हमारा प्रयास हिंदी विकास आइये हमारे साथ हिंदी साहित्य मंच पर ..

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

महात्मा गांधी-----------------" कस्तूरबा गांधी"

महात्मा गांधी जी के जन्म दिवस को देखते हुए हिन्दी साहित्य मंच इस अवसर पर उनके जीवन से जुड़ी कुछ घटनाओं का उल्लेख श्रृखंला बद्ध रुप से कर रहा हैं। आशा है कि आप लोग पसन्द करेंगे। आज की कड़ी में हम कस्तूरबा गांधी जी के बारे में जानेंगे





महात्मा गांधी की तरह काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में 11 अप्रैल, 1869 में जन्म, इस प्रकार वे आयु में गांधी जी से 6 मास बड़ी थीं। उनके पितागोकुलदास मकनजी साधारण स्थिति के व्यापारी थे। कस्तूरबा उनकी तीसरी संतान थीं। उन दिनों कोई लड़कियों को पढ़ाता तो था नहीं, विवाह भी अल्पवय में ही कर दिया जाता था। इसलिए कस्तूरबा भी बचपन में निरक्षर थीं और सात साल की अवस्था में 6 साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई। तेरह साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया। बापू ने उन पर आरंभ से ही अंकुश रखने का प्रयास किया और चाहा कि कस्तूरबा बिना उनसे अनुमति लिए कहीं न जाए। किंतु वे उन्हें जितना दबाते उतना ही वे आजादी लेती और जहाँ चाहतीं चली जातीं।

पति-पत्नी 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे किंतु बापू के इंग्लैंड प्रवास के बाद से लगभग अगले बारह वर्ष तक दोनों प्राय: अलग-अलग से रहे। इंग्लैंड प्रवास से लौटने के बाद शीघ्र ही बापू को अफ्रीका चला जाना पड़ा। जब 1896 में वे भारत आए तब बा को अपने साथ ले गए। तब से बा बापू के पद का अनुगमन करती रहीं। उन्होंने उनकी तरह ही अपने जीवन को सादा बना लिया था। वे बापू के धार्मिक एवं देशसेवा के महाव्रतों में सदैव उनके साथ रहीं। यही उनके सारे जीवन का सार है। बापू के अनेक उपवासों में बा प्राय: उनके साथ रहीं और उनकी सार सँभाल करती रहीं। जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय बा साबरमती जेल में थीं। उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी गर्इं।

धर्म के संस्कार बा में गहरे पैठे हुए थे। वे किसी भी अवस्था में मांस और शराब लेकर मानुस देह भ्रष्ट करने को तैयार न थीं। अफ्रीका में कठिन बीमारी की अवस्था में भी उन्होंने मांस का शोरबा पीना अस्वीकार कर दिया और आजीवन इस बात पर दृढ़ रहीं।

दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिसके अनुसार ईसाई मत के अनुसार किए गए और विवाह विभाग के अधिकारी के यहाँ दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता अग्राह्य की गई थी। दूसरे शब्दों में हिंदू, मुसलमान, पारसी आदि लोगों के विवाह अवैध करार दिए गए और ऐसी विवाहित स्त्रियों की स्थिति पत्नी की न होकर रखैल सरीखी बन गई। बापू ने इस कानून को रद कराने का बहुत प्रयास किया। पर जब वे सफल न हुए तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिये स्त्रियों का भी आह्वान किया। पर इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य स्त्रियों से तो की किंतु बा से नहीं की। वे नहीं चाहते थे कि बा उनके कहने से सत्याग्रहियों में जायँ और फिर बाद में कठिनाइयों में पड़कर विषम परिस्थिति उपस्थित करें। वे चाहते थे कि वे स्वेच्छया जायँ और जायँ तो दृढ़ रहें। जब बा ने देखा कि बापू ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो बड़ी दु:खी हुई और बापू को उपालंभ दिया। फिर स्वेच्छया सत्याग्रह में सम्मिलित हुई और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गर्इं। जेल में जो भोजन मिला वह अखाद्य था अत: उन्होंने फलाहार करने का निश्चय किया। किंतु जब उनके इस अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो उन्होंने उपवास करना आरंभ कर दिया। निदान पाँचवें दिन अधिकारियों को झुकना पड़ा। किंतु जो फल दिए गए वह पूरे भोजन के लिये पर्याप्त न थे। अत: बा को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा। जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ठठरी मात्र रह गया था।

दक्षिण अफ्रीका में जेल जाने के सिवा कदाचित् वहाँ के किसी सार्वजनिक काम में भाग नहीं लिया किंतु भारत आने के बाद बापू ने जितने भी काम उठाए, उन सबमें उन्होंने एक अनुभवी सैनिक की भाँति हाथ बँटाया। चंपारन के सत्याग्रह के समय बा भी तिहरवा ग्राम में रहकर गाँवों में घूमती और दवा वितरण करती रहीं। उनके इस काम में निलहे गोरों को राजनीति की बू आई। उन्होंने बा की अनुपस्थिति में उनकी झोपड़ी जलवा दी। बा की उस झोपड़ी में बच्चे पढ़ते थे। अपनी यह चटशाला एक दिन के लिए भी बंद करना उन्हें पसंद न था अत: उन्होंने सारी रात जागकर घास का एक दूसरा झोपड़ा खड़ा किया। इसी प्रकार खेड़ा सत्याग्रह के समय बा स्त्रियों में घूम घूमकर उन्हें उत्साहित करती रही।


1922 में जब बापू गिरफ्तार किए गए और उन्हें छह साल की सजा हुई उस समय उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह उन्हें वीरांगना के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उन्होंने गांधी जी के गिरफ्तारी के विरोध में विदेशी कपड़ों के त्याग के लिए लोगों का आह्वान किया। बापू का संदेश सुनाने नौजवानों की तरह गुजरात के गाँवों में घूमती फिरीं। 1930 में दांडी कूच और धरासणा के धावे के दिनों में बापू के जेल जाने पर बा एक प्रकार से बापू के अभाव की पूर्ति करती रहीं। वे पुलिस के अत्याचारों से पीड़ित जनता की सहायता करती, धैर्य बँधाती फिरीं। 1932 और 1933 का अधिकांश समय उनका जेल में ही बीता।

1939 में राजकोट के ठाकुर साहब ने प्रजा को कतिपय अधिकार देना स्वीकार किया था किंतु बाद में मुकर गए। जनता ने इसके विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करने के लिये सत्याग्रह करने का निश्चय किया। बा ने जब यह सुना तो उन्हें लगा कि राजकोट उनका अपना घर है। वहाँ होने वाले सत्याग्रह में भाग लेना उनका कर्तव्य है। उन्होंने इसके लिये बापू की अनुमति प्राप्त की और वे राजकोट पहुँचते ही सविनय अवज्ञा के अभियोग में नजरबंद कर ली गर्इं। पहले उन्हें एक एकांत सूनसान में बसे गाँव में रखा गया जहाँ का वातावरण उनके तनिक भी अनुकूल न था। जनता ने आंदोलन किया कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, उन्हें चिकित्सा की सुविधा से दूर रखना अमानुषिक है। फलत: वे राजकोट से 10-15 मील दूर एक राजमहल में रखी गयीं। बा के जाने के कुछ समय बाद बापू ने भी सत्याग्रह में भाग लेने का निश्चय किया और वहाँ पहुँचकर उपवास आरंभ किया। जब बा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने एक समय ही भोजन करने का निश्चय किया। बापू के उपवास के समय वे सदैव ही ऐसा करती थीं।


दो तीन दिन बाद ही राजकोट सरकार ने यह भुलावा देकर कि वे बापू से मिलना चाहें तो जा सकती हैं, उन्हें बापू के पास भेज दिया। किंतु जब शाम को कोई उन्हें नजरबंदी के स्थान पर वापस ले जाने नहीं आया तब पता चला कि इस छलावे से उन्हें रिहा किया गया है। बापू को यह सह्य न था। उन्होंने बा को एक बजे रात को जेल वापस भेजा। राजकोट सरकार की हिम्मत न हुई कि वह सारी रात उन्हें सड़क पर रहने दे। वे वापस राजमहल ले जाई गयीं और उसके बाद दूसरे दिन वे बाकायदा रिहा की गयीं।

9 अगस्त, 1942 को बापू आदि के गिरफ्तार हो जाने पर बा ने, शिवाजी पार्क (बंबई) में, जहाँ स्वयं बापू भाषण देने वाले थे, सभा में भाषण करने का निश्चय किया किंतु पार्क के द्वारा पर पहुँचने पर गिरफ्तार कर ली गर्इं। दो दिन बाद वे पूना के आगा खाँ महल में भेज दी गर्इं। बापू गिरफ्तार कर पहले ही वहाँ भेजे चुके थे। उस समय वे अस्वस्थ थीं। 15 अगस्त को जब यकायक महादेव देसाई ने महाप्रयाण किया तो वे बार बार यही कहती रहीं महादेव क्यों गया; मैं क्यों नहीं? बाद में महादेव देसाई का चितास्थान उनके लिए शंकर-महादेव का मंदिर सा बन गया। वे नित्य वहाँ जाती, समाधि की प्रदक्षिणा कर उसे नमस्कार करतीं। वे उसपर दीप भी जलवातीं।


गिरफ्तारी की रात को उनका जो स्वास्थ्य बिगड़ा वह फिर संतोषजनक रूप से सुधरा नहीं और अंततोगत्वा उन्होंने 22 फरवरी, 1944 को अपना ऐहिक समाप्त किया। उनकी मृत्यु के उपरांत राष्ट्र ने महिला कल्याण के निमित्त एक करोड़ रुपया एकत्र कर इन्दौर में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की स्थापना की।

गजल ..........................कवि कुलवंत जी

देख कर लोग मुझे रश्क किया करते हैं .
क्या पता उनको छुपे गम मुझमें रहते हैं .

जी लिया है लगता जिंदगी ने हमको बहुत,
हर घड़ी को अब हम बोझ समझ सहते हैं .

जिसको भी अपना समझ दिल में बसाया हमने,
चेहरा खुद का दिखाने से भी वह डरते हैं .

कितने आंसू हैं बहाए अपनों की खातिर,
अब तो आंखों से दो आंसू भी नही बहते हैं .

घाव इतने हैं दिये उसने हमें छलनी किया,
शान से फिर भी देखो अपना हमें कहते हैं .

राम हर युग में नही पैदा हैं होते लेकिन,
हर गली कूचे में रावण तो यहां रहते हैं .

तब रिश्ते अग्नि के चारों ओर---------" निर्मला कपिला जी"



तब रिश्ते



अग्नि के चारों ओर



फेरे दे कर



तपाये जाते



प्रण ले कर



निभाये भी जाते




और कई बार



रिश्तों मे



एक पल निभाना भी



हो जाता है कितना कठिन



तभी तो आजकल




रिश्ते कागज़ पर




लिखाये जाते हैं



अदालत मे और



बनाये जाते है



वकील दुआरा



अब कितना आसान हो गया



रिश्ते को तोड्ना



कागज़ पर कुछ



शब्द जोड्ना



और हो जाना



बन्धन से आज़ाद