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गुरुवार, 24 सितंबर 2009

इंसान

समूचा जन-समुदाय कलियुग की आपदायें सहता हुआ त्राहि-त्राहि कर रहा था। जन-समुदाय की करुण पुकार पर आसमान में एक छवि अंकित हुई और आकाशवाणी हुई-
‘‘तुम लोग कौन?’’
एक छोटे से समूह से आवाज उभरी-‘‘हिन्दू।’’
और आसमान से एक हाथ ने आकर उस हिन्दू समुदाय को आपदाओं से मुक्त कर दिया। अभी भी कुछ लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। पुनः आकाशवाणी हुई-
‘‘तुम लोग कौन?’’
शेष जन-समूह के एक छोटे से भाग से स्वर उभरा-‘‘मुसलमान।’’
पुनः एक हाथ ने मुस्लिम समुदाय को भी आपदाओं से बचा लिया। अभी भी कुछ लोग शेष थे। पुनः वही प्रश्न गूँजा-
‘‘तुम लोग कौन?’’
भीड़ का एक छोटा सा हिस्सा चिल्लाया-‘‘ईसाई।’’
एक और हाथ ने उस समूह का भी भला किया। प्रश्न उभरते रहे, उत्तर गूँजते रहे, हाथ आते रहे, लोग बचते रहे। आसमान से फिर वही प्रश्न उभरा-
‘‘तुम लोग कौन?’’
अबकी बहुत थोड़े से बचे लोगों की आवाज सुनाई दी-‘‘इन्सान।’’
इस समूह को बचाने कोई भी हाथ नहीं आया। आसमान पर उभरी वह छवि भी लुप्त हो गई और ‘इन्सान’ इसी तरह त्राहि-त्राहि करता रहा।

दर्द --------- "गुरशरण जी"

दर्द को छुपाते हैं हम, दर्द दिखने की आदत नहीं
खुद अश्क पी जाते हैं हम, दुसरो के अश्क बहाने की आदत नहीं.



हमारी दिल की आवाज़ तो पुहच जाती है उनके दर पे,
पर शायद उन्हें दिल तक पुह्चाने की आदत नहीं .



न किसी की हमदर्दी न किसी का प्यार चाहिए
पर यूँ नफरत मैं जल जाने की आदत नहीं.



अश्क तो आज भी उनकी याद मैं आते हैं
पर किसी के पीछे पड़ जाने की आदत नही.



रोना तो अब आदत सी है हमारी
पर आंसूं के सेलाब मैं डूब जाने की आदत नहीं.



काश नफरत हम भी धर लेते उनकी तरह
पैर यूँ पत्थर दिल बन जाने की आदत नहीं.



भुलाना तो चाहते हैं हम भी उन्हें
पैर यूँ किसी की यादें मिटने की आदत नहीं