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शनिवार, 15 मई 2010

और वह मर गया ......(कविता ) .....कुमार विश्वबंधु

उसने चाहा था घर
बना मकान
खप गयी जिंदगी

वह सुखी  होना चाहता था
इसलिए मारता रहा मच्छर
मक्खी, तिलचट्टे ...
फांसता रहा चूहे

स‌फर में 
जैसे डूबा रहे कोई स‌स्ते उपन्यास में कोई
कि यूं ही बेमतलब कट गयी उम्र
अनजान किसी  रेलवे स्टेशन पर
कोई कुल्हड़ में पिये फीकी चाय 
और भूल जाए
वह भूल गया जवानी के स‌पने
आदर्श, क्रांतिकारी योजनाएँ 
उस लड़की का चेहरा

विज्ञापन  के बाजार में
वह बिकता रहा
लगातार बेचता रहा ------
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की चाँदनी

और मर गया !

3 comments:

दिलीप ने कहा…

waah badi goodh kavita hai...sirji...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

विज्ञापन के बाजार में
वह बिकता रहा
लगातार बेचता रहा ------
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की चाँदनी


बहुत गहरई लिए हुए एक संवेदनशील रचना..बधाई

vandana gupta ने कहा…

vaah bahut hi gahan..........aap ki post kal ke charcha manch par le li gayi hai.