ठिठक जाता है मन
मुश्किल और मजबूरीवश
निकालने पड़ते है कदम
घर से बाहर
ढेहरी से एक पैर बाहर निकालते ही
एक संशय, एक शंदेह
बैठ जाता है मन में
की आ पाउँगा वापस, घर या नहीं
जिस बस से आफिस जाता हूँ
कहीं उसपर बम हुआ तो.........
या रस्ते में किसी दंगे फसाद में भी.......
फिर वापस घर के अन्दर
कर लेता हूँ कदम
बेटी पूंछती है
पापा क्या हुआ ?
पत्नी कहती है आफिस नहीं जाना क्या ?
मन में शंदेह दबाए कहता हूँ
एक गिलाश पानी........
फिर नजर भर देखता हूँ
बीवी बच्चों को
जैसे कोई मर्णोंमुख
देखता है अपने परिजनों को
पानी पीकर निकलता हूँ
घर से बाहर
सोंचता हूँ
अब जीवन भी मर मर कर.......
पता नहीं कब कहाँ किसी आतंकवादी की गोली
या बम प्रतीक्षारत है ,
मेरे लिए !
फिर सोंचता हूँ मंत्रियों के विषय में तो,
एक घृणा सी होती है उनसे !
खुद की रक्षा के लिए बंदूकधारी लगाए है !
बुलेट प्रूफ कपडे और कार......
और हमारे लिए, पुलिश
जो हमेशा आती है देर से
मरने के बाद !
अब समझ में आता है की,
क्यों कोई नेता नहीं फंसता दंगो में
क्यों किसी आतंकवादी की गोली
नहीं छू पाती इन्हें !
हमारे वोट का सदुपयोग
बखूबी कर रहे है हमारे नेता !
अब तो खुद की परछाई पर भी
नहीं होता विशवास !
घर से निकलने का मन नहीं करता
लेकिन मजबूरी में निकालने पड़ते है कदम
घर से बाहर !
(प्रस्तुत कविता को वर्तमान स्थिति को देखता हुए, लिखा गया है ! इस कविता में एक आम आदमी के विचारों का चित्रण किया गया है ! )
शनिवार, 29 मई 2010
घर से बाहर {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"
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2 comments:
उम्दा और सराहनीय कविता जो मानव मन के डर और भय को भी दिखा रही है |
वर्तमान परिवेश ने मानव को भयभीत बना दिया है..व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है...इसी भयभीत मानव व उसके परिवेश को मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त करती सशक्त व सार्थक कविता.........एक बात और कहना चाहूँगा कृपया किसी भी दृष्टि से अन्यथा ना ले...कविता में कई जगह भाषागत अशुद्धिया है...हम हिन्दी प्रेमी भावना में कविता लिखते है और ऐसी स्थिति में अशुद्धिया रह जाना स्वाभाविक है मेरे साथ भी कई बार ऐसा होता है...एक हिन्दी प्रेमी और अपना प्रशंसक व समर्थक मानते हुए इन्हे मेरा निवेदन स्वीकार करे.....शुभकामनाएं...श्रेष्ठ सृजन अनवरत रखे।
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