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शनिवार, 15 मई 2010

और वह मर गया ......(कविता ) .....कुमार विश्वबंधु

उसने चाहा था घर
बना मकान
खप गयी जिंदगी

वह सुखी  होना चाहता था
इसलिए मारता रहा मच्छर
मक्खी, तिलचट्टे ...
फांसता रहा चूहे

स‌फर में 
जैसे डूबा रहे कोई स‌स्ते उपन्यास में कोई
कि यूं ही बेमतलब कट गयी उम्र
अनजान किसी  रेलवे स्टेशन पर
कोई कुल्हड़ में पिये फीकी चाय 
और भूल जाए
वह भूल गया जवानी के स‌पने
आदर्श, क्रांतिकारी योजनाएँ 
उस लड़की का चेहरा

विज्ञापन  के बाजार में
वह बिकता रहा
लगातार बेचता रहा ------
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की चाँदनी

और मर गया !

कविता-----कविताई का सत्य.......डा श्याम गुप्त

जिनकी कविता में नहीं,कोई कथ्य व तथ्य |
ऐसी कविता में कहाँ , श्याम ढूंढिए सत्य ||

तुकबंदी करते रहें , बिना भाव ,उद्देश्य |
देश धर्म औ सत्य का,नहीं कोई परिप्रेक्ष्य ॥

काव्य कला सौन्दर्य रस, रटते रहें ललाम।
जन मन के रस भाव का ,नहीं कोई आयाम॥

गूढ शब्द पर्याय बहु, अलन्कार भरमार ।
ज्यों गदही पर झूल हो, रत्न जटित गलहार ॥

कविता वह है जो रहे, सुन्दर सरल सुबोध ।
जन मानस को कर सके, हर्षित प्रखर प्रबोध ।

अलन्कार रस छंन्द सब, उत्तम गहने जान ।
काया सच सुन्दर नहीं, कौन करेगा मान ॥

नारि दर्शना भव्य मन, शुभ्र सुलभ परिधान ।
भाल एक बिन्दी सहज़, सब गहनों की खान ॥

स्वर्ण अलन्क्रित तन जडे, माणिकऔ पुखराज ।  
भाव कर्म से हीन हो, नारि न सुन्दर साज ।।

भाव प्रवल, भाषा सरल, विषय प्रखर श्रुति तथ्य ।
जन जन के मन बस सके , कविताई का सत्य ॥