हिन्दी पखवाड़े को ध्यान में रखते हुए हिन्दी साहित्य मंच नें 14 सितंबर तक साहित्य से जुड़े हुए लोगों के महान व्यक्तियों के बारे में एक श्रृंखला की शुरूआत की है । जिसमें भारत और विदेश में महान लोगों के जीवन पर एक आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है । । आज की दूसरी कड़ी में हम " अयोध्या सिंह उपाध्याय " हरिऔध"" के बारे में जानकारी दे रहें ।आप सभी ने जिस तरह से हमारी प्रशंसा की उससे हमारा उत्साह वर्धन हुआ है । उम्मीद है कि आपको हमारा प्रयास पसंद आयेगा
बहु विघ्न घबराते नहीं
राह भरोसे भाग के दुःख भोग पछताते नहीं ,
काम कितना ही कठिन हो ,
किन्तु उबताते नहीं भीड़ चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वो ही मिले फूले फले"
(आंख का आंसू कविता से )
हिन्दी साहित्य में जाना माना नाम है - अयोध्या सिंह उपाध्याय " हरिऔध " । बचपन से ही हिन्दी पुस्तक में इस साहित्यकार की कई रचनाएं आज भी जेहन में ताजा हो जाती हैं । अयोध्या सिंह उपाध्याय " हरिऔध" का जन्म १५ अप्रैल १८६५ को आजमगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ । हरिऔध के पिता भोला सिंह जी ने सिक्ख धर्म अपना लिया था । वैसे उनके पूर्वज ब्राहाण थे । हरिऔध की शिक्षा दीक्षा सकुशल पूर्वक हुई । काशी के क्वीन्स कालेज में अंग्रेजी विषय में शिक्षा ग्रहण गये परन्तु बीमारी के कारण पढ़ाई छोड़नी पड़ी । इसके बाद घर पर रहते हुए हरिऔध जी ने संस्कृत, उर्दू, फारसी की शिक्षा ग्रहण की तत्पश्चात मिडिल स्कूम में अध्यापन कार्य शुरू किया । हरिऔध जी विविध विषयों पर अपनी काव्य रचनाएं लिखीं । इन्होनें ने प्रभु प्रेम को अपनी रचनाओं में समेटने की कोशिश की जैसे - राधा- कृष्ण , सीता- राम इत्यादि। हरिऔध जी ने हिन्दी का ठाठ , अधखिला फूल , हिन्दी साहित्य का विकास आदि ग्रंथों की रचना की । किंतु अयोध्या सिंह उपाध्याय जी मूलतः कवि ही थे । इनके प्रमुख काव्य ग्रंथों में प्रिय-प्रवास, वैदेही बनवास, रस-कलश , चोखे चौपदे, चुभते चौपदे , पारिजात प्रमुख रहे । हरिऔध का काव्य ग्रंथ प्रिय-प्रवास में कृष्ण और राधा के प्रेम की पराकाष्ठा का सुंदर एवं मार्मिक वर्णन है । इस काव्य ग्रंथ में मातृत्व विरह का सुंदर चित्रण इसका प्रधान पहलू है । हरिऔध की भाषा-शैली ब्रज एवं खड़ी बोली दोनों रही परन्तु ज्यादा रचनाएं खडी बोली में ही है । कभी-कभी हरिऔध की शैली संस्कृत प्रधान तो कभी रीति कालीन अलंकरण शेली या कभी हिन्दी शेली प्रधान प्रतीत होती । रस छंद , अलंकार का भी अच्छा प्रयोग हरिऔध की काव्य रचनाओं में मिलता है । श्रृंगार रस और वात्सल्य रस की प्रधानता नजर आती है । हिन्दी साहित्य में इस कवि ने महत्तवपूर्ण योगदान दिया । १६ मार्च सन १९४७ को इस महान कवि ने दुनिया से विदा ली ।