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मंगलवार, 12 मई 2009

तुम महसूस तो करो


सोचो न कभी खुद को तन्हा यहाँ
हम सब हैं साथ तुम्हारे सदा,
तुम्हारे साये की तरह,
तुम महसूस तो करो।

महसूस करो हमारा होना तुम,
अपने खून की रवानी में,
दिल की धड़कन में,
अपनी हर साँस में।
हर धड़कन में है संदेश
हमारे प्यार का।
हर साँस में है महक
स्नेह, दुलार की,
हम सभी के विश्वास की,
तुम महसूस तो करो।

गुजारे जो दोस्त, यारों के संग,
बचपन के वो सुहाने दिन,
गुजर गये वो
हवा के झोंकों की तरह।
लड़खड़ा कर गिरना,
सँभलना फिर
वो माता-पिता की बाँहों में।
वो अपनों से झगड़ने का
मीठा एहसास,
अब भी है
दिल के किसी कोने में,
बन करके याद तुम्हारे आसपास,
तुम महसूस तो करो।

मशीनी जीवन [एक कविता] - अवनीश तिवारी की

बैठते - उठते मशीनों संग ,
मशीन बन गया हूँ मैं ,
नैतिक मूल्यों से दूर ,
निर्जीव, सजीव रह गया हूँ मैं |

मस्तिष्क के पुर्जों का जंग ,
विचारों को करता प्रभावहीन ,
और अंगों में पड़ता जड़त्व ,
स्फूर्ती को बनाता गतिहीन |

दिनचर्या का हर काम,
बन चुका पर - संचालित,
और मेरे उद्योग का परिणाम,
लगता है पूर्व - नियोजित |

नूतनता का अभाव ,
व्यक्तित्व को निष्क्रिय बनाए ,
कार्य - प्रणाली के प्रदूषण ,
जर्जता को सक्रीय कर जाए |

जब स्पर्धा के पेंचों का कसाव,
स्वार्थी बना जाता है ,
तब मैत्री के क्षणों का तेल ,
द्वंद - घर्षण दूर भगाता है |

अन्य नए मशीनों में,
अनदेखा हो गया हूँ ,
मशीन से बिगड़ अब ,
कबाड़ हो रहा हूँ |