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रविवार, 18 अप्रैल 2010

कल ढलना है ........(कविता)....कवि दीपक शर्मा


डाल कर कुछ नीर की बूंदे अधर में

कर अकेला ही विदा अज्ञात सफ़र में

कुछ नेह मिश्रित अश्रु के कतरे बहाकर

संबंधों से अपने सब बंधन छूटाकर 

बाँध तन को कुछ हाथ लम्बी चीर में

डूबकर स्वजन क्षणिक विछोह पीर में

तन तेरा करके हवन को समर्पित

कुछ परम्परागत श्रद्धा सुमन करके अर्पित

धीरे -धीरे छवि तक तेरी भूल जायेंगे

काल का ऐसा भी एक दिवस आएगा

आत्मीय भी नाम तेरा भूल जायेंगे


साथ केवल कर्म होंगे, माया न होगी

सम्बन्धी क्या संग अपनी छाया न होगी

बस प्रतिक्रियायें जग की तेरे साथ होगी

नग्न होगी आत्मा, संग काया न होगी

फिर रिश्तों के सागर में मानव खोता क्यों है

अपनी - परायी भावना लिए रोता क्यों है

जब एक न एक दिन तुझको चलना है

जो आज उदित सूर्य है ,कल ढलना है
 

अगीत -----डा श्याम गुप्त के पांच अगीत ....

( नव अगीत ---अगीत विधा का यह एक नवीन छंद है---३ से ५ तक पंक्तियाँ , तुकांत बंधन नहीं . )

१. नज़दीकियाँ -

मोबाइल,
उनके पास भी है
हमारे पास भी है ;
हम इतने करीब हैं कि ,
अभी तक नहीं मिलपाये हैं |

२. झुनुझुना --

चुनाव हारने के बाद 

वे झुनुझुना बजा रहे हैं ;
और क्या करें 
समझ नहीं पारहे हैं |

३.दूरियां---
दूरियां ,
 दिलों को करीब लाती हैं;
इन्तजार के बाद,
मिलन केअनुभूति,
अनूठी हो जाती है ।

४.समत्व---
जो आधि व व्याधि
दोनों में ही सम रहता है;
उसे ही शास्त्र,
समाधिस्थ व समतावादी कहता है ।

५.मूर्ख--
कुत्ते की उस पूंछ के समान है,
जो नतो गुप्त अन्ग ही ढकती है
न मच्छरों के उडाने के काम आती है।