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गुरुवार, 5 नवंबर 2009

भूख और बेबसी

उसने चूल्हे में कुछ सूखी लकड़ियाँ डालकर उनमें आग लगा दी और चूल्हे पर बर्तन चढ़ाकर उसमें पानी डाल दिया। बच्चे अभी भी भूख से रो रहे थे। छोटी को उसने उठाकर अपनी सूखी पड़ी छाती से चिपका लिया। बच्ची सूख चुके स्तनों से दूध निकालने का जतन करने लगी और उससे थोड़ा बड़ा लड़का अभी भी रोने में लगा था।
उस महिला ने खाली बर्तन में चिमचा चलाना शुरू कर दिया। बर्तन में पानी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था पर बच्चों को आस थी कि कुछ न कुछ पक रहा है। आस के बँधते ही रोना धीमा होने लगा किन्तु भूख उन्हें सोने नहीं दे रही थी।
वह महिला जो माँ भी थी बच्चों की भूख नहीं देख पा रही थी, अन्दर ही अन्दर रोती जा रही थी। बच्चे भी कुछ खाने का इंतजार करते-करते झपकने लगे। उनके मन में थोड़ी देर से ही सही कुछ मिलने की आस अभी भी थी।
बच्चों के सोने में खलल न पड़े इस कारण माँ खाली बर्तन में पानी चलाते हुए बर्तनों का शोर करती रही और बच्चे भी हमेशा की तरह एक धोखा खाकर आज की रात भी सो गये।

रिश्ते बंद है आज चंद कागज के टुकड़ो में

रिश्ते बंद है आज


चंद कागज के टुकड़ो में,


जिसको सहेज रखा है मैंने


अपनी डायरी में,


कभी-कभी खोलकर देखता हूँ


उनपर लिखे हर्फों को


जिस पर बिखरा है


प्यार का रंग,


वे आज भी उतने ही ताजे है


जितना तुमसे बिछड़ने से पहले,


लोग कहते हैं कि बदलता है सबकुछ


समय के साथ,


पर ये मेरे दोस्त


जब भी देखता हूँ गुजरे वक्त को,


पढ़ता हूँ उन शब्दो को


जो लिखे थे तुमने,


गूजंती है तुम्हारी आवाज


कानो में वैसे ही,


सुनता हूँ तुम्हारी हंसी को


ऐसे मे दूर होती है कमी तुम्हारी,


मजबूत होती है रिश्तो की डोर


इन्ही चंद पन्नो से,


जो सहेजे है मैंने न जाने कब से।