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शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

बाजारीकरण या आजादी------- (मिथिलेश दुबे)

लंबे समय से हम इस बात पर बहस की जा रही है कि हमारा समाज उच्छृंखल होता जा रहा है। खास कर यह उच्छृंखलता यौन मामलों में ज्यादा ही दिखाई दे रही है। समलैंगिता को मान्यता देना, यौन शिक्षा का समर्थन करना और इससे जुड़े पहलुओं का महिमामंडन करना वर्तमान समय में हमारे समाज में आम हो गया है। देखिए, जो कुछ भी होता है, इसी समाज में होता है और इस बात की दुहाई के साथ कि यह समाज का एक अंग है। मैं इससे इनकार नहीं करता।

यह बात सर्वमान्य है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और यह भी सही है कि समाज अपने में कुछ नहीं है, जो कुछ भी है वह तो व्यक्तियों का समूह है। इसलिए व्यक्ति जो सोचता है, वह या तो व्यक्तिगत होता है या फिर सामाजिक। सोच को कभी भी थोपा नहीं जा सकता। अगर प्रकृति ने हमें यह बताया है कि दो विपरीत लिंगी विपरीत हैं तो प्राकृतिक ढंग से वे एक नहीं हो सकते। प्राकृतिक ढंग से जो विपरीत है, उसके लिए राइट टू इक्वलिटी की बात करना थोपा हुआ सच है। पश्चिमी संस्कृति में है, इसलिए हमारे यहां लागू करने में क्या हर्ज है, यह डिबेट का विषय है। भारतीय ढांचें में आर्डर ऑफ नेचर सर्वमान्य है। इसलिए यह कहना कि सब कुछ आपसी सहमति से हो रहा है, ठीक नहीं है। यह आपसी सहमति सबको मान्य हो जरूरी नहीं। कल को दो शादी-शुदा लोग आपसी सहमति से अपनी पत्नियां बदल लें तो क्या उचित है। जिस राइट टू इक्वलिटी की बात हम कर रहे हैं, वहां भी जन नैतिकता और शालीनता की बात की गई है। हम बराबरी के सिद्धांत को एक सीमा तक ले जा सकते हैं, सब कुछ बराबर ही होता तो यह प्रकृति न होती। विडंबना तो यह है कि इसे वैज्ञानिक स्तर पर प्रमाणित किया जा रहा है। डाक्टर कह रहे हैं कि इन संबंधों से कोई बीमारी नहीं होगी। ये वही विशेषज्ञ हैं, जो कल को यह भी कह रहे थे कि मां का दूध पीने से मां की बीमारियां बच्चे को हो जाती हैं, जबकि भारतीय संस्कृति में मां के दूध को अमृत कहा गया है। कहने का आशय यह है कि आधुनिक बनने के फेर में हम इतना आगे न निकल जाएं, जिसके सिर्फ नुकसान ही नुकसान हों।

न्युज चैनल हो या अखबार, अनर्गल विज्ञापनों और नग्न चित्रों से पटे हैं। तेल, साबुन, कपड़ा सभी जगह यही नग्नता। यहाँ पर मेरा सवाल उन प्रगतिवादी महिलाओं से है जो की महिला उत्थान के लिए कार्यरत है इस तरह के बाजारीकरण से उन्हे समान अधिकार मिल रहें है या उनको बाजार में परोसा जा रहा है ?। हमारे यहाँ की प्रगतिवादी महिलाएं बस एक ही चिज की माँग करती हैं वह है आजादी, समान अधिकार। मैं भी इनके पक्ष में हूँ लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि इन सब के पिछे ये महिलाएं कुछ चिजो को भुल जा रहीं है। इन्हे ये नहीं दिखता की आजादी को खुलापन कहकर किस प्रकार से इनका प्रयोग किया जा रहा है। चुनाव प्रचार हो या शादी का पंड़ाल छोट-छोटे कपड़ो में महिलाओं को स्टेज पर नचाया जा रहा है। यहाँ पर महिला उत्थान के लिए कार्यरत लोग न पता कहाँ है। अब उन्हे ये कौन समझाये कि उनका किस तरह से बाजारीकरण हो रहा है।


दूसरा मुद्दा है सेक्स एजुकेशन यानी यौन शिक्षा का। 9 जून 2009 को वेंकैया नायडू पेटीशन ने राज्य सभा में एडल्ट एजुकेशन बिल प्रस्तुत किया। यह यौन शिक्षा के विरोध में था। इस पर सदन में कोई बहस नहीं हुई। हम निरर्थक बहसों पर तो सदन के कितने ही दिन जाया कर देते हैं, लेकिन इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साध ली? हमारे शास्त्र और लगभग सभी धर्म इस बात को मानते हैं कि जिस तरह बच्चे को भूख और प्यास लगती है, उसी तरह यौन जिज्ञासा एक प्राकृतिक इच्छा है। लड़कियों को मां और बहने उन्हें इस बारे में बताती हैं और ज्यादातर लड़के समाज से यह बात सीख जाते हैं। इसके पीछ तर्क दिया जा रहा है कि यौन अनभिज्ञता की वजह से ही एड्स जैसी बीमारियां हो रही हैं। सरकार इसके पीछे इन बीमारियों का रैकेट बना कर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं, घोटाले हो रहे हैं। हेल्थ और फेमिली वेलफेयर विभाग का प्रचार टीवी पर दिखाया जा रहा है टीवी पर दिखाए जा सारे धारावाहिक एक्सट्रा मैराइटल अफेयर पर केंद्रित हैं। तर्क यह दिया जाता है कि जो समाज में हो रहा है, हम वही दिखा रहे हैं, अगर आपको न पंसद हो तो आप स्विच ऑफ कर लें। कल को आप टीवी पर ब्लू फिल्में दिखाने लगें और कहें कि आपको पसंद न हो तो स्विच ऑफ कर लें। सरकार भी इन मामलों में पूरी तरह उदासीन है। हाल ही में लोकसभा में सांसद रवींद्र कुमार पांडे, चंद्रकांत खेड़, मधु गुडपक्षी और एकनाथ गायकवाड़ ने प्रश्न किया कि क्या सरकार का विचार समलैंगिक संबंधी कानून की समीक्षा करने और भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को संशोधित या निरसित करने का है। यदि हां तो ब्यौरा क्या है और यदि नहीं तो क्या कारण है?

इस सवाल के जवाब में गृहराज्य मंत्री एम रामचंद्रन ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक गैर सरकारी संस्था द्वारा दायर किए गए रिपिटीशन-2001 संख्या-7455 के संबंध में अन्य बातों के साथ यह कहा गया है कि जहां तक भारतीय दंड संहिता 377 तथा उससे संबंधित किसी व्यक्ति के निजी तौर पर सहानुभूति पूर्वक किए जाने वाले यौन कृत्यों को अपराध माने जाने से है तो यह संविधान के अनुच्छेद 21,14, और 15 का उल्लंघन करने वाला है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इसी तरह पुन्नम प्रभाकर के सवाल कि टीवी चैनलों में पेश की जा रही अश्लीलता का बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। अगर हां, तो सरकार इस संदर्भ में कौन से कदम उठा रही है। इसके जवाब में भी सरकारी पक्ष ने जवाब के तौर पर कहा कि इन मामलों की निगरानी के लिए एक कमेटी गठित की जा रही है। ऐसे मुद्दों पर सरकारी तौर पर कोई बहस नहीं की जा रही है।

अश्लीलता का यह चलन आने वाले दिनों में हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरा बन जाएगा। हम विदेशों का उदाहरण देते हैं कि वहां खुलापन बढ़ रहा है और हम लकीर पीट रहे हैं। अमेरिका में परिवार इसी खुलेपन की वजह से टूट रहे हैं। आपको याद होगा बिल क्लिंटन ने अमेरिका में टूटती पारिवारिक व्यवस्था पर विचार करने के लिए चार बार वैश्विक स्तर पर बैठक की थी। दूसरी बात, हर मुद्दे पर सरकार का मुंह ही न देखिए। इस पर शांतिप्रद तरीके से सामाजिक आंदोलन हो। समाज का एक वर्ग तर्क दे रहा है कि हमारे शास्त्रों में समलैंगिक संबंधों और यौनिक खुलापन को जगह दी गई है। ठीक है, चार पुरुषार्थो में काम को भी रखा गया है। उसके ऊपर चिंतन करें, यह गलत नहीं, इसका उद्देश्य प्रकृति को अनवरत रूप से चलने देना है। मगर मात्र खजुराहो के मंदिर व वात्स्यायन का कामशास्त्र ही भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते। सामाजिक नियम द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार बदलते रहते हैं। पानी की भूमिका हमेशा एक-सी नहीं होती है। कभी वह प्यास बुझाकर जीवन देता है तो कभी बाढ़ के रूप में जीवन ले भी लेता है। अगर किसी व्यक्ति ने इन संबंधों पर लिखा है तो उसके उद्देश्य को समझिए। यह ऋषि सम्मत है या संस्कृति सम्मत, यह कुतर्क का विषय है।