मंदिरों की घंटियों की गूँज से ,
शंखनाद की ध्वनियों से
वीररस से भरे जोशीले गीत से
नव प्रभात की लालिमा ली हुई सुबह से ,
कल्पित भारत वर्ष की छवि
आँखों में रच बस जाती है
लेकिन
नंगे बदन घूमते बच्चों को ,
कुपोषण और संक्रमण से जूझती
गर्भवती महिला को
और
चिचिलाती धुप में मजार पर बैठा
गंदे और बदबूदार उस इन्सान को
तो बदल जाती है
आँखों में बसी तस्वीर ,
फिर सोचता हूँ
इस भीड़ तंत्र के बारे में ,
जो
व्यवस्था और व्यवस्थापक के बीच
लड़ रहा है
दो जून की रोटी को ,
तब
बदल जाती हैं परिभाशायें
जो समझाती है
आकडे की वास्तविकता को
जिसमें सच नहीं
झूठ का पुलिंदा बंधा है हमारे लिए
महसूस करता हूँ
दर्द और कलह की वेदना को,
सुख और दुःख के फासले को
जो दिखा रहा है दर्पण
तमाम झूठी छवियों का ,
जिसमे असंख्य प्राणियों के
संघर्ष को बेरहमी से कुचल दिया जाता है
क्यूँ की
दर है तानाशाहों को
की कही न हो जाये पैदा
और खतरे में न पड जाये आस्तित्व
इसलिए
इनको ऐसे ही जीने दो ...