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सोमवार, 30 मई 2011

कविता..................@दीपक शर्मा

वैसे ही बहुत कम हैं उजालों के रास्ते,
फिर पीकर धुआं तुम जीतो हो किसके वास्ते,

माना जीना नहीं आसान इस मुश्किल दौर में
कश लेके नहीं निकलते खुशियों के रास्ते

जिन्नात नहीं अब मौत ही मिलती है रगड़ कर,
यूँ सूरती नहीं हाथों से रगड़ के फांकते ,

तेरी ज़िन्दगी के साथ जुडी कई और ज़िन्दगी,
मुकद्दर नहीं तिफ्लत के कभी लत में वारते ,

पी लूं जहाँ के दर्द खुदा कुछ ऐसा दे नशा ,
"दीपक" नहीं नशा कोई गाफिल से पालते ,


विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर कवि दीपक शर्मा द्वारा रचित रचना

रविवार, 29 मई 2011

जीवन इक विश्वास है.............श्यामल सुमन

जीवन इक विश्वास है

खुला हुआ आकाश है

वक्त आजतक उसने जीता
जिसने किया प्रयास है

कैसे कैसे लोग जगत में
अलग सभी की प्यास है

कुछ ही घर में रौनक यारों
चहुँ ओर संत्रास है

जहाँ पे देते शिक्षा दिन में
रात पशु आवास है

राजनीति और अपराधी का
क्या सुन्दर सहवास है

सहनशीलता अपनी ऐसी
नेताओं से आस है

लेकिन ये ना बदलेंगे अब
दशकों का अभ्यास है

यही समय है परिवर्तन का
सुमन हृदय आभास है

शनिवार, 28 मई 2011

सुहानी साँझ {गीत} सन्तोष कुमार "प्यासा"

प्रखर होने लगी हिय उत्कंठा
आलोकित हुई सुप्त उमंग
तट पर लहरें खेले जैसे
मन में उठे वही तरंग
रोम-रोम हुआ स्पंदित
महक उठी तरुनाई
फिर सुहानी साँझ आई
उठी मचल स्म्रतियां फिर से
बज उठे ह्रदय के तार-तार
ये प्रीत धुन छेड़ी किसने
सजीव हो उठे आसार
विस्तृत होने लगी सुवासित सुरभि
मन में ये किसकी, धुंधली
छवि सी छाई
फिर सुहानी साँझ आई
बस एक आस लिए मै, काटूं पल-पल
प्रतीक्षा का यह अनंत काल घोर
विस्मृत भी कर सकता कैसे?
तुम चाँद तो मै चकोर
बह चली अश्रु सरित, होंठो में घुला विषाद
धरा में मनोरम मौन-वीणा छाई
फिर सुहानी साँझ आई...




मंगलवार, 17 मई 2011

कशिश {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

उसके पंजों में महज
 एक तिनका नहीं है,
और न ही उसकी चोंच में
एक चावल का दाना
वो तो पंजो में साधे
हुए है एक
सम्पूर्ण संसार,
उसकी चोंच में है
 एक कर्तब्य
एक स्नेहिल दुलार...
ये पर्वत शिखा से
निर्झरिणी का प्रवाह
महज एक
वैज्ञानिक कारण नहीं है,
और न ही
कोई संयोग,
ये तो धरा की तड़प,
और जीवन की प्यास
करती है इसे
पर्वताम्बर, से
उतरने को बेकल...
ये खिलती कलियाँ,
निखरती सुरप्रभा
सरकती,महकती
यूँ ही नहीं
मन को हर्षाते
संध्या की मौन वीणा
मचलती चांदनी
यूँ ही नहीं
प्रेमीयुगल की
उत्कंठा बढ़ाते...
ये बदलो के उस छोर
नित्य सूर्य का उगना, ढलना
महज एक प्राकृतिक नियम नहीं है,
ये सब तो
उर की उत्कंठा,
अनुरक्ति की देन है...
ये अलौकिक शक्ति है
प्रीत की,
एक मनोरम अभिव्यक्ति है
मिलन के रीत की....
  

रविवार, 15 मई 2011

बाल श्रम.................डॉ कीर्तिवर्धन

मैं खुद प्यासा रहता हूँ पर
जन-जन कि प्यास बुझाता हूँ
बालश्रम का मतलब क्या है
समझ नहीं मैं पाता हूँ|

भूखी अम्मा, भूखी दादी
भूखा मैं भी रहता हूँ
पानी बेचूं,प्यास बुझाऊं
शाम को रोटी खाता हूँ|

उनसे तो मैं ही अच्छा हूँ
जो भिक्षा माँगा करते हैं
नहीं गया विद्यालय तो क्या
मेहनत कि रोटी खाता हूँ|

पढ़ लिख कर बन जाऊं नेता
झूठे वादे दे लूँ धोखा
अच्छा इससे अनपढ़ रहना
मानव बनना होगा चोखा|

मानवता कि राह चलूँगा
खुशियों के दीप जलाऊंगा
प्यासा खुद रह जाऊँगा,पर
जन जन कि प्यास बुझाऊंगा|

गुरुवार, 12 मई 2011

जो वो आ जाए एक बार ***** {कविता} ***** सन्तोष कुमार "प्यासा"

इस कविता को मैंने "महादेवी वर्मा" की कविता "जो तुम आ जाते एक बार" से, प्रेरित होकर लिखा है

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घनीभूत पीड़ा में ह्रदय डूबा

अश्रुओं संग बह रहा विषाद

जल बिन मीन तडपे जैसे

तडपाए, प्रेम उन्माद

फिर सजीव हो जाए आसार

जो वो आ जाएं एक बार

******************************

उसे पाने की बढ़ी लालसा ऐसी

पल पल होती चाहत प्रखर

ह्रदय के कोरे पृष्ठों में

लिख दो आकर, प्रिताक्षर

मेरे मन के उपवन में छा जाए बहार

जो वो आ जाएं एक बार

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अलि कलि पर जब मंडराए

नभ पर विचरें जब विहंग

खो जाऊं आलिंगन में उसकी

मन में उठे ऐसी तरंग

बज उठें ह्रदय के तार तार

जो वो आ जाएं एक बार

******************************

मेरे मस्तिष्क के हर कोने में छाई

उसके स्मृति की सुवासित सुरभि

अब न रुके आवेग अनुरक्ति का

समय, काल, अंतराल बताए

प्रीत न दाबे दबी

एक बने जीवन का आधार

जो वो आ जाएं एक बार

***********************

मंगलवार, 10 मई 2011

"सूरज आया"......................ललित कर्मा

सबको राम राम,
वह सुबह बहुत मासूम थी जब मै जागा बिलकुल नन्हे शिशु सी | प्रारंभ बच्चो को सिखाने के तरीके से हुई और फिर दोपहर, शाम, रात तक आगे बढ़ी और फिर अंत से शुरुआत की ओर चली .... हर रात के बाद सुबह होती है ...


"सूरज आया"
कौन आया?
सूरज आया,
क्या लाया?
उजाला लाया|१|
--
उठो, उठो,
भोर हुई,
जल्दी करो,
रात गई|२|
--
मुह हाथ धोओ,
पेट साफ करो,
ठंडा/कुनकुना नहाओ,
और ईश का ध्यान करो|३|
--
खाना खाओ,
खाली पेट न यूँ घुमो,
फिर अपने काम लगो,
लगन से उसमे रामो|४|
--
घर आओ,
अब दिन ढला,
नीड़ हमारा है,
सबसे भला|५|
--
दीप-बाती आओ जला ले,
ईश वंदना करें,
हे प्रभु,हे कृपालु,
तू संताप हरे|६|
--
भूख लगी,
अब खाना खाए,
धन्यवाद कर,
प्रभु के गुण गए|७|
--
राम भला हो,
अब नीद सताएं,
सुंदर सपनों में,
अब खो जाये|८|
--
उठो कोई आया है,
कौन आया?,
सूरज आया,
उजाला लाया|९|
--
चलो उठते है,
प्रथम धन्य हे भगवन,
भली नींद हुई,
दिखाए सुंदर स्वपन

सोमवार, 9 मई 2011

आँख का पानी ...........डॉ कीर्तिवर्धन


होने लगा है कम अब आँख का पानी,
छलकता नहीं है अब आँख का पानी|
कम हो गया लिहाज,बुजुर्गों का जब से,
मरने लगा है अब आँख का पानी|
सिमटने लगे हैं जब से नदी,ताल,सरोवर
सूख गया है तब से आँख का पानी|
पर पीड़ा मे बहता था दरिया तूफानी
आता नहीं नजर कतरा ,आँख का पानी|
स्वार्थों कि चर्बी जब आँखों पर छाई
भूल गया बहना,आँख का पानी|
उड़ गई नींद माँ-बाप कि आजकल
उतरा है जब से बच्चों कि आँख का पानी|
फैशन के दौर कि सबसे बुरी खबर
मर गया है औरत कि आँख का पानी|
देख कर नंगे जिस्म और लरजते होंठ
पलकों मे सिमट गया आँख का पानी|
लूटा है जिन्होंने मुल्क का अमन ओ चैन
उतरा हुआ है जिस्म से आँख का पानी|
नेता जो बनते आजकल,भ्रष्ट,बे ईमान हैं
बनने से पहले उतारते आँख का पानी|

साँझ और किनारा {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"


ढलता सूरज, सुहानी साँझ और सागर का किनारा
पागल हवा ने किया जब दिलकश  इशारा
उसके तसव्वुर में, मैं खो सा गया
तन्हाई में एक आरजू जगी ऐसी
न जाने कब मै किसी का हो सा गया
सूरज की लालिमा फिर पानी में घुलने लगी
उल्फत की बंदिशें फिर खुलने लगी
दिल की अंजुमन फिर जमने लगी
धड़कने तेज हुईं, सांसे थमने लगी
जब उसके बाँहों का हर मुझे मयस्सर हुआ
पा गया मैं दुनिया की सारी ख़ुशी,
दीवानगी का कुछ ऐसा असर  हुआ 
तभी एक लहर ने पयाम ये दिया
इक पल पहले की ज़िन्दगी मैं भ्रम में जिया
फिर हकीकत से हुआ दीदार मेरा
वहां न थी सुहानी चांदनी, बस पसरा था गहरा अँधेरा
वहां न थी वह ख्वाबों की दिलरुबा
जिसकी तसव्वुर में मै था डूबा
वहा तो था मेरी तन्हाई का नजारा
बस मै, साँझ और किनारा...   

रविवार, 8 मई 2011

माँ तुम्हें प्रणाम !.....................रेखा श्रीवास्तव, श्यामल सुमन


हमको जन्म देने वाली माँ और फिर जीवनसाथी के साथ मिलनेवाली दूसरी माँ दोनों ही सम्मानीय हैं। दोनों का ही हमारेजीवन मेंमहत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इस मदर्स डे पर 'अम्मा' नहीं है - पिछली बार मदर्स डे पर उनकेकहे बगैर ही ऑफिस जाने से पहले उनकी पसंदीदाडिश बना कर दीतो बोली आज क्या है? शतायु होने कि तरफ उनके बड़ते कदमों नेश्रवण शक्ति छीन ली थी।इशारेसे ही बात कर लेते थे। रोज तो उनकोजो नाश्ता बनाया वही दे दिया और चल दिए ऑफिस।
वे अपनी बहुओं के लिए सही अर्थों में माँ बनी। उनके बेटे काफी उम्रमें हुए तो आँखों के तारे थे और जब बहुएँ आयींतो वे बेटियाँ होगयीं। अगर हम उन्हें माँ कहें तो हमारी कृतघ्नता होगी। वे दोनोंबहुओं को बेटी ही मानती थीं।
मैं अपने जीवन की बात करती हूँ। जब मेरी बड़ी बेटी हुई तभी मेराबी एड में एडमिशन हो गया। मेरा घरऔरकॉलेज में बहुत दूरी थी - घंटे लग जाते थे। कुछ दिन तो गयी लेकिन यह संभव नहीं होपा रहा था। कालेज के
पास घर देखा लेकिन मिलना मुश्किल था।किसी तरह से एक कमरा और बरामदे का घर मिला जिसमें खिड़कीथी और रोशनदान लेकिन मरता क्या करता? मेरीअम्मा ने विश्वविद्यालय की सारी सुख सुविधा वाले घर कोछोड़करमेरे साथ जाना तय कर लिया क्योंकि बच्ची को कौन देखेगा?
कालेज से लंच में घर आती और जितनी देर में बच्ची का पेट भरतीवे कुछ कुछ बनाकर रखे होती और मेरेसामने रख देती कि तू भीजल्दी से कुछ खाले और फिर दोनों काम साथ साथ करके मैं कॉलेजके लिए भागती।बेटी को सुला कर ही कुछ खाती और कभी कभी तोअगर वह नहीं सोती तो मुझे शाम को ऐसे ही गोद में लिएहुएमिलती . मैं सिर्फ पढ़ाई और बच्ची को देख पाती
मैं सिर्फ
पढ़ाई और बच्ची को देख पाती थी घर की सारी व्यवस्थामेरे कॉलेज से वापस आने के बाद कर लेती थी।मुझे कुछ भी पतानहीं लगता था कि घर में क्या लाना है? क्या करना है? वह समय भीगुजर गया। मेरी छोटी बेटी माह की थी जब मैंने आई आई टी मेंनौकरी शुरू की। घंटे होते थे काम के और इस बीच में इतनी छोटीको bachchi कों कितना मुश्किल होता है एक माँ के लिए शायदआसान हो लेकिन इस उम्र में उनके लिए आसान था लेकिन कभीकुछ कहा नहीं। ऑफिस के लिए निकलती तो बेटी उन्हें थमा करऔर लौटती तो उनकी गोद से लेती।
मैं आज इस दिन जब वो नहीं है फिर भी दिए गए प्यार और मेरेप्रति किये गए त्याग से इस जन्म
में हम उरिण नहीं हो सकते हैं मेरे सम्पूर्ण श्रद्धा सुमन उन्हें अर्पित
है

माँ......श्यामल सुमन


मेरे गीतों में तू मेरे ख्वाबों में तू,
इक हकीकत भी हो और किताबों में तू।
तू ही तू है मेरी जिन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तू न होती तो फिर मेरी दुनिया कहाँ?
तेरे होने से मैंने ये देखा जहाँ।
कष्ट लाखों सहे तुमने मेरे लिए,
और सिखाया कला जी सकूँ मैं यहाँ।
प्यार की झिरकियाँ और कभी दिल्लगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

तेरी ममता मिली मैं जिया छाँव में।
वही ममता बिलखती अभी गाँव में।
काटकर के कलेजा वो माँ का गिरा,
आह निकली उधर, क्या लगी पाँव में?
तेरी गहराइयों में मिली सादगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

गोद तेरी मिले है ये चाहत मेरी।
दूर तुमसे हूँ शायद ये किस्मत मेरी।
है सुमन का नमन माँ हृदय से तुझे,
सदा सुमिरूँ तुझे हो ये आदत मेरी।
बढ़े अच्छाईयाँ दूर हो गन्दगी।
क्या करूँ माँ तेरी बन्दगी।।

शनिवार, 7 मई 2011

रीति बहुत विपरीत........................श्यामल सुमन


जीवन में नित सीखते नव-जीवन की बात।
प्रेम कलह के द्वंद में समय कटे दिन रात।।

चूल्हा-चौका संग में और हजारो काम।
इस कारण डरते पति शायद उम्र तमाम।।

झाड़ु, कलछू, बेलना, आलू और कटार।
सहयोगी नित काज में और कभी हथियार।।

जो ज्ञानी व्यवहार में करते बाहर प्रीत।
घर में अभिनय प्रीत के रीति बहुत विपरीत।।

बाहर से आकर पति देख थके घर-काज।
क्या करते, कैसे कहे सुमन आँख में लाज।।



शुक्रवार, 6 मई 2011

कैक्टस की व्यथा............डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"


क्यों मुझ पर हँसते हो?
मुझ से नफरत करते हो
बिना कारण दुःख देते हो
अपनी इच्छा से कैक्टस
नहीं बना
मुझे इश्वर ने ये रूप दिया
उसकी इच्छा का
सम्मान करो
मुझ से भी प्यार करो
माली की ज़रुरत नहीं
मुझको
स्वयं पलता हूँ
कम पानी में जीवित
रहकर
पानी बचाता हूँ
जिसके के लिए तुम
सब को समझाते
वो काम में खुद ही
करता
भयावह रेगिस्तान में
हरयाली का अहसास कराता
खूबसूरत
फूल मुझ में भी खिलते
मेरे तने से तुम भोजन पाते
आंधी तूफानों को
निरंतर हिम्मत से झेलता
कभी किसी से
शिकायत नहीं करता
तिरस्कार सब का सहता
विपरीत परिस्थितियों
में जीता हूँ
फिर भी खुश
रहता हूँ

बुधवार, 4 मई 2011

शान से...............अभिषेक

कुछ दूर चले थे बटोही

एक अनजाने से पथ पर

पत्थर के शहर से दूर

बेगाने महफ़िल से हटकर


सपनो को पूरा करने

वो बढ़ते रहे निरंतर

बादल था उनका आवरण

पंछी करते थे मनोरंजन


माँ से कहकर निकले थे

हम लायेंगे तेरे सपने

जो खो गए हैं अन्तरिक्ष में

वो होंगे तेरे अपने


रक्त गिरा चरणों से

लेकिन साहस न डिग पाया

वो धीर थे,असहाय न थे

उन्होंने इसको यथार्थ बनाया


माँ करती थी इंतज़ार

एक दिन सच होगा अपना सपना

मन्नत नहीं मांगी कोई उसने

वो थी एक वीरांगना


क्षत्रिय लालो की वो माँ थी

उसमे शौर्य प्रबल था

शान से लौटेंगे मेरे बच्चे

ये विश्वास अटल था


रण था उनके त्याग का

वो पांडव अब भी जीते हैं

कुंती है हर भारत के माँ में

वो शान देश की रखते हैं


हर सत्य के साथ युधिस्ठिर

वीर जवानो के संग अर्जुन है

हर दुष्टों का संहार करेगा

हर इंसान में एक भीम है


आंच ना आएगी तिरंगे पर

नकुल सहदेव है हर लाल में

तोड़ न पायेगा कोई हमें

जो डट जायेंगे हम शान से


सोमवार, 2 मई 2011

पतझड़........ मानव मेहता

मैंने देखा है उसको


रंग बदलते हुए....


हरे भरे पेड़ से लेकर,


एक खाली लकड़ी के ठूंठ तक.......


गए मोसम में,मेरी नज़रों के सामने,


ये हरा-भरा पेड़-


बिलकुल सूखा हो गया....


होले-होले इसके सभी पत्ते,


इसका साथ छोड़ गए,


और आज ये खड़ा है


आसमान में मुंह उठाये-


जैसे की अपने हालत का कारन,


ऊपर वाले से पूछ रहा हो....!!!!




इसके ये हालत,


कुछ मुझसे ज्यादा बदतर नहीं हैं,


गए मोसम में,


मुझसे भी मेरे कुछ साथी,


इसके पत्तों की तरह छुट गए थे......


मैं भी आज इस ठूंठ के समान,


मुंह उठाये खड़ा हूँ आसमान की तरफ.....


आने वाले मोसम में शायद ये पेड़,


फिर से हरा भरा हो जाएगा.....


मगर न जाने मेरे लिए,


वो अगला मौसम कब आएगा.....


जाने कब....???

रविवार, 1 मई 2011

नया दौर ................डॉ कीर्तिवर्धन

नया दौर
नये दौर के इस युग में
सब कुछ उल्टा पुल्टा है|
महंगी रोटी सस्ता मानव
जगह जगह पर बिकता है.|
कहीं पिंघलते हिम पर्वत तो
हिम युग का अंत बताते हैं,|
सूरज की गर्मी भी बढ़ती
अंत जहाँ का दिखता है.|
अबला भी अब बनी है सबला
अंग परदर्शन खेल में|
नैतिकता का अंत हुआ है
जिस्म गली में बिकता है.|
रिश्तो का भी अंत हो गया
भौतिकता के बाज़ार में,
कौन पिता और कौन है भ्राता
पैसे से बस रिश्ता है.|
भ्रष्ट आचरण आम हो गया
रुपया पैसा खास हो गया,
मानवता भी दम तोड़ रही
स्वार्थ दिलों में दिखता है.|
पत्नी सबसे प्यारी लगती
ससुराल भी न्यारी लगती,
मात पिता संग घर में रहना
अब तो दुष्कर लगता है. |