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रविवार, 2 मई 2010

इडियट बॉक्स........और हम गुलाम------------मिथिलेश दुबे

अगर ये कहा जाए कि विगत वर्षो में सबसे ज्यादा प्रगति विज्ञान क्षेत्र ने किया तो गलत ना होगा । पिछले पच्चीस वर्षों मे तो इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में हुए आविष्कार के कारण सूचनातंत्र का पूरा जंजाल घर-घर में पहुँच गया है । पूरे विश्व ने उन्नीसवीं शताब्दी (१८०१-1900) में रसायन विज्ञान की क्रान्ति देखी । यह विज्ञान की क्रान्ति का तूफानी दौर था । गणित विज्ञान, भौतकी , इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रान्ति देखने में आई । विज्ञान की प्रगति प्रशस्ति के योग्य है । भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए , किंतु यदि वही प्रगति सांस्कृतिक , पारिवारिक मूल्यों को पतन की ओर ले जानें लगे तो इसे क्या कहा जायेगा ? समाज का विकास करने के स्थान पर उसे मीठी गोली खिलाकर , मनोरंजन में डुबोकर अकर्मण्य करने लगे तो उसे क्या कहेंगे ?

आज कुछ ऐसा ही हो रहा है । १९८२ में ऐशियाड खेलों के दौरान बड़े-बड़े स्टेडियम बने । उन्ही के साथ रंगीन टेलीविजन भारत में आने लगे । शुरुआत मे वह महगें थे , कुछ लोग ही उसे ले पाते थे , परंतु धीरे-धीरे प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी , और अब तो वे आसान किस्तो पर घर-घर में पहुँच गयें । जब टलीविजन का दौर शुरु हुआ था उस समय मात्र दो चैनल आते थे । रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक जब प्रसारति होते थे तो सड़को पर सन्नाटा छा जाता था । सभी हिन्दू , मुसलिम , ईसाई सभी एक साथ उनकी प्रतिक्षा करते थे । उस समय को अगर कहा जाये तो वह स्वर्णिम युग था , किन्तु उसके तुरंत बाद मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता परोसा जाने लगा , धारवाहिक वह दिखाने लगे, जो भारतीय संस्कृति का परिचायक नहीं है । पश्चिम में जो हो रहा है , जिसमें विवाहेतर संबंध , खुले यौन संबंध , विवाह से पूर्व यौन संतुष्टि इन सबकी खुली वकालत करने वाली बातें घर-घर पहुँचने लगीं । विज्ञापनो का भी इस सीमा तक अवमूल्यन हुआ कि देखते-देखते ऐसी स्थिति आ गई है कि लगता घर में पापा मम्मी छोटा भाई बैठा है टेलीविजन खोला जाए की नहीं ।

विज्ञान की इस अनूठी देन ने सारे विश्व को समेटकर हमारे घर में रख दिया हैं । अब हमारा घर ही एक ग्लोबल गावँ बन गया है , पर क्या इसके संभावित नुकसानों पर समाज विज्ञानियों , नृतत्व विज्ञानियों और राष्ट्र का नेतृ्त्व करने वाले लोकनायक ने चिंतन किया है । आज की नवजात पीढी समय से पहले जवान हो रही है , शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से केवल थुलथुल पैदा हो रही है , उसे हिंसा व फन्टासी में ही रुचि है । ढेरों उदाहरण पिछले दिंनो देखने में आए हैं , जिनसे ज्ञात होता है कि टेलीविजन से प्रेरणा लेकर इस घटना को अंजाम दिया गया । हमारा देश जिसे सारा विश्व यहाँ के संस्कारो से जानता है । हमारे यहाँ की संस्कृति परिवारवाद पर टिकी है , बाजारवाद पर नहीं , किंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों के षड्यंत्रो ने इस देश में सुंदरियों की खोज करना आरंभ कर दिया , विश्व सुंदरी , ब्रह्माण्ड सुंदरी हमारे यहाँ से खोजी जाने लगीं । उनकी न्यूतम वस्त्रो की परेड को टीoवीo पर दिखाया जाने लगा । उनके माध्यम से युवतियों को एक सपना दिखाया गया कि यदि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का प्रयोग करें तो वे भी ऐसी ही सुन्दर बन सकती हैं । देखते-देखते यह बाजार करोड़ो-अरबों का बनकर खड़ा हो गया । जो धनराशि स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वावलबंन में खर्च होनी चाहिए थी वह लीपा-पोती वाली क्रीम में सुन्दर बनने की होड़ में स्वाहा हो गई , होती चली जा रही है । यहाँ तक तो ठिक था , पुरुषों में भी सुंदर दीखने की होड़ को टीoवीo ने ही जन्म दिया है पुरुष ब्यूटी पार्लर खुलने लगे है । पुरुषो ने भी स्वयं को आकर्षक बनाने का प्रयास किया और नतीजा यह कि इसके विज्ञापन भी ढ़ेरो आने लगे । बाजार ही बाजार चारो और छा गया, सेक्स ही सब कुछ रह गया, पारस्परिक आकर्षण ही प्रमुख हो गया , बाकी सब गौण ।

परिवारो से संबंधित धारावाहिकों में उनको प्रमुखता दी जाने लगी जिनमें कोई ननद बहू भाभी या सास षड्यंत्रो में लगी हो । एक सनसनी पैदा करने की कोशिश की गई । ऐसी-ऐसी कुकल्पनाओं पर आधारित धारावाहिक बनने लगे कि माँ की ममता , नारी की भाव-संवेदना , समर्पण की गरिमा एक ओर एवं उसका विघटनकारी स्वरुप ही दूसरी ओर हावी होता चला गया ।न जाने कितने ऐसे ही धारावाहिक इन दिंनो बन रहे हैं , जिनमें षड्यंत्रों-कुचालो को देखते- देखते सारा परिवार भोजन करता है एवं ऐसे कुसंस्कारो कि धारण करता है । क्या यही भारतीय संस्कृति है , क्या पश्चिम का यही मॉडल हमारे परिवार पर उचित ठहरता है क्या शहरी विषाक्तता को पूरे कसबाई-क्षेत्रीय नेटवर्क पर प्रसारित कर सबका दिमाग खराब करना और परिवारो को तोड़ना जरुरी था ?


पहले दो चैनल आते थे , और अब तीन सौ ज्यादा चैनल आते हैं । केवल टीवी पर जो चाहे दिखा दें परन्तु अब तो डायरेक्ट टू होम सीधे घर तक प्रसारण आ गया है , अब सारे विदेशी चैनल घर-घर आने लगे हैं । फैशन हो या पोर्नोग्राफी सब बिना किसी शरम के परोसी जाने लगी है । इसमें अब किसी का कोई नियंत्रण नहीं रहा । कहने को कोई ये भी कह सकता है कि देखना आपके हाथ में है । आप मत देखिए । बंद कर दीजिए , पर क्या हो पाता है । खबरिया चैनल्स की खबर लें तो पता चलता है कि इनका भी एक काम है , सनासी फैलाना , बाजारवाद को बढ़ावा देंना एंव जानकारी के नाम पर भूत-प्रेतों की बातों को दिखाना । एस एम एस जो ज्यादा करेगा , उसे पुरस्कार मिलेगा , यह बार-बार न्यूज चैनल्स मे कहा जा रहा है । हिंसा आज के टेलीविजन नेटवर्क पर जिस तरह हावी हो गई है , उसमें वस्तुतः समाज में अपराध बढ़े हैं । पहले सिनेमघर थे , टिकट लें और देखकर आएँ । इतना कुछ झमेला था , पर अब घर बैठे आप जितना चाहें , जब चाहें फिल्म देख सकते है । एक सर्वेक्षण के अनुसार १९८६ के बाद हिंसा में लगभग सौ गुना वृद्धी हुई है और समाजविज्ञानी इसका श्रेय इस टीoवीo बाक्स को ही मानते है । फिर क्या किया जाये ? समाज का एक चिंतनशील तबका खड़ा हो और इस गुलामी से मुक्ति दिलाने हेतु संघर्षवाहिनी खड़ी करे । हमारे शहरी क्षेत्रो (जिनका अनुपात तेजी से बढ़ रहा है ) में रहने वाले लोगों की जिवनशैली को अस्वस्थ करने में बहुत बड़ा हाथ है । जबकि इससे होना चाहिए कि स्वस्थ्य धारावाहिक , सफलता की कहानियाँ दिखाए । ललित कलाओं को पुनर्जीवित किया जाए । अश्लीलता को मिटाने के लिए कार्यवाई हो । यह यंत्र (टीवी) गलत नहीं है , लेकिन इसका उपयोग सही नहीं किया जा रहा है , । योग आयुर्वेद, भारतीय संस्कृति , परिवार-प्रबंधन , व्यक्तित्व निर्माण प्रधान धारावहिक , चिंतन को झकझोरने वाले राष्ट्रवादी नायकों की जीवनियाँ जब आने लगेंगी तो सब कुछ ठिक हो जायेगा । तब जाके यह लोक रजंन से लोक मंगल हो पयेगा । जब हनुमान जी बनी एक्शन फिल्म सफल हो सकती है तो हमारे संस्कृति में तो ऐसे बहुत से महानायक हैं ।

बचपन

आनंद की लहरों में हिलोरें खाने वाला जीवन
मानव का प्राकृतिक से होता है पहला मिलन
ना गृहस्थी का भार ना जमाने का फिक्र ,
ना खाने कमाने का फिक्र
निश्चिन्तता के आँगन में विचरता है बचपन
प्राकृतिक की गोद में बैठता जब वोह शुकुमार
पड़ी रहती कदमों में उसकी खुशियाँ अपार
होता है वह अपने बचपन का विक्रम
दूर रहतें है उससे ज़माने के सारे भ्रम
न देता वह ख़ुद को कभी झूठी दिलाशा
ना रहता कभी वह किसी चाहत और खुशी का "प्यासा"