिन्हें मैं हकीकत में चाह कर भी नहीं देख सकता

मैं सपनो में तितलियों को देखता हूँ
रंग बिरंगी, अनगिनत तितलियों को
पता नहीं कहाँ से आती हैं ये तितलियाँ
और फिर भरने लगती है रंग मेरी कोरी ज़िन्दगी में
पर अचानक! एक एक कर मरने लगती हैं ये तितलियाँ
और दब जाती हैं मेरी ज़िन्दगी इनकी लाशों तले
और टूट जाता है मेरा सपना रंगों का
ज़िन्दगी रह जाती है यूँ हीं श्वेत श्याम

मैं देखता हूँ सपनों में खुद को
एक निर्जन टापू पर
बेतहाशा दौड़ते हुए
कुछ ढूंढते हुए
मुझे दिखाई देता है सपने में
मेरा झून्झालाया सा चेहरा
मुझे दिखाई देती है एक प्यास मेरी आँखों में
तभी दिखता है दूर मुझे एक जहाज
और मैं चिल्लाता हूँ
खुश हो जाता हूँ की
आ रहा है एक जहाज
जो मुझे ले जाएगा मुझे अपने घर तक
लेकिन डूब जाता है ये जहाज
मेरे पास पहुँचने से पहले
और एक चीख के साथ टूट जाता है मेरा सपना

इसी तरह क्रम जारी है सपने सजाने का
और टूटने का
लेकिन मैं सजाता रहूँगा सपने
और पूरा भी करूंगा
क्यूंकि अभी तक किसी सपने में
दबी है मेरी ज़िन्दगी
उन तितलियों के लाशों तले
रंग भरना है ज़िन्दगी में
इसलिए मैं सपने देखूंगा
मैं देखूंगा सपने
और पूरा भी करूंगा
क्यूंकि मैं अबतक भटक रहा हूँ
उसी निर्जन टापू पर
एक जहाज के इंतज़ार में
मुझे पहुंचना है घर तक
मुझे करना है है सपना

शनिवार, 21 जनवरी 2012

खुदा मेरा दोस्त था... कैस जौनपुरी

जब मैं नमाज नहीं पढ़ता था


खुदा मेरा दोस्त था...


जब भी कोई काम पड़ता था


लड़ता था झगड़ता था


खुदा मेरा दोस्त था...


जब भी परेशां होता था


मेरा काम बना देता था


खुदा मेरा दोस्त था...


जब से नमाज पढ़ने लगा हूँ


वो बड़ा आदमी हो गया है


उसका रुतबा बड़ा हो गया है


मुझसे दूर जा बैठा है


अब भी मेरी दुआएँ


होती हैं पूरी


लेकिन हो गई है


हम दोनों के बीच दूरी


वो बड़ा हो गया है


मैं छोटा हो गया हूँ


मैं सजदे में होता हूँ


वो रुतबे में होता है


पहले का दौर और था


जब मुश्किलों का ठौर था


बन आती थी जब जान पे


था पुकारता मैं तब उसे


अगर करे वो अनसुनी


था डांटता मैं तब उसे


कहता था जाओ खुश रहो


खुदा मेरा दोस्त था...


अब कि बात और है


वो हक बचा न दोस्ती


न कर सकूँ मैं जिद अभी


वो हो गया मकाम पे


जा बैठा असमान पे


थी कितनी हममें दोस्ती


है बात अब न वो बची


आ जाए गर वो दौर फिर


हो जाए फिर वो दोस्ती


आ जाए चाहे गर्दिशी


मिल जाए मेरी दोस्ती


मैं कह सकूँ उसे जरा


अगर मेरी वो ना सुने


मैं डांट दूँ उसे जरा


क्या फायदा नमाज से


कि दोस्त गया हाथ से


मैं सोचता हूँ छोड़ दूँ


ये रोजे और नमाज अब


ना जाने है कहाँ छुपा


वो मेरा दोस्त प्यारा अब


मैं खो गया हूँ भीड़ में


रिवायतों की भीड़ में


वो सुनता है अब भी मेरी


न चलती है मर्जी मेरी


वो देता है जो चाहिए


मगर मुझे जो चाहिए


वो ऐसी तो सूरत नहीं


अगर यूँ ही होता रहा


जन्नत मेरी ख्वाहिश नहीं


मुझे वो दोस्त चाहिए


मुझे वो दोस्त चाहिए


मुझे वो हक भी चाहिए


मुझे वो हक भी चाहिए


जो कह दूँ एक बार में


हो दोस्ती पुकार में


वो सुनले एक बार में


तू सुनले एक बार में


खुदा तू मेरा दोस्त था


खुदा तू मेरा दोस्त था....

]

शनिवार, 7 जनवरी 2012

आधे घंटे में प्यार..!

फोन पर मैसेज आया, “तुझे कभी आठ घंटों में प्यार हुआ है?” प्रिया समझ गई फैसल को फिर किसी से प्यार हो गया है। उसने जवाब भेजा, “नहीं...पर जानती हूं तुझे हुआ है।”

प्रिया का मन फिर काम में नहीं लगा। जैसे-तैसे खानापूर्ति करके वो ऑफिस से जल्दी निकल तो आई लेकिन इतनी जल्दी घर जाने का न ही उसका मन था और न ही आदत। काफी देर बस स्टॉप पर खड़े रहने के बाद प्रिया को एक खाली बस आते हुए दिखाई दी। हालांकि वो बस उसके घर की तरफ नहीं जा रही थी लेकिन प्रिया को लगा जैसे ये बस सिर्फ उसी के लिए आई है। प्रिया बस में चढ़ गई और खाली सीटों में से अपनी पसंदीदा बैक सीट पर खिड़की के पास बैठ गई। फैसल और प्रिया कॉलेज के दिनों में अक्सर इसी तरह खाली बसों में शहर के चक्कर लगाया करते थे। टिकट की कोई चिंता ही नहीं रहती थी क्योंकि बैग के कोने में स्टूडेंट बस पास पड़ा होता था।

फोन फिर वाइब्रेट हुआ। इस बार मैसेज संदीप का था। संदीप प्रिया का कलीग था। ऑफिस से दोनों अक्सर साथ आते-जाते थे। प्रिया जानती थी संदीप उसे पसंद करता है लेकिन प्रिया जानकर अनजान बने रहना ही ठीक समझती थी। फैसल के जाने के बा उसने अपने आपको एक दायरे में सीमित कर लिया था। मैसेज में संदीप ने लिखा था कि वो कहां है? प्रिया को याद आया कि जल्दबाज़ी में वो संदीप को बताकर आना भूल गई है। प्रिया ने जवाब दिया, “तबियत ठीक नहीं थी, जल्दी चली आई।” अब प्रिया ने फोन बैग में रख दिया। इस वक्त उसकाकिसी से बात करने का मन कर रहा था।

खिड़की से शाम की ठंडी हवा आ रही थी। प्रिया आंखे बंद कर सीट से टिक गई। प्रिया को अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। रह रह कर वह फैसल के “आठ घंटे के प्यार” के बारे में सोच रही थी। हालांकि वो काफी पहले अपने आपको समझा चुकी थी कि अब फैसल की ज़िंदगी में अब चाहे जो कुछ हो उसे फर्क नहीं पड़ेगा। अपने इस फैसले पर वो काफी खुश भी थी लेकिन फैसल का ये नया प्यार प्रिया को चैन नहीं लेने दे रहा था। प्रिया लगातार सोच रही थी कि फैसल उसके दो साल के प्यार को इस तरह कैसे भुला सकता है? क्या उसे एक बार भी प्रिया की याद नहीं आई? आठ घंटों का प्यार वाकई कोई प्यार हो सकता है?

सोचते सोचते प्रिया की आंखों से आंसू बह निकले। खुद को संभालते हुए वो अपने अपना रूमाल ढूंढने लगी। आदतन आज भी वो अपना रूमाल ऑफिस में ही भूल आई थी। प्रिया कुछ सोच ही रही थी कि इतने में किसीने एक सफेद रंग का जैंट्स रूमाल उसके आगे कर दिया। प्रिया ने नज़रे उठाकर देखा तो एक लड़का बेहद आकर्षक मुस्कान चेहरे पर लिए उसे देख रहा था। उसने रूमाल लेने से इनकार किया तो लड़ने ने “प्लीज़” कहकर उससे अपनी बात मनवा ली। प्रिया ने आंसू पोंछकर उसे “थैंक्स” करते हुए रूमाल वापस दे दिया। वो लड़का उसकी बगल वाली सीट पर ही बैठ गया। आधे घंटे की औपचारिक बातों के बाद दोनों ने एक दूसरे को अपना फोन नंबर दिया। लड़के का स्टॉप आया तो वो बाय करके चले गया। उसके जाते ही प्रिया ने तुरंत बैग से अपना फोन निकाला और फैसल को मैसेज किया, “आधे घंटे मेंप्यार हो सकता है क्या?”
(शबनम ख़ान)

रविवार, 1 जनवरी 2012

नववर्ष की शुभकामनायें


नया वर्ष आ गया; वर्ष 2012 आ गया; पुराना वर्ष 2011 चला गया। इस समय समाचारों में लोगों का उत्साह दिखाया जा रहा है। घर के कमरे में बैठे-बैठे हमें यहां उरई में खुशी में फोड़े जा रहे पटाखों का शोर सुनाई दे रहा है। लोगों की खुशी को कम नहीं करना चाहते, हमारे कम करने से होगी भी नहीं।

कई सवाल बहुत पहले से हमारे मन में नये वर्ष के आने पर, लोगों के अति-उत्साह को देखकर उठते थे कि इतनी खुशी, उल्लास किसलिए? पटाखों का फोड़ना किसलिए? रात-रात भर पार्टियों का आयोजन और हजारों-लाखों रुपयों की बर्बादी किसलिए? कहीं इस कारण से तो नहीं कि इस वर्ष हम आतंकवाद की चपेट में नहीं आये? कहीं इस कारण तो नहीं कि हम किसी दुर्घटना के शिकार नहीं हुए? कहीं इस कारण तो नहीं कि हमें पूरे वर्ष सम्पन्नता, सुख मिलता रहा?

इसके बाद भी नववर्ष के आने से यह एहसास हो रहा है कि बुरे दिन वर्ष 2011 के साथ चले गये हैं और नववर्ष अपने साथ बहुत कुछ नया लेकर ही आयेगा। देशवासियों को सुख-समृद्धि-सफलता-सुरक्षा आदि-आदि सब कुछ मिले। संसाधनों की उपलब्धता रहे, आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे।

कामना यह भी है कि इस वर्ष में बच्चियां अजन्मी न रहें; कामना यह भी है कि महिलाओं को खौफ के साये में न जीना पड़े; कामना यह भी है कैरियर के दबाव में हमारे नौनिहालों को मौत को गले लगाने को मजबूर न होना पड़े; कामना यह भी कि कृषि प्रधान देश में किसानों को आत्महत्या करने जैसे कदम न उठाने पड़ें; कामना यह भी कि भ्रष्टाचारियों की कोई नई नस्ल पैदा न होने पाये और पुरानी नस्ल का विकास न होने पाये....कितना-कितना है कामना करने के लिए....नये वर्ष के साथ होने के लिए।

आइये चन्द लम्हों के आयोजन में हजारों-लाखों रुपयों की बर्बादी कर देने के साथ-साथ इस पर भी विचार करें। इस विचार के साथ ही आप सभी को नव वर्ष की शुभकामनायें...कामना है कि आप सभी को ये वर्ष 2012 सुख-सम्पदा-सुरक्षा-सम्पन्नता-सुकून से भरा मिले।


चित्र गूगल छवियों से साभार