हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

शनिवार, 8 मई 2010

मेरी माँ......( मातृत्व दिवस पर समर्पित कविता ).....कवि दीपक शर्मा


“उसकी आवाज़ बता देती हैं मैं कहाँ हूँ ग़लत

मेरी माँ के समझाने की कुछ अदा निराली है .”


आओ ! सब मिलकर अपनी जननी के चरण स्पर्श करें और प्रभू से विनती करें कि हे !परम पिता हमे हर जन्म मे इसी माँ की कोख़ से पैदा करना ..हमारा जीवन इसी गोद मे सार्थक हैं. हमारा बचपन इसी ममता का प्यासा हैं और जन्मो -जन्मान्तर तक हम इसी ममत्व का नेह्पान करते रहें ..माँ आप हमारा प्रणाम स्वीकार करो और हमे आशीर्वाद दो .


आज फिर नेह से हाथ सिर पर फेर माँ
हूँ बहुत टूटा हुआ , बिखरा हुआ , घायल निराश 
मरू - भूमि में भटके पथिक- सा , लिप्त दुःख में हताश
है प्रेम को प्यासा ह्रदय , व्याकुल स्वाभाव ठिठोल को
अपनत्व को आकुल है मन, जीवन दो म्रदु बोल को .
बोल जिनको सुनकर मेरा , नयन नीर भी मुस्कुराये 
आज फिर उस नेह से नाम मेरा टेर माँ .

छोड़ आया मैं बहुत दूर , अपना चंचल , मधुर बचपन
जग की बाधाओं में उलझा, है मेरा अभिशाप यौवन 
गोद में तेरी रखे सिर , काल कितना बीत गया
कितने युग से किया नहीं, तेरे इस आँचल में क्रंदन
पीर जब तक बह न जाये, आंसुओं में मन की सारी
तब तक आँचल में छुपा रख, हो जाये कितनी देर माँ . 

पीर जो शैशव में देता था मुझे दंड तेरा
सोच अब बातें वही मुस्कुराते हैं अधर
बाद में दुःख से तेरे भी नम नयन हो जाते थे
याद कर बातें वही , अब भर आती मेरी नज़र
उम्र भर हँसता रहे , हर रक्त बिंदु मेरे तन का
इतनी ममता से सरोवर, मुझको कर अबकी बेर माँ

चिथड़ा चिथड़ा ....(कविता)....माणिक


मेरी चिथड़ा चिथड़ा ,

बेस्वाद और संकडी कहानी में अपने,

लिखा है बहुत कुछ,

तपती धरती,झरता छप्पर,

घर,पडोस,या फ़िर खेत-खलिहान,

कुन्डी में नहाते ढोर लिखे है कोने में कहीं,

बेमेल ही सही पर शामिल तो किया,

कम तौल कर कमा खाता ,

गांव का बनिया भी खुदा ने,

वार तेंवार की साग सब्जी,

बाकी रहा आसरा, नमक-मिरच का,

अनजान ही रहा क्यूं अब तक,

दिनों में नहाती मां की मजबुरी से,

चुज्जे,बछडे और मुर्गियां ,

साथ हमारे सोती थी,

बनिये के ब्याज वाले पहाडे ,

सुनने से पके कानों को,

स्कुल की घन्टी से ज्यादा सुरीली ,

अपनी मुर्गियों की बांग लगती थी,

लगता था बस्ते की किताब से सरल,

कबड्डी-सितौलियों का खेल,

राशन का आधा केसोरीन,

लालटेन खा जाती थी,

गुम जाने के डर से,

जूते नही पहने दिनों तक,

आधी भरधी बिजली का ,

पुरा बिल चुकाते पिताजी,

गोबर से सने हाथों वाली बहन का बालपन में ब्याह,

भुला नही हुं अभी भी,

गांव की गैर जरुरी आदतें,

सिमटी गई थी उनकी दुनियां 

चुल्हे-चोके से पडोस के गांव तक बस,

दारू,नोट,और बस फ़िर वोट,यही लोक्तन्त्र था उनका,

टुकडा टुकडा खेती किसानी,

टुकडों में बंटा है जीवन सारा,

उसी दुनियां का नंगजीराम हुं, 

मेरी कहानी खुल्लम खुल्ला,

आम आदमी के रंग वाली,

सादे कवर के किताब सी,

अनावरण के इन्तजार में 

बरसों से बनी पट्टिका सा,