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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है...


नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है
खुशियों की बस चाहत है

नया हो जोश, नया उल्लास
खुशियाँ फैले अपरम्पार

मिटे मँहगाई और भ्रष्टाचार
जीवन स्तर में भी हो सुधार

नैतिकता के ऊँचे मूल्य गढ़ें
सबकी मर्यादा रहे बरकरार

कोई भूखा पेट न सोये
गरीबों का भी हो उद्धार

ऐ नव वर्ष के प्रथम प्रभात
स्तुति तुम्हारी बारम्बार।

आकांक्षा यादव

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का स्मृति-उपवन है "कितने अपने"

मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले किन्तु वह स्वयं को स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पाता है। पता नहीं यह मोहपाश है अथवा बीते पलों को न भुला पाने की विवशता कि व्यक्ति जाने-अनजाने ही स्मृतियों के विशाल उपवन में विचरण करने लगता है। सुखद पलों की सोंधी महक एसे भटकाती है तो दुःखद पलों के काँटों की चुभन एक टीस पैदा करती है। डॉ0 वीणा श्रीवास्तव की स्मृतियों का उपवन उन्हें भी कभी महकाता है तो कभी एक टीस सी देता दिखता है। इन स्मृतियों का वे आज जिस तरह स्वयं अनुभव करतीं हैं वही अनुभव ‘कितने अपने’ के द्वारा अपने पाठकों को भी करवातीं हैं।

‘अब वो मिठास कहाँ’ से शुरू उनकी स्मृति-यात्रा पैंतीस सोपानों से गुजरते हुए अन्त में वर्तमान में खड़ा करती है। इस पूरी स्मृति-यात्रा में हर पल यही अनुभव होता रहा कि हाँ, ऐसा तो कुछ मेरे साथ भी हुआ है। ‘कितने अपने’ का आरम्भ ही समूची स्मृतियों का सूत्र-वाक्य लगता है कि ‘उस गुठली या फाँकों में जो मिठास थी वो अब किलो भर आम या पूरे खरबूजे में कहाँ? वो मिठास तो संतुष्टि की थी, आम या खरबूजे की नहीं।’
बचपन की स्मृतियों में ले जाती लेखिका तत्कालीन समाज का चित्र भी अनायास हमारे सामने खींच ले जाती हैं। ‘कमथान साहब’ ‘बटेश्वरी चाचा’ ‘बहर साहब’ के लबों से गुजरता ‘हुक्का’ बाबू जी के मुँह पर रुकता तो वह मात्र विषयों की चर्चा, किसी निर्णय, पारिवारिक मसलों का आधार नहीं बनता वरन् तत्कालीन सामुदायिकता का परिचायक भी बनता है। संयुक्त परिवारों की दृढ़ता के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी पुष्ट करता दिखता है। ऐसी सामुदायिक भावना के मध्य ही लेखिका ‘परमट वाली बहू’ ‘चुन्नीगंज वाली महाराजिन’ तथा ‘रामानुज चाचा’ के गुम हुए चेहरों को खोजती है, जो परिवार के सदस्य न होकर भी एक पारिवारिक सदस्य की भाँति आदर और सम्मान के पात्र रहे। ‘जहाँ देखो वहाँ मुखौटे ही मुखौटे हैं। चलो ढूँढती हूँ इन्हीं मुखौटों में शायद कुछ लोग ऐसे मिल जायें जिन्हें मैं कह सकूँ ये ‘कितने अपने’ हैं, की एक टीस के बीच लेखिका पुराने सम्बन्धों का आधार तलाशने का प्रयास भी करती हैं।
लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का संगीत के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ा होना उन्हें अत्यधिक सम्वेदनशील बनाता है। यही कारण है कि वर्तमान कालखण्ड से कहीं बहुत दूर किसी समय में जब वे स्वयं बचपन की शरारत, मासूमियत, निश्छलता को जी रही थीं, उन्हें उस समय की कुछ किरिचें आज भी चुभती हैं। इसी चुभन के बीच वे पारिवारिक संरचना की मिठास को खोजती हुई तुरन्त ही ‘पीपल की शादी’ ‘वह तोड़ती ईंट’ जैसी मनोवैज्ञानिक वेदना को भी प्रदर्शित करती हैं।
‘रंगपासी’ के माध्यम से आँगन में खड़ी दीवार की टीस, विभा का ‘प्रेमघट, रीता का रीता’ रह जाना, ‘मुनिया’ का पिंजड़े में बद्ध जीवन, शोभा के प्रति डॉक्टर की ‘अमानुष’ होने की वेदना को गहराई से प्रकट करना लेखिका के सम्वेदनशील होने का प्रमाण है। इसी सम्वेदनशीलता के कारण वे बचपन की ‘पतंग’ को न उड़ा पाने की विवशता को याद रख पाती हैं तो छोटी सी चवन्नी के सहारे बालसुलभ प्रतिद्वन्द्विता के रूप में अपनी सहेलियों को प्रत्युत्तर भी देती हैं तथा खुद को क्षणिक अमीर बने होने का भाव भी हृदय में सहेजे रह पाती हैं।
परिवार, रिश्ते, नाते, सम्बन्धियों, दोस्तों, सहेलियों के आत्मीय व्यवहार को अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोये लेखिका प्रकृति प्रेम को भी आत्मीय रूप में अपने में समाहित किये हैं। तभी उन्हें खजुराहो की कलाकृतियों में, मंदिरों में एक प्रकार का दर्शन दिखता है तो हिमालय की चोटियों, पर्वत श्रेणियों, झीलों, जलप्रपातों में मानवीय गुणों को देख उनका मन मंत्रमुग्ध हो उठता है। सम्वेदनशील हृदय की मलिका होने के कारण यदि वे अपनी ‘बिटिया’ के प्रति संवेदित हैं तो नन्हे से खरगोश चीकू के प्रति भी असंवेदनशील नहीं होती हैं। इसी स्वच्छ और निर्मल चित्त होने के कारण उन्हें और उनके पूरे परिवार को नारियल में माँ दुर्गा के साक्षात दर्शन प्राप्त होते हैं।
‘कितने अपने’ की लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का लगाव संगीत से बचपन से ही रहा है। ‘गुरु कृपा’ से वे आज इसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। संगीत की लय, तालबद्धता, उतार-चढ़ाव उनके स्मृति-लेखन में भी दिखाई देता है। एक-एक संस्मरण जैसे उनके मन-मष्तिष्क से कागज पर सीधे उतर आया हो। बिना किसी कृत्रिमता के, बिना किसी साहित्यिकता के शब्दों में संगीत की लहरियाँ दिखती हैं, रेखाचित्र सी चित्रात्मकता है तो शब्दों का नैसर्गिक प्रवाह। गीतों की रवानी सी इस पूरे संकलन ‘कितने अपने’ में देखने को मिलती है। बचपन की बात करते-करते अपने परिवार को याद करना, परिवार को याद करते-करते प्रकृति की गोद में चले जाना, प्रकृति की मनमोहक छवि के बीच अपने किसी प्रिय की परेशानी याद करने लगना और इन सबके बीच फिर से बचपन की किसी घटना का स्मरण करने लगना दर्शाता है कि लेखिका ने किसी प्रयास रूप में स्मृतियों का उपवन तैयार नहीं किया है वरन् स्मृतियों का जो स्वरूप मन-मष्तिष्क में उभरता रहा वही ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आया।
बिना प्रयास के स्वतः स्फूर्त रूप से उभरती स्मृतियों के मध्य कुछ कमी सी लगती है। ऐसा शायद उन्हें न लगे जो लेखिका से परिचित नहीं हैं पर जो डॉ0 वीणा जी के सम्पर्क में हैं वे आसानी से उस कमी को देख सकते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि लेखिका का वरद् हस्त मेरे ऊपर भी है। पिछले कई वर्षों का आत्मीय, पारिवारिक सम्पर्क होने से यह कमी मुझे भी दिखी। स्मृतियों के इस उपवन में उनके छोटे भाई संदीप की महक नहीं दिखती है, उनकी अन्य बहिनों की अंतरंगता परिलक्षित नहीं हुई है, उनके जीवनसाथी डॉ0 अरुण कुमार श्रीवास्तव के सहयोग और प्रेम की विश्वासधारा भी नहीं दिखी, जो महाविद्यालय एक लम्बे अरसे से लेखिका की विविध गौरवमयी उपलब्धियों का मूक दर्शक रहा है उसकी चमक इन स्मृतियों में प्रकाशित नहीं हो सकी। ये स्थितियाँ भी दर्शाती हैं कि लेखिका ने स्मृतियों को सँजोने का जो प्रयास किया है उसको शब्दरूप नहीं दिया है वरन् वे स्वतः, स्वच्छन्द रूप से निर्मित होकर ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आईं हैं।
हाँ, इसके साथ यह भी हो सकता है कि जिन स्मृतियों की सुगंध की कमी दिखती है, लेखिका उन कुछ स्मृतियों को अपनी थाती के रूप में सहेज कर उस उपवन में नितान्त निजी रूप में स्वयं ही विचरण करना चाहती हों, उनका अकल्पनीय सुख वे स्वयं ही भोगना चाहती हों।
कुछ भी हो ‘कितने अपने’ के बाद भी अभी और बहुत से कितने अपने शेष हैं जिनसे मिलने को पाठकगण आतुर हैं। आशा है कि डॉ0 वीणा श्रीवास्तव अपने स्मृति-उपवन की सैर आगे भी हम सभी को करवाती रहेंगीं।
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कृति-कितने अपने (स्मृतियाँ)
रचनाकार-डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
प्रकाशक-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ-101
मूल्य-रु0 150.00 मात्र
समीक्षक-डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे.................(सत्यम शिवम)

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे प्रिय,
इतने प्यारे होंगे क्या पता था।
मधुरस साथ तुम्हारा है प्रिय,
हर क्षण, प्रतिपल ह्रदय में घुल कर,
संगीतबद्ध हुआ आत्मा का कण कण,
तेरी सुरीली प्रणय राग सुनकर।

गुँजित हुआ झंकरित सा ह्रदय स्वर,
गंगा सी पावन नदी सा बहा था।

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे प्रिय,
इतने प्यारे होंगे क्या पता था।

संसर्ग मिलन का होता अनोखा,
प्रतीक्षा के पल बन जाते है सुहाने,
चाँदनी रात में हमदोनों जो छत पे,
ढ़ुँढ़ लेते है फिर मिलने के बहाने।

थम क्यों ना जाते है वो पल,
इक रात में ही तो अपना सारा जहा था।

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे प्रिय,
इतने प्यारे होंगे क्या पता था।

अधरों पे तेरे रुकी कोई बात,
पुरी ना होगी वो आज की भी रात,
नैनों में सपने इठलाने लगेंगे,
हर क्षण मिलेगा जो इक नया सौगात।

अधूरी इच्छा अधखुले नैनों से झाँक कर,
स्वप्न टुटने का दर्द, न जाने कैसे सहा था।

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे प्रिय,
इतने प्यारे होंगे क्या पता था।

सदियों ने बुझाया वो प्रेम का दीप,
हर रात काली सी हो गयी,
मिलन निशा की हर क्षण ,हर पल,
प्रतीक्षा के पल तुम्हारे बन गयी।

विरह वेदना की दर्द बनकर,
अश्रु नैनों में ही कही जमकर,
विचरण किया मै व्याकुल सा बन प्रिय,
हर रात छत पे तुमको ढ़ुँढ़ा था।

प्रतीक्षा के पल तुम्हारे प्रिय,
इतने प्यारे होंगे क्या पता था।


मेरी आवाज में विडियो देखे "प्रतीक्षा के पल तुम्हारे"
 On YOUTUBE 



रविवार, 26 दिसंबर 2010

मेरे सपने ने आज तोडा था मुझको ...neeshoo tiwari


सपनों के टूटने की खनक से
नींद भर सो न सका
रात के अंधेरे में कोशिश की
उनको बटोरने की
कुछ इधर उधर गिरकर बिखर गए थे
हाँ
टूट गए थे
एक अहसास चुभा सीने में
जिसके दर्द से आँखें भर आई थी
मैंने तो
रोका था उस बूंद को
कसमों की बंदिशों से
शायद
अब मोल न था इन कसमों का
फिर
उंघते हुए
आगे हाथ बढ़ाया था
वादों को पकड़ने के लिए
लेकिन वो दूर था पहुँच से मेरी
क्यूंकि
धोखे से उसके छलावे को
मैंने सच समझा था
कुछ
देर तक
सुस्ताने की कोशिश की
तो सामने नजर आया था
उसके चेहरे का बिखरा टुकड़ा
हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाहा था
लेकिन
कुछ ही पल में
चकनाचूर हो गया
वो चेहरा
मैं हारकर
चौंक गया था ....
.........
..................
चेहरा पसीने तर ब तर था
मेरे सपने ने
आज तोडा था मुझको

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

गंगा की घाटों पे वो..............(सत्यम शिवम)

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।
इक बहाव में बह गया वो,
आज की शाम,
जाने कब से निर्झर है ये शांत।
युगों युगों से देखा है जिसने कई सदी।

शाम की आरती का है समय,
तन्हाईयों ने कर दिया फिर से अकेला।


गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।

ये शाम अब भी वैसा है,
आसमां में चाँद,
गँगा की धार में बहते कई नाव।
गँगा के उस पार अब भी दिखता है इक गाँव।

वो लोगों का जमावड़ा भी वैसे ही है,
जैसा कभी हुआ करता था पहले।

बदला तो है बस जहा मेरा,
कल साथ थे सब,
आज हूँ अकेला।

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।

इक रुकी रुकी सी धुँधली तस्वीर,
दिखती है मुझको गँगा तीर।

इक नाव अभी भी दिखता है,
किसी की बाट जोहता हुआ बिल्कुल अधीर।

इक प्रार्थना का दीप जलता,
गँगा की धार में बहता है,
मेरी भावना के सीप चुनकर,
कुछ अधूरे ख्वाब को गहता है।

मेरा मन मुझसे कहता है,
यादों में जी लेता हूँ फिर,
गुजरे दिनों की हर इक वेला।

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

"ब्लॉगर मीट का आयोजन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

प्रिय ब्लॉगर मित्रो!
अपार हर्ष के साथ आपको सूचित कर रहा हूँ कि नववर्ष 2011 के आगमन पर देवभूमि उत्तराखण्ड के खटीमा नगर में 
एक ब्लॉगरमीट का आयोजन 9 जनवरी, 2011, रविवार को किया जा रहा है!
इस अवसर पर आप सादर आमन्त्रित है।
विस्तृत कार्यक्रम निम्नवत् है-

खटीमा की दूरी निम्न नगरों से निम्नवत् है-
मुरादाबाद से 160 किमी
रुद्रपुर से 70 किमी
बरेली से 95 किमी
पीलीभीत से 38 किमी
हल्द्वानी से 90 किमी
देहरादून से 350 किमी
हरिद्वार से 290 किमी
दिल्ली से 280 किमी
लखनऊ से 280 किमी है।
♥ दिल्ली आनन्द विहार से दो दर्जन रोडवेज की बसें प्रतिदिन खटीमा के लिए आती हैं। कश्मीरीगेट से प्रतिदिन दो प्राईवेट लग्जरीबसें 2बाई2 रात को 9 बजे खटीमा के लिए चलती हैं, जो सुबह खटीमा आ जाती हैं। 
जिनका किराया रोडवेज से कम है।
♥ दिल्ली से शाम को 4 बजे सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस काठगोदाम के लिए चलती है, -जो रात्रि 8ः30 पर रुद्रपुर आ जाती है। रुद्पुर से खटीमा मात्र 70 किमी है। रोडवेज की बसे यहाँ से खटीमा के लिए चलती रहती हैं। इसके अलावा प्रातः 9 बजे ओर रात को 9-30 पर भी ट्रेन रुद्पुर के लिए मिलती हैं।
♥ लखनऊ से ऐशबाग स्टेशन से खटीमा के लिए नैनीताल एक्सप्रेस में 3 रिजर्वेशन कोच टनकपुर के लिए लगते हैं। जो खटीमा प्रातःकाल पहुँच जाते हैं।
♥ लखनऊ से बरेली बड़ी लाइन की ट्रेन तो समय-समय पर मिलती ही रहती हैं। बरेली से रोडवेज की बसें बरेली सैटेलाइट बसस्टैंड से अक्सर मिलती रहती हैं। जो दो घण्टे में खटीमा पहुँचा देती हैं।
♥ देहरादून से रात को 10 बजे काठगोदाम एक्सप्रेस चलती है। जो प्रातः 5 बजे रुद्पुर पहुँच जाती है। यहाँ से रोडवेज की बस डेढ़ घण्टे में खटीमा पहुँचा देती है।

♥ हरिद्वार से भी 11 बजे रात्रि में काठगोदाम एक्सप्रेस पकड़ कर आप रुद्पुर उतर कर खटीमा की बस से आ सकते हैं।
♥ हरिद्वार और देहरादून से बहुत सी बसें खटीमा के लिए चलती हैं।
मान्यवर मित्रों! 
आप खटीमा 9 जनवरी को अवश्य पधारें!
यहाँ सिक्खों का गुरूद्वारा श्री नानकमत्तासाहिब में मत्था टेकें।
माँ पूर्णागिरि के दर्शन करें। नेपाल देश का शहर महेन्द्रनगर यहाँ से मात्र 20 किमी है।
आप नेपाल की यात्रा का भी आनन्द लें।
मैं आपकी प्रतीक्षा में हूँ!
अपने आने की स्वीकृति मेरे निम्न मेल पते पर देने की कृपा करें।

Email- rcshashtri@uchcharan.com
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा, 
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308.
Phone/Fax: 05943-250207, 
Mobiles: 09368499921, 09997996437

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

उसके सपने................(सत्यम शिवम)

उसके सपने है कुछ ऐसे,
मुट्ठी में सिमटे, हथेली पे बिखरे,
थोड़े से कच्चे, छोटे छोटे बच्चे,
बिल्कुल सच्चे, कितने अच्छे।

उसके सपने है कुछ ऐसे,

है छोटा सा कद, आसमा का तलब,
नन्हे से पावँ, नैनों में जलद,
बिखरे से है लट, मुख पे है ये रट,
उसे बनना है सब से ही अलग।

उसके सपने है कुछ ऐसे,

सरवर की डगर, छोटा सा है घर,
पनघट का सफर, हैरान सा पहर,
दुर्गम है जहान, उस पार वहाँ,
पर मँजिल का निशा, बयाँ करता है उसका हौसला।

उसके सपने है कुछ ऐसे,

अट्टालिका से गिरी, खिड़की पे अड़ी,
छोटी सी है वो, पर ख्वाब है बड़ी बड़ी,
अनजान, नादान, अकेली है राहों में,
फिर भी समेटना चाहती है,
दुनिया को अपनी बाहों में।

उसके सपने है कुछ ऐसे,

नाजुक, सुकुमार, कोमल है तन,
निश्छल, पवित्र, निर्मल है मन,
नैनों में चाहत है, पाले है सपने,
सब के लिए, सब है उसके अपने।

बस कारवाँ की राहों में,
उसका वजूद थोड़ा छोटा है,
पर मँजिल को पाने की ललक,
हर परावँ से मोटा है।

उसके सपने है कुछ ऐसे,

रविवार, 19 दिसंबर 2010

" 19 दिसम्बर की वह सुबह "--------(लेख)----मिथिलेश दुबे


रोज की तरह उस दिन भी सुबह होती है, लेकिन वह ऐसी सुबह थी जो सदियों तक लोगों के जेहन में रहेगी । दिसंबर का वह दिंन तारीख 19 , फांसी दी जानी थी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को । बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी जानी थी । रोज की तरह बिस्मिल ने सुबह उठकर नित्यकर्म किया और फांसी की प्रतीक्षा में बैठ गए । निरन्तर परमात्मा के मुख्य नाम ओम् का उच्चारण करते रहे । उनका चेहरा शान्त और तनाव रहित था । ईश्वर स्तुति उपासना मंन्त्र ओम् विश्वानि देवः सवितुर्दुरुतानि परासुव यद्रं भद्रं तन्न आसुव का उच्चारण किया । बिस्मिल बहुत हौसले के इंसान थे । वे एक अच्छे शायर और कवि थे ,जेल में भी दोनों समय संध्या हवन और व्यायाम करते थे । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे । संघर्ष की राह चले तो उन्होंने दयानन्द जी के अमर ग्रन्थों और उनकी जीवनी से प्रेरणा ग्रहण की थी । 18 दिसंबर को उनकी मां से जेल में भेट हुई । वे बहुत हिम्मत वाली महिला थी । मां से मिलते ही बिस्मिल की आखों मे अश्रु बहने लगे थे । तब मां ने कहा कहा था कि " हरीशचन्द्र, दधीचि आदि की तरह वीरता से धर्म और देश के लिए जान दो, चिन्ता करने और पछताने की जरुरत नही है । बिस्मिल हंस पड़े और बोले हम जिंदगी से रुठ के बैठे हैं" मां मुझे क्या चिंतन हो सकती, और कैसा पछतावा, मैंने कोई पाप नहीं किया । मैं मौत से नहीं डरता लेकिन मां ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है । तेरा मेरा संबंध कुछ ऐसा ही है कि पास आते ही मेरी आंखो में आंसू निकल पड़े नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ ।
अब जिंदगी से हमको मनाया न जायेगा।
यारों है अब भी वक्त हमें देखभाल लो, फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा । बह्मचारी रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वज ग्वालियर के निवासी थे । इनके पिता श्री मुरली धर कौटुम्बिक कलह से तंग आकर ग्वालियर छोड़ दिया और शाहजहाँपुर आकर बस गये थे । परिवार बचपन से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था । बहुत प्रयास के उपरान्त ही परिवार का भरण पोषण हो पाता था । बड़े कठिनाई से परिवार आधे पेट भोजन कर पाता था । परिवार के सदस्य भूख के कारण पेट में घोटूं देकर सोने को विवश थे । उनकी दादी जी एक आदर्श महिला थी , उनके परिश्रम से परिवार में अच्छे दिंन आने लगे । आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और पिता म्यूनिसपिल्टी में काम पर लग गए जिन्हे १५ रुपए मासिक वेतन मिलता था और शाहजहाँपुर में इस परिवार ने अपना एक छोटा सा मकान भी बना लिया । ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ११ (निर्जला एकादशी) सम्वत १९५४ विक्रमी तद्ननुसार ११ जून वर्ष १८९७ में रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ । बाल्यकाल में बीमारी का लंबा दौर भी रहा । पूजारियों के संगत में आने से इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया । नियमित व्यायाम से देह सुगठित हो गई और चेहरे के रंग में निखार भी आने लगा । वे तख्त पर सोते और प्रायः चार बजे उठकर नियमित संध्या भजन और व्यायाम करते थे । केवल उबालकर साग, दाल, दलिया लेते । मिर्च खटाई को स्पर्श तक नहीं करते । नमक खाना छोड़ दिया था । उनके स्वास्थ्य को लोग आश्चर्य से देखने लगे थे । वे कट्टर आर्य समाजी थे, जबकि उनके पिता इसके विरोधी थे जिसके चलते इन्हे घर छोड़ना पड़ा । वे दृढ़ सत्यवता थे । उनकी माता उनके धार्मिक कार्यों में और शिक्षा मे बहुत मदद करती थी । उस युग के क्रान्तिकारी गैंदालाल दीक्षित के सम्पर्क में आकर भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्ति का पर्याय बन गये थे । उन्होंने बहुत बड़ा क्रान्तिकारी दल (ऐच आर ए) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेसन के नाम से तैयार किया और पूरी तरह से क्रान्ति की लपटों के बीच ठ गए । अमरीका को स्वाधीनता कैसे मिली नामक पुस्तक का उन्होनें प्रकाशन किया बाद मे ब्रिटिश सरकार नेजब्त कर लिया । बिस्मिल को दल चलाने लिए धन का अभाव हर समय खटकता था । धन के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूटने का विचार बनाया । बिस्मिल ने सहारनपुर से चलकर लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी नम्बर ८ डाऊन पैसेंन्जर में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की कार्ययोजना तैयार की । इसका नेतृत्व मौके पर स्वयं मौजूद रहकर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने किया था । उनके साथ क्रान्तिकारीयों में पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त , शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, बनवारी लाल और मुकुन्दीलाल इत्यादि थे । काकोरी ट्रेन डकैती की घटना की सफलता ने जहां अंग्रजों की नींद उड़ा दी वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का इस सफलता से उत्साह बढ़ा । इसके बाद इनकी धर पकड़ की जाने लगी । विस्मिल, ठा़ रोशन सिंह , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार, राजकुमार सिन्हा आदि गिरफ्तार किए गए । सी. आई. डी की चार्जशीट के बाद स्पेशल जज लखनऊ की अदालत में काकोरी केस चला । भारी जनसमुदाय अभियोग वाले दिन आता था । विवश होकर लखनऊ के बहुत बड़े सिनेमा हाल 'रिंक थिएटर को सुनवाई के लिए चुना गया । विस्मिल अशफाक , ठा़ रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को मृयुदंड तथा शेष को कालापानी की सजा दी गई । फाँसी की तारीख १९ दिसंबर १९२७ को तय की गई । फाँसी के फन्दे की ओर चलते हुए बड़े जोर से बिस्मिल जी ने वन्दे मातरम का उदघोष किया । राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी पर झूलकर अपना तन मन भारत माता के चरणों में अर्पित कर गए । प्रातः ७ बजे उनकी लाश गोरखपुर जेल अधिकारियों ने परिवार वालो को दे दी । लगभग ११ बजे इस महान देशभक्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति से किया गया । स्वदेश प्रेम से ओत प्रोत उनकी माता ने कहा " मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु से प्रसन्न हूँ दुखी नहीं हूँ ।" उस दिन बिस्मिल की ये पंक्तियां वहाँ मौजूद हजारो युवकों-छात्रों के ह्रदय में गूंज रही थी---------- यदि देशहित मरना पड़े हजारो बार भी , तो भी मैं इस कष्ट को निजध्यान में लाऊं कभी । हे ईश ! भारतवर्ष मे शत बार मेरा जन्म हो कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो
इस महान वीर सपूत को शत्-शत् नमन




पुस्तक आभार-- युग के देवता

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सफर में ठोकर............... (सत्यम शिवम)

ठोकर ये कैसी मिली है सफर में,
डुब गया है मन अब अँजाने भँवर में।

हौसला मेरा अब ना पस्त हो जाये,
मंजिल से पहले ही ना रास्ते खो जाये।

एक मजाक बना हूँ मै नफरत के इस शहर में,
मै घोलना चाहता हूँ, प्यार दुनिया के इस जहर में।

ये जहर कही मेरी जिंदगी में ना घुल जाये,
अरमाँ मेरे ना यूँ चकनाचूर हो जाये।

सच्चाई का ना मोल है अब यहाँ,
ईमानदारी भटक रही है यहाँ वहाँ,
हैवानियत का नँगा नाच तो देखो,
इंसानियत को दफनाते है खुद इंसान यहा।

सच्चाई बस पागलपन समझी जाती है,
दुनिया में लोगों को अपनापन कहाँ भाती है।

पापिजगत में मै ना खो जाऊँ,
कही इन सा ही ना अब मै हो जाऊँ।

पागल कहलाना भी अब है भला मुझे सच्ची डगर में,
रोक ना पायेगा अब कोई मुझे इस सफर में।

छल कपट को दुनियादारी समझी जाती है,
ऐसी बुराईयाँ अब समाज में खुब तवज्जो पाती है,
उस वक्त कलियुग का खेल आँखो को दिखता है,
जब दो भाई बस धर्मों के लिए मर मिटता है।

जात पात पे यूँ लोग कटते रहते है,
 अपने या पराये सभी इस दंश को सहते है।

रास्ते में जो किसी का खुन होता दिखता है,
बेगुनाहों को भी किस बात का सजा मिलता है,
मुझे समझ में अब भी ये नहीं आता,
मुकदर्शक बने लोग क्यों कहते है?

तेरा इस लफड़े से क्या वास्ता है।

सोचो अगर कोई अपना यूँ मौत से जुझता होता,
तब भी तुम्हारा दिल क्या, पत्थर सा ही बना होता।

जोर जोर से तब तुम चिल्लाते,
मेरे भाई को छोड़ दो,
मेरी बहन को छोड़ दो।

दूसरे भी तो किसी के अपने है,
अपनी माँ बाप के तो सब सपने है।

इंसानियत को अब बचाना है जरुरी,
वरना जिंदगानी है बिल्कुल अधुरी......।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

बच्चे (कविता) सन्तोष कुमार "प्यासा"

कहते हैं रूप भगवान का होते हैं बच्चे
भला फिर क्यूँ फिर भूख से तडपते, बिलखते  है बच्चे ?
इल्म की सौगात क्यूँ न मयस्सर होती इन्हें
मुफलिसी का बोझ नाजुक कंधो पर ढोते हैं बच्चे
ललचाई हैं नजरें, ख़ुशी का "प्यासा" है मन
फुटपाथ को माँ की गोद समझ कर सोते है बच्चे
दर-दर की ठोकरें लिखती है, किस्मतें इनकी 
भूख की हद जब होती है पार, जुर्म का बीज फिर बोते हैं बच्चे
भला क्या दे पायेंगें कल, ये वतन को अपनी
कुछ पाने की उम्र में खुद  को खोते  हैं बच्चे ......

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

ऐ रात की तन्हाईयों, क्यों गुमशुम हो?........... (सत्यम शिवम)


रात की तन्हाईयों,

क्यों गुमशुम हो,
अँधेरे में ढ़ुँढ़ती परछाईया,
क्यों तुम हो?

एकाकी नभ का हर एक सितारा,
फासलों के गम को झेल लो,


फूलों पे मँडराते भ्रमरों,
कोमल तन से तुम खेल लो।

जी लो जीवन एक पल में सारा,
आँख ना तेरा कभी नम हो।

रात की तन्हाईयों,
क्यों गुमशुम हो,
अँधेरे में ढ़ुँढ़ती परछाईया,
क्यों तुम हो?

मस्ती की धुन पर थिरक बादल,
बरस कर आसमा तु रो ले,

जल जल कर दीपक का स्व तन,
खुद का अस्तित्व ही खो ले।

हँसता हुआ छोड़े तु जमाना,
मर के भी ना तुझे गम हो।

रात की तन्हाईयों,
क्यों गुमशुम हो,
अँधेरे में ढ़ुँढ़ती परछाईया,
क्यों तुम हो?

ढ़ाई अक्षर का प्यार तेरा,
निर्मल हो, कोमल हो अक्षय,

जिंदगी गवाँ के भी तु,
कुछ तो कर ले आज संचय।

सिर्फ दो बूँद आँसू बस बहाकर,
प्यार तेरा ना कभी कम हो।

रात की तन्हाईयों,
क्यों गुमशुम हो,
अँधेरे में ढ़ुँढ़ती परछाईया,
क्यों तुम हो?




रविवार, 12 दिसंबर 2010

हाइकु ----------(दिलबाग विर्क )

तोड़ लेती है
टहनियों से फूल
स्वार्थी दुनिया

व्यवस्था बुरी
जब हम पिसते
अन्यथा नहीं

चाँदी काटना
सत्ता का मकसद
मेरे देश में

नेता सेवक
चुनावों के दौरान
फिर मालिक

इच्छा सबकी
बदल दें समाज
अपने सिवा

आज भी वही
लाठी वाले की भैंस
कैसी आज़ादी ?

भाषा जोडती
लोगों को आपस में
न कि तोडती

माला के मोती
हैं राज्य भारत के
हिंदी का धागा

महत्वपूर्ण
धर्म, क्षेत्र व् जाति ;
देश क्यों नहीं

जीत न सकें
ये अलगाववादी
एक रहना

" भारत मेरा "
ये कहने का हक
छिनने न दो

पूरा भारत
सभी भारतियों का
न बाँटो इसे

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

आजान का वो स्वर सुना है (सत्यम शिवम)

मस्जिद में लगे ध्वनि विस्तारक यंत्रों से,
आजान का वो स्वर सुना है।

नमाजों में, दुआओं में,
मुसलमानों के पाक इरादों में,
दिख जाता मुझे आज भी वो खुदा है।


खुदा ना जुदा है बंदो से,
बंदगी उसकी अब भी वही है,
मजहब वही है, खुदा वही है,
इंसानियत ही बस आज सुना सुना है।


मस्जिद में लगे ध्वनि विस्तारक यंत्रों से,
आजान का वो स्वर सुना है।


भाईचारा बद्सलूकी का हमराही बना,
अलविदा कहा उस कौम को,
खुदा भी ताकता रहा बंदो को,
इशारा दिया जुबा को मौन से।

वो ईद की तैयारी,
वो प्यार से गले मिलना,
इक अलग ही खुमार होता था।

रोजा रखना, नमाज पढ़ना,
हर घर में कभी मैने सुना है।

मस्जिद में लगे ध्वनि विस्तारक यंत्रों से,
आजान का वो स्वर सुना है।

भरी दोपहरिया में, बड़ी भोर में,
गोधुली में, हर शाम को,

अल्लाह हो अकबर... का वो धुन,
बंदे कभी तो दिल से सुन।

ना कौम का चर्चा कही,
ना ही मजहब का वास्ता,
बस है खुदा उन बंदो का,
अपनाते है जो मोहब्बत का रास्ता।

मैने तो जाना, मोहब्बत बड़ा,
आज भी धर्म और मजहब से कई गुणा है।


मस्जिद में लगे ध्वनि विस्तारक यंत्रों से,
आजान का वो स्वर सुना है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

रघुनाथ सहाय व सुधीर गुप्ता को मिला द्वितीय मिथलेश-रामेश्वर स्मृति प्रतिभा सम्मान, 2010





झाँसी। विगत दिनों झाँसी में चित्रांश ज्योति पत्रिका परिवार की ओर से दो सत्रों में आयोजित समारोह में समाज की अनेक प्रतिभाओं को समारोह के मुख्य अतिथि श्री प्रदीप जैन आदित्य (केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री) एवं विशिष्ट अतिथि स्थानीय विधायक श्री कैलाश साहू ने सम्मानित किया। सम्मान समारोह में बोलते हुए श्री जैन ने जहाँ सही मार्गदर्शन एवं प्रगति के लिए साहित्य व कला की उचित भूमिका के निर्वहन को ज़रूरी बताया और कहा कि साहित्यकार व कलाकार ही समाज को नई दिशा प्रदान कर सकते हैं वहीं श्री साहू ने चित्रांश परिवार के अनेक वर्षों से समाज को एकजुट किए जाने वाले कार्यों की प्रशंसा की और स्थानीय व बाहर से आए साहित्यकारों व कलाकारों के देश व समाज के प्रति किए जा रहे कार्यों की सराहना की।
इस अवसर पर दिल्ली से प्रकाशित चित्रांश परिवार की सहयोगी पत्रिका हम सब साथ साथ साथ की ओर से साहित्य/कला के क्षेत्र की उत्कृष्ट प्रतिभाओं के लिए प्रतिवर्ष दिये जाने वाले मिथलेश-रामेश्वर स्मृति प्रतिभा सम्मान पत्रिका के कार्यकारी संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव के सौजन्य से बहुमुखी प्रतिभा के धनी कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रघुनाथ सहाय मिश्र एवं झाँसी के युवा साहित्यकार श्री सुधीर गुप्ता ‘चक्र’ को प्रदान किया गया।
समारोह के प्रारम्भ में माननीय मंत्री महोदय ने भगवान श्री चित्रगुप्त जी के चित्र पर पुष्प चढ़ाकर एवं दीप जलाकर समारोह का विधिवत उद्घाटन किया एवं तत्पश्चात बच्चों ने चित्रगुप्त वंदना प्रस्तुत की। समारोह के दूसरे सत्र में अनेक बच्चों ने गीत, नृत्य एवं चित्रकला आदि की विभिन्न प्रतियोगिताओं के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन कर पुरस्कार जीते। इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी कायस्थ समाज की वरिष्ठ प्रतिभाओं के साथ ही मेधावी छात्र-छात्राओं को भी सम्मानित किया गया।
समारोह का संचालन संयुक्त रूप से श्रीमती मधु श्रीवास्तव व मुकेश बच्चन ने किया। आभार प्रदर्शन पत्रिका की संपादक श्रीमती विजय लक्ष्मी श्रीवास्तव एवं अरुण श्रीवास्तव ने किया।

लाल बिहारी लाल (मीडिया प्रभारी)

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

क्या यही संस्कृति हमारी है??-----(कविता)----रेनु सिरोया

हाथ थाम कर चलो लाडले वरना तुम गिर जाओगे,

आँख के तारे हो दुलारे हमको दुखी कर जाओगे,

राजा बेटा पढ़ लिख कर तुम्हे बड़ा आदमी बनना है,

नाम कमाना है दुनियां में कुल को रोशन करना है,

सब कुछ गिरवी रखकर माँ बाप ने उसे पढाया,

जी सके वो शान जग में इस काबिल उसे बनाया,

बड़ा ऑफिसर बन गया बेटा माँ बाप की खुशियाँ चहकी,

सब दुःख दूर हमारे होंगे ऐसी उम्मीदे महकी,

बड़ी ख़ुशी से सुन्दर कन्या से उसका ब्याह रचाया,

ढोल नगाड़े शहनाई संग दुल्हन घर में लाया,

कुछ बरस में नन्हा पोता घर आँगन में आया,

लेकिन बेटा रहा न अपना जिस पर सब लुटाया,

एक दिन बेटा बोला माँ से माँ ये सब कुछ मेरा है,

मैने कमाया मैने बनाया ये नहीं तुम्हारा डेरा है,

माँ बोली बेटा तुम मेरे, घर मेरा है, फिर हममे कौन पराया है,

तुमसे ही है हमारी खुशियाँ मुश्किल से तुम्हे पाया है,

माँ-बापू के आंसू उसके दिल को ना पिघला पाये ,

उनकी कोमल ममता पर पत्थर भी बरसाये,

फिर बोला सामान बांधलो वृधाश्रम छोड़ आता हूँ,

हम भी सुखी रहे तुम भी सुखी रहो बस यही मै चाहता हूँ,

सुन्न हो गया अंतर्मन माँ-बाबा अब क्या बोले,

भूल हुई है क्या हमसे अपने अन्दर ये टटोले,

दोनों सोचे क्या अब कोई जग में नहीं सहारा है,

बिछड़ के संतान से हमने अपना सब कुछ हारा है ,

फिर भी नहीं शिकायत कोई आखिर अपना खून है,

वो न समझे दिल की व्यथा पर अपने आँगन का फूल है,

पोते को दुलराया और कातर नजरों से देखा,

कुछ क्षण रुक कर बोले, हमें कुछ तुमसे कहना है,

अपने मम्मी -पापा की बेटा हरदम सेवा करना,

दुःख में सुख में हर हालत में तुम हाथ थाम कर रखना,

खुश रहो मुस्काओ हरपल दुआ यही हमारी है,

शायद तुम ना समझोगे कि तुमसे दुनियां सारी है,

कैसी विडंबना है रिश्तों की ममता भी चित्कारी है,

बुजूर्गो का सम्मान नहीं सोचो क्या यही संस्कृति हमारी है??????????? 

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

"तुम्हारी बातें ही आईना थी "------------मिथिलेश दुबे


तुम्हारी बातें ही आईना थी
जिंसमे देखता था तुमको मैं
टुकड़ो-टुकड़ो में मिलती थी खुशी
दिन में कई बार।।



उन दिनो यूं ही हम तुम
खुश हुआ करते थे
न तुमने मुझे देखा था और
न ही मैने तुमको
बना ली थी एक तस्विर
तुम्हारी उन बातो से
सजा लिए थे सपनें रातों में
तुम्हारी उन बातो से
महसुस करता था तुमको हर पल
कल्पंनाये न छोड़ती थी साथ
जिसपर बैठ कर तय करता था सफर अपना।।


अच्छ लगता यूँ ही सब कुछ
सोचकर बाते तेरी मुस्कुराहट
उतर आती थी होठो पर
कितना हसीन था वो पल
वो साथ
जब बातें ही हमारी आवाज
हमारें जज्बात बयां करती थी।।


मै प्यार की गहराई तुम्हे समझाता
और प्यार की ऊंचाई
तुम चुपचाप ही सुनती रहती थी सब कुछ
यूं ही तब ये सिलसिला चलता रहता था
देर तक और फिर पूछता था
तुमसे न जाने कितने सवाल
तुम मुस्कुराकर ही टाल देती थी जवाब।।

मैं गुस्साता तो तुम समझाती
मैं रुठता तो तुम मनाती
पल आज फिर से याद आ रहा है
सोचकर बातें मैं
आज अकेले ही मुस्कुराता हूँ
तुमको याद करके।।