अब हवाओं में फैला गरल ही गरल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। गन्ध से अब, सुमन की-सुमन है डरा, भाई-चारे में, कितना जहर है भरा, वैद्य ऐसे कहाँ, जो पिलायें सुधा- अब तो हर मर्ज की है, दवा ही अजल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। धर्म की कैद में, कर्म है अध-मरा, हो गयी है प्रदूषित, हमारी धरा, पंक में गन्दगी तो हमेशा रही- अब तो दूषित हुआ जा रहा, गंग-जल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। आम, जामुन जले जा रहे, आग में, विष के पादप पनपने, लगे बाग मे, आज बारूद के, ढेर पर बैठ कर- ढूँढते हैं सभी, प्यार के चार पल। क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।। शिव अभयदान दो, आज इन्सान को, जग की यह दुर्गति देखकर, हे प्रभो! नेत्र मेरे हुए जार हे हैं, सजल । क्या लिखूँ ऐसे परिवेश में गजल।।
आओ! शंकर, दयानन्द विष-पान को,