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सोमवार, 21 सितंबर 2009

शजर पर एक ही पत्ता बचा है------- "जतिन्दर परवाज़ "

शजर पर एक ही पत्ता बचा है


हवा की आँख में चुभने लगा है


नदी दम तोड़ बैठी तशनगी से


समन्दर बारिशों में भीगता है


कभी जुगनू कभी तितली के पीछे


मेरा बचपन अभी तक भागता है


सभी के ख़ून में ग़ैरत नही पर


लहू सब की रगों में दोड़ता है


जवानी क्या मेरे बेटे पे आई


मेरी आँखों में आँखे डालता है


चलो हम भी किनारे बैठ जायें


ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है

अजीब शख्श है जो ----------" डा० भूपेन्द्र "

अजीब शख्श है जो मेरे घर मे रहता है ,


नदी का तट है वो फिर भी नदी सा बहता है ,


तेज़ धूप में उसमें महक है फूलों की ,


अपना दर्द जो बस आंसुओं से कहता है ,


अपने चिटके हुए आइने में देखता दुनिया ,


एक ही उम्र मे सौ अक्स बन के रहता है ,


जहाँ हर एक के हैं बंद दरो दरवाजे ,



खुली सड़क पे मस्त मौज जैसा बहता है ,


जिनके ताज अजायबघरों मे रखे हैं ,


उन्ही बुजुर्गों के टूटे किलों सा ढहता है ,


उसका लिखा हुआ हर लफ्ज़ ग़ज़ल होता है ,


इस कदर वो अपने जोरो ज़बर सहता है //अजीब शक्श ...