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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

मजबूर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी

जिस किसी ने भी 'मजबूरी का नाम, महात्मा गांधी' जैसी कहावत का आविष्कार किया, उसकी तारीफ की जानी चाहिए।
महात्मा गांधी का नाम जपना और नीलाम होती उनकी नितांत निजी वस्तुओं को भारत लाना सरकार की मजबूरी है। महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने गांधी जी की वस्तुओं को भारत लाने का मुद्दा इतना उछाल दिया कि विशुद्ध मजबूरी में मनमोहन सिंह सरकार को सक्रिय होना पड़ा। लेकिन इस सक्रियता के पीछे कितनी उदासीनता थी, इसका पता सरकार और नीलामी में इन वस्तुओं को खरीदने वाले शराब- निर्माता और प्रसिद्ध उद्योगपति विजय माल्या के दावों- प्रतिदावों से साफ हो जाता है। सरकार बढ़-चढ़कर कह रही थी कि गांधी जी की ऐनक, थाली, कटोरा और चप्पलें आदि खरीदने के लिए अमेरिका में अपने दूतावास को उचित निर्देश दे दिए गए हैं। जब नीलामी में विजय माल्या ने वस्तुएं खरीद लीं, तब बढ़-चढ़कर फिर कहा गया कि माल्या ने सरकार के कहने पर ही ऐसा किया है।

इस दावे पर माल्या ने कहा कि मेरे फैसले का सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। मैं फोन के जरिए नीलामी में भाग ले रहा था। सरकार ने मुझसे न तो नीलामी से पहले और न ही बाद में कोई संपर्क किया। अलबत्ता माल्या इन चीजों को खरीदकर संतुष्ट हैं और इन्हें भारत को सौंपना चाहते हैं। उनकी एक ही इच्छा है कि इन वस्तुओं को भारत लाने पर सीमा शुल्क आदि नहीं लगे। माल्या ने टीपू सुल्तान की तलवार को भी नीलामी में खरीदा था लेकिन अभी भी वह सैन फ्रांसिस्को में ही है। मौजूदा कानूनों के अनुसार राष्ट्रीय धरोहर की वस्तुओं को भारत लाने के लिए भी आयात लाइसंस लेना पड़ता है और उस पर सीमा शुल्क आदि चुकाना पड़ता है।

सरकार चूंकि गांधी की वस्तुओं को भारत लाने के मामले में उदासीन नहीं दिखना चाहती, इसलिए यह संभव है कि आनन-फानन में आयात लाइसंस दे दिया जाए और कस्टम ड्यूटी माफ कर दी जाए, लेकिन विजय माल्या को निश्चय ही कोई जल्दी नहीं होगी। होती तो वह कहते कि मैं खुद ड्यूटी का पैसा भी भरूंगा। तो क्या उनके लिए भी मजबूरी का नाम ही महात्मा गांधी है? अभी तक कहीं कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि भारत में शराब को बढ़ावा देने में अपना विनम्र कारोबारी सहयोग देनेवाले विजय माल्या मद्य निषेध के प्रबल पैरोकार महात्मा गांधी के विचारों और जीवन मूल्यों में कोई यकीन रखते हैं। गांधी के सादा जीवन-उच्च विचार वाले जीवन मूल्यों के विपरीत विजय माल्या भोगवाद के जीवंत प्रतीक हैं। आज ऐसे चिंतकों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि दुनिया में अगर लोभ-लालच न होते तो इतनी भौतिक तरक्की न हुई होती।

विजय माल्या व्यापारी हैं और आप समझ सकते हैं कि उनकी तमाम ब्रैंडों-उत्पादों-सेवाओं को विज्ञापन की जरूरत हमेशा रहती है। गांधी की वस्तुओं में निवेश करना एक ऐसा स्थायी विज्ञापन हथिया लेना है, जो सालों काम आएगा। आपने देखा होगा कि शीतल पेय बनानेवाली कंपनियां क्रिकेट मैच स्पॉन्सर करती हैं तो सिगरेट बनानेवाली कंपनियां साहस और वीरता के लिए पुरस्कार बांटती हैं। इसलिए अगर एक शराब बनानेवाला व्यापारी गांधी जी को इस तरह भुनाता है तो कौन आपत्ति करने वाला है? आखिर वह देश के लिए तो एक नेक काम कर ही रहा है।

गांधी जी ने साध्य के लिए साधना को या कहें लक्ष्य के लिए उसके जरिए का भी निष्कलुष होना जरूरी बताया था। अपने मूल्यों से गांधी ने कभी समझौता नहीं किया। असहयोग आंदोलन उन्होंने इसलिए वापस लिया क्योंकि अंग्रेजों के दमन के विरोध में उनके समर्थक चौरी-चौरा में हिंसा पर उतर आए थे। जरा सोचिए कि गांधी अगर जीवित होते और ऐसा कोई अवसर उपस्थित होता तो क्या गांधी इस तरह वापस आने वाली अपनी निजी वस्तुएं स्वीकार करते?

गांधी जी के बारे में उनके पोते राजमोहन गांधी ने लिखा है कि शुरू में गांधी को भी खाने, पहनने, अच्छी जगह रहने और समुद्री तथा अन्य यात्राएं करने का शौक था। उनके जीवन में गीत-संगीत के लिए भी जगह रही है, लेकिन एक बार जब उन्होंने सादगी अपना ली तो उसे पूरी तरह जीवन में उतार लिया। गोलमेज सम्मेलन के लिए जब वे लंदन गए थे, तब उनसे एक अंग्रेज पत्रकार ने पूछा कि अगर कल नंगे बदन होने के कारण महारानी आपसे मिलने से मना कर दें तो क्या आप उचित कपड़े पहनेंगे। तो गांधी जी ने कहा था : नहीं, मैं ऐसे ही मिलूंगा। गांधी संग्रह के खिलाफ थे और वे हर वस्तु का न्यायपूर्ण उपयोग करने के पक्षधर थे। समृद्धि की जगह सादगी और समानता। उनका गांधीवाद एक तरह से मार्क्सवाद की तरह ही एक यूटोपिया है, जिसे कोई देश अपने जीवन में उतार नहीं सकता। यही कारण है कि गांधीवाद को उनके पट्ट शिष्य जवाहरलाल नेहरू ने अपने मिश्रित अर्थव्यवस्था और उद्योगीकरण के प्रयोगों पर आधारित नेहरूवाद से विस्थापित कर दिया।

मनमोहन सिंह ने 1990 के दशक में अपनी नई आर्थिक नीतियों से गांधीवाद के ताबूत में अंतिम कील ठोक दी और गांधी आज मुक्कमिल तौर पर पूजा की वस्तु बना दिए गए हैं। आज गांधी के विचारों की नहीं उनकी वस्तुओं की जरूरत है क्योंकि विचार नहीं वस्तुएं गांधीवाद की झलक दिखानेवाली रोशनियां मान ली गई हैं- व्यक्ति नहीं मूर्ति, उसकी वस्तुएं, उसके प्रतीक ।

आप खुद सोचकर देखिए कि देश में क्या एक भी ऐसी राजनैतिक पार्टी है, जिसका गांधीवाद में जरा भी विश्वास हो। लेकिन गांधी का नाम लिए बगैर किसी का काम नहीं चल सकता। इसलिए बीजेपी जैसी उस परिवार की पार्टी भी जो गांधी जी के हत्यारों के साथ विचार-साम्य रखती है, गांधीवादी मानवतावाद का नाम जपती हैं और उसके अध्यक्ष राजनाथ सिंह कहते हैं कि गांधी की विरासत के असली वाहक तो हम हैं। कांग्रेस का आलम तो यह है कि वहां एक प्रतीक के रूप में भी गांधी टोपी दुर्लभ प्रजाति की वस्तुओं में शामिल हो गई है। तो क्या आपको नहीं लगता कि गांधी का नाम लेना हमारी पार्टियों के लिए विशुद्ध एक मजबूरी है? हमारी पार्टियों ने गांधी के खिलाफ अपनी-अपनी तरह से वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह और डॉ. भीमराव आंबेडकर को भी खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन कोई भी गांधी से बड़ा साबित नहीं हुआ क्योंकि गांधी जहां एक ओर बिल्कुल अकेले और सबसे अलग हैं, वहीं दूसरी ओर ये सब उनमें उतने ही समाहित भी हैं। इसलिए गांधी अगर एक स्तर पर निरापद हैं तो दूसरे स्तर पर खतरनाक भी हैं।

हमने बड़ी चतुराई से निरापद गांधी को चुना है- एक आभासी गांधी को, उनकी जड़ वस्तुओं को, जो बदले जाने का आभास तो देती हैं लेकिन बदलाव नहीं लातीं। जैसे 'लगे रहो मुन्ना भाई' मार्का फिल्में जो पर्दे पर चमत्कार करती हैं और जीवन में मनोरंजन। हमारे राजनेताओं को भी गांधी नहीं उनकी थाली और कटोरा, ऐनक और घड़ी चाहिए।