कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार,
अपनी पीडा लेखनी को क्या बताऊँ,
साथी को अपना साथ कैसे समझाऊँ।
मेरी पहचान है तेरे बगैर,
उस दीप का जो बात के बिन क्या अँधेरा दूर करे,
मेरी संगीत है तेरे बगैर,
उस गीत सा जो ताल के बिन क्या मधुर रस शोर करे।
तु राग है,और मै तेरा हमराज हूँ,
कैसे कहुँ मेरी कविता का बस तु ही साज है।
शब्दों को गढ़ कैसे मुझे लुभाती है,
कविता से कवि को कैसे कैसे सपने दिखाती है।
छन छन थिरक नर्तकी सी,
वो नृत्यांगना मेरे दिल पे,
कामदेव के बाण चलाती है।
मै लिखना चाहता हूँ कुछ और,
वो लिख देती है कुछ और ही,
मै कहना चाहता हूँ कुछ और,
वो सुन लेती है कुछ और ही।
कुछ कहना चाहता हूँ मै,
अपनी प्रेम गाथा,
पर लेखनी से कैसे कहूँ दिल की व्यथा।
वो तो बस शर्मा के हँस देती है,
मेरी हर कविता को नया रँग वो देती है।
चाहता हूँ कर दूँ प्यार का इजहार,
बस डरता हूँ क्या होगा इसका प्रतिकार।
यदि लेखनी मुझसे रुठ कर मुँह फेर ले,
कैसे सजाऊँगा फिर विचारों को शेर में।
इसी उधेरबुन में वो है लाचार,
अपनी पीडा लेखनी को क्या बताऊँ,
साथी को अपना साथ कैसे समझाऊँ।
मेरी पहचान है तेरे बगैर,
उस दीप का जो बात के बिन क्या अँधेरा दूर करे,
मेरी संगीत है तेरे बगैर,
उस गीत सा जो ताल के बिन क्या मधुर रस शोर करे।
तु राग है,और मै तेरा हमराज हूँ,
कैसे कहुँ मेरी कविता का बस तु ही साज है।
शब्दों को गढ़ कैसे मुझे लुभाती है,
कविता से कवि को कैसे कैसे सपने दिखाती है।
छन छन थिरक नर्तकी सी,
वो नृत्यांगना मेरे दिल पे,
कामदेव के बाण चलाती है।
मै लिखना चाहता हूँ कुछ और,
वो लिख देती है कुछ और ही,
मै कहना चाहता हूँ कुछ और,
वो सुन लेती है कुछ और ही।
कुछ कहना चाहता हूँ मै,
अपनी प्रेम गाथा,
पर लेखनी से कैसे कहूँ दिल की व्यथा।
वो तो बस शर्मा के हँस देती है,
मेरी हर कविता को नया रँग वो देती है।
चाहता हूँ कर दूँ प्यार का इजहार,
बस डरता हूँ क्या होगा इसका प्रतिकार।
यदि लेखनी मुझसे रुठ कर मुँह फेर ले,
कैसे सजाऊँगा फिर विचारों को शेर में।
कवि को हो गया लेखनी से प्यार,
इसी उधेरबुन में वो है लाचार...........