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रविवार, 12 अप्रैल 2009

गुरू सहाय भटनागर ‘बदनाम’ की एक गजल


याद करते है


तुम्हारी मद भरी आंखों को याद करते है,
तुम्हारे प्यार के वादों को याद करते हैं।


अकेले होते हैं फिर भी नहीं तन्हा होते,
तेरी उन मरमरी बाहों को याद करते हैं।


सहारा दे न सकी जिसको तेरी चश्मे करम,
अश्क में डूबी निगाहों को याद करते हैं।

दर्द- [एक गजल ] गार्गी गुप्ता की प्रस्तुति { परिचय एक झलक}

गार्गी गुप्ता ,
जन्म - ७ अगस्त, जिला एटा (उत्तर प्रदेश) भारत
शिक्षा : स्नातक
रुचियाँ : नृत्य , लेखन, अभिनय, भाषण
पुरुस्कार :
भाषण - सीलिंग समस्या , नारी और उसका अस्तित्व के लिए प्रथम पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
नृत्य - मुक्त सांस्कृतिक लिए प्रथम पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
कविता - मेरे भारत , माता पिता , तू लड़की है के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
अभिनय - हड़ताल के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर पर
निबंध लेखन - के लिए पुरस्कार महा विद्यालय स्तर
पसंदीदा कवि : निराला , अज्ञे , महादेवी, हरिबंश राय बच्चन , दिनकर , बिहारी जी , सूरदास
पसंदीदा लेखक : हरिशंकर परसाई , प्रेमचंद , मोहन राकेश,

कविता , उपन्यास और कहानिया पढने का बहुत शौक है । अभी मई २००९ तक स्नातकोत्तर की छात्र हैं।

दर्द-


महोब्बत है अजीब, आंखो में आँसू सजाये बैठे है ।
देवता नही है, फिर भी हम सपनो का मंदिर सजाये बैठे है । ।

किस्मत की बात है, दुनिया से खुद को छुपायें बैठे है ।
कैसे बया करे, उन पर हम अपना सब कुछ लुटाये बैठे है । ।

बेरहम है ये दुनिया, फिर भी अदला जमाये बैठे है ।
वो दूर है तो क्या, उनका दिल दिल से लगाये बैठे है । ।

वो लौट कर न आयेगे, फिर भी नज़रे बिछाये बैठे है ।
उनसे मिलने की ललक में, सब कुछ भुलाये बैठे है । ।

आंखो से आँसू इतने गिरे , की समन्दर बनाये बैठे है ।
वो वेरहम है पता है मुझको , फिर भी तेरे सजदे में सर को झुकाये बैठे है । ।

"एक विनम्र निवेदन"

हिन्दी साहित्य मंच के प्रबुद्ध पाठकों और सभी ब्लॉगर मित्रों को प्रणाम।
हिन्दी साहित्य मंच आप सभी हिन्दी प्रेमियों का अपना ब्लॉग है। अब तक प्रियवर नीशू तिवारी इसका सम्पादन बड़ी कुशलता और परिश्रम के साथ कर रहे थे। परन्तु उन्हें किसी अपरिहार्य कारण से बाहर जाना पड़ा। न जाने क्या सोच कर वो इसकी जिम्मेदारी मुझ पर डाल गये हैं।
आज मुझे अनुभव हो रहा है कि सम्पादन करना कितना कठिन होता है? इसमें समय व परिश्रम के साथ-साथ साहित्यकार की लेखनी से निकले शब्दों के प्रभाव का भी ध्यान रखना होता है। मैं इसमें कितना सफल हो पाऊँगा, यह कुछ कहा नही जा सकता है।
एक विनम्र निवेदन आपसे करता हूँ कि सम्पादन में मुझसे भूलवश् या अज्ञानता के कारण यदि कहीं कमियाँ रह जायें, तो कृपया नीशू जी के आने तक मुझे क्षमा कर देंगे और पहले की तरह इस मंच को अपना स्नेह प्रदान करते रहेंगे।
शुभकामनाओं के साथ।
सादर- डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
फोन/फैक्सः 05943 - 250207
चलभाष्ः 093684-99921

"कल शाम". सतीश चन्द्र सत्यार्थी

कल शाम
गिर के बिखर गए थे,

बालकनी में,
नीम के कुछ सूखे पत्ते,
ज्यों तेरी खिलखिलाती हंसी

टटकी धूप की एक किरण
खिड़कियों से आकर,
नींद में छू गयी थी माथे को
ज्यों तेरा भींगा स्पर्श

दीवाल-घड़ी भी गिर कर फर्श पर
ज़रा अटक गयी थी
ज्यों तेरे रूठने की अदा

छत की मुंडेर पर आकर ठहर गयी थी,
इतराती सोंधी शाम
ज्यों तेरा खिड़की पे आके ठहर जाना

महुए के पीछे से चाँद,
और शाखों से लिपटी चांदनी ने
देखा था तिरछी नजरों से
ज्यों तेरा शोख निगाहों से देखना

सांझिल हवा का एक झोंका,
जबरन घुस आया था कमरे में
ज्यों तुम्हारी याद।

कल शाम

सतीश चन्द्र सत्यार्थी
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली, भारत।