आजादी के सालों बाद भी भारत पूर्णरूपेण विकसित नही पाया यह चिन्तनीय विषय है। किसी भी राष्ट्र की उन्नती एवं विकाषषीलता के लिए जिन उपादानों की आवष्यकता पडती है, वह सभी हमारे देष में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
तो फिर वह क्या कारण है जिससे हमारा देष अभी तक ठीक से अपने पैरों में खडा नही हो पाया ? क्या हमारे पास विवेक की कमीं है ? या फिर प्राक्रतिक संसाधनों की ? अथवा बल व पौरूष की ? गंभीरता से विचारने पर ज्ञात होता है कि हमारे पास वह सभी उपादान उपलब्ध हैं जो किसी राष्ट्र को विकसित करतीं हैं। तो फिर हम आजादी के 63 वर्षो पश्चात भी विकसति क्यूॅ नही हो पाये ? आखिर वह कौन सी कमी है, जो हमारे देष की उन्नती में बाधक है ?
अरे 63 वर्ष तो एक दीर्घ समयावधि होती है। 63 वर्षो में तो एक मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है। वह बाल्यावस्था से युवावस्था फिर ग्रहस्थ जीवन में प्रवेष करता हुआ बुडापे एवं अपने मृत्यु तक का सफर 63 वर्षो में तय कर लेता है। कुछ लोगांे की जीवन लीला तो 60 साल से पहले ही समाप्त हो जाती है। जब एक मनुष्य के जीवन का सफर 63 वर्षों खत्म हो सकता है, तो देष की उन्नती होना कोई बडी बात नही होती।
भारतेन्दू जी ने भारतीयों को जापन से सीख लेने की सलाह दी थी। यदि हम भारतेन्दू जी की सलाह पर अमल करते और जापान से सीख लेते तो शायद अभी तक हम सफलता के कई पायदान चड चुके होते। अरे आजादी के बाद हमारे पास तो प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार के संसाधन उपलब्ध थे, पर बेचारा जापान तो आजादी के बाद प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार से अपाहिज था। लेकिन फिर भी अपने मेहनती स्वभाव और वर्तमान-पर चिंतन के गुण के कारण वह चंद समय मे ही सफलता के पायदान सरलता और सुगमता से चढता चला गया। विकाष में सहायक हर साधन के उपलब्ध होने के बाद भी भारत अभी तक विकसित नही हुआ यह बात खलती है।
भारत की इस स्थिति का बारीकी से पडताल करने के बाद कुछ कारण सामने आये जो कि भारतोन्नती में बाधक हैं। हम भरतियों में सबसे बडी कमी है ‘खुद को अतीत के सुनहरे स्वप्नों में गम कर लेना’। यदि हम चाहे तो वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके खुद को विकसित कर सकतें हैं, लेकिन हमें अतीत की गाथा गाने से फुर्सत ही नही मिलती । हम बडे गर्व से कहा करतें है कि ‘भारत ने सम्पूर्ण विष्व को ज्ञान दिया है। भारत ने ‘‘शून्य’’ का ज्ञान कराकर दुनियाॅ को विज्ञान की कई महान उपलब्धियों का बोध कराया। भारत के विवेक के सन्मुख संसार नत्मस्तक हो चुका है। भारत के अध्यात्मिक ज्ञान को संसार ने महान माना है, इत्यादि कई प्रकार की बरबड्डी करते फिरतें हैं। हमें अपने वर्तमान की न कोई सुध है और न ही कोई चिन्ता। जितना समय हम अतीत की गाथा गाने मे नष्ट करते है यदि वही समय सामाजिक कार्यो में लगायें तों स्वयम् एवं देष की तरक्की एवं उन्नति में सहायक हो सकते हैं। भारत की उन्नति में बाधा उत्पन्न करने वाला दूसरा व अहम् तत्व है। दोषारोपण ! बात चाहे राजनितिक क्षेत्र की हो या सामाजिक अथवा व्योसयिक क्षेत्र की ! हर क्षेत्र में एक दूसरे के ऊपर दोष माड़कर खुद को कर्तब्य मुक्त कर लिया जाता है ! अज राजनितिक पार्टियों का कार्य विक्ष करना नहीं अपितु दोषारोपण करना है ! मुद्दा चाहे महंगाई का हो या राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रस्ताचार का, या नक्सली हमले का अथवा घ!टी की समस्याओं का ! इस तरह के सभी मुद्दों में राजनितिक पार्टियों की भूमिका छींटाकसी और दोषारोपण करने तक ही सिमित रहती है ! यही स्थिति सामाजिक व व्यावसायिक क्षेत्रों की भी है ! अतीत का गुणगान करना बुरा नहीं है ! पर अतीत के स्वप्नों में खो कर वर्तमान को भूल जाना बेवकूफी है ! अतीत के समय की राजनितिक एवं सामाजिक व्यवस्था दोषारोपण की बुराइयों से मुक्त थी ! अतीत के लोग (हमारे पूर्वज जिनकी हम गाथा गाते नहीं थकते ) दुसरे के ऊपर दोषारोपण करने को उचित नहीं समझते थे ! उनकी राय में "दूसरो की कमियां देखने से अच्छा है, अपनी कमियों को दूर किया जाये !" उनका मन्ना था की जितना समय हम दूसरों को दोष देने में गवाएंगे, उतने समय में हम प्रयत्न करके अपनी कमियों को दूर कर सकते है ! जिससे स्वयं एवं समाज की भलाई होगी ! वर्तमान की बड़ी समस्या यह है कि "हम अपने पूर्वजों के गुणों का बखान तो करते है, पर उसे अमल में नहीं लाते! यदि हम अतीत के महापुरुषों का गुणगान करने कि अपेक्षा उनके गुणों को निजी जिंदगी में अमल करें तो अपने साथ साथ समाज का भी भला कर सकते है !