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बुधवार, 12 जनवरी 2011

स्वामी विवेकानंद की कविता{”शान्ति”-} सन्तोष कुमार “प्यासा”

”शान्ति”- स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित अंग्रेजी की मूल कविता
न्यूयार्क में अंग्रेजी में लिखित , १८९९ ई .|
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देखो जो बलात्  आती है , वह शक्ति , शक्ति नहीं है !
वह प्रकाश , प्रकाश नहीं है , जो अँधेरे के भीतर है |
और न वह छाया , छाया ही है ,
जो चकाचौंध करने वाले प्रकाश के साथ है |
आनंद  वह है , जो कभी व्यक्त हुआ ही नहीं ,
और अनभोगा , गहन दुःख है अमर जीवन ,
जो जिया नहीं गया और अनंत मृत्यु ,
जिस पर किसी को शोक नहीं हुआ |
न दुःख है , न सुख ,
सत्य वह है , जो इन्हें मिलाता है |
न रात है न प्रात्  ,
सत्य वह है , जो इन्हें जोड़ता है |
वह संगीत में मधुर विराम ,
पावन छंद के मध्य यति है ,
मुखरता के मध्य मौन ,
वासनाओं के विस्फोट के बीच ह्रदय की शांति है |
सुन्दरता वह है , जो देखी न जा सके |
प्रेम वह है , जो अकेला रहे |
गीत वह है , जो जिये , बिना गाये ,
ज्ञान वह है , जो कभी जाना न जाए |
जो दो प्राणों के बीच मृत्यु है ,
और दो तूफानों के बीच एक स्तब्धता है ,
वह शून्य ,
जहाँ से सृष्टि आती है और जहाँ वह लौट जाती है |
वहीँ अश्रु बिंदु का अवसान होता है ,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को वही जीवन का चरम लक्ष्य है ,
और शांति ही एकमात्र शरण है |

 न्यूयार्क में अंग्रेजी में लिखित , १८९९ ई .|
हिंदी अनुवाद –”-विवेकानंद साहित्य संचयन”’ …तीसरा संस्करण —२४-३-१९९१ , अध्यक्ष —-स्वामी व्योम रूपानंद , रामकृष्ण  मठ , नागपुर.

युगद्रष्टा "स्वामी विवेकानंद"---------- मिथिलेश

विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवादिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारतसरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।

इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि -ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श--यहीभारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं; रैलियाँ निकालीजाती हैं; योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है पूजा-पाठ होता है व्याख्यान होते हैं विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। वास्तव में स्वामी विवेकानन्दआधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द से बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें कुछ ऐसी वस्तुदी है जो हममें अपनी उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगा देती है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर हैऔर होना ही चाहिए तथा वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित कियाहै। भारत की युवा पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठाएगी। विवेकानंदजी का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६३ को हुआ।उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो नगर में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्वकिया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानंद की वक्तृता के कारण ही पँहुचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जोआज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। रामकृष्ण जी बचपन से ही एक पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे। स्वामीजी ने कहा था की जो व्यक्तिपवित्र रुप से जीवन निर्वाह करता है उसके लिए अच्छी एकग्रता हासिल करना सम्भव हैA उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपनेपुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबलथी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।

सन्‌ १८८४ में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबीमें भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर परसुला देते 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्वधर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुँचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि सेदेखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक

अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ासमय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीनवर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्ततृत्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुये वहाँ के मीडिया नेउन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका मेंउन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनकेपास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी कीकृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानन्दअपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाहकिए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। स्वामी जी ने युवाओं से कहा तुम्‍हारे भविष्‍य को निश्चित करने का यही समय है। इस लिये मै कहता हूँ कि तभी इस भरी जवानी मे, नये जोश के जमाने मे ही काम करों। काम करने का यही समयहै इसलिये अभी अपने भाग्‍य का निर्णय कर लो और काम में जुट जाओं क्‍योकिं जो फूल बिल्‍कुल ताजा है, जो हाथों से मसला भी नही गया और जिसे सूँघा ही नहीं गया वही भगवान के चरणों मे चढ़ाया जाता है उसे ही भगवान ग्रहण करते हैं। इसलिये आओं ! एक महान ध्‍येय कों अपनाएँ और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दें कैंसर के कारण गले में से थूंक रक्त कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाहीदिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शातेहुए उनके बिस्तर के पास रक्त कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनकेदिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्यआध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा। 4 जुलाई सन्‌ 1902 कोउन्होंने देह त्याग किया।

वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। बालकों, दृढ बनेरहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है - सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न - बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्यहो सकता है? समय धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदाशुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द........