दिया तो
जला लिया है
हमने ज्ञान का
पर आँख में
मोतियाबिंद
लिए बैठे हैं .
रोशनी की कोई
महत्ता नहीं
जब मन में अन्धकार
किये बैठे हैं .
आचार है हमारे पास
पर
व्यवहार की कमी है
चाहते हैं पाना
बहुत कुछ
पर हम मुट्ठी
बंद किये बैठे हैं .
चाहते हैं
सिमट जाये
हथेलियों में
सारा जहाँ
जबकि
हम खुद ही
कर - कलम
किये बैठे हैं .
चाहते हैं पाना
नेह की
सुखद अनुभूति
लेकिन
हृदय - पटल
बंद किये बैठे हैं ..
गर चाहते हो कि
ऐसा सब हो
तो --
खोल दो
सारे किवाड़
आने दो एक
शीतल मंद बयार
मन - आँगन
बुहार दो
नयन खोल
दिए में
तेल डाल दो
मोतियाबिंद
हटा दो
हृदय के पट खोलो
प्रेम को बांटो
बाहें फैलाओ
और जहाँ को समेट लो .....
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शुक्रवार, 21 मई 2010
गर चाहते हो ...........(कविता)...........संगीता स्वरुप
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10 comments:
बहुत ही सुन्दर रचना ....बधाई ..
चाहते हैं पाना
नेह की
सुखद अनुभूति
लेकिन
हृदय - पटल
बंद किये बैठे हैं ..
bahut hi aachi lagi kavita ...aabhar
kya baat hai ..wakai humko manshikta ko badalna hoga ..prerna deti rachna
shaandaar prastuti aapki sangeeta ji ..tariph ko shabd nahi mil rahe hai .....bahut bahut badhai
हृदय के पट खोलो
प्रेम को बांटो
बाहें फैलाओ
और जहाँ को समेट लो .....
सुन्दर आह्वान और कविता
रचना अच्छी लगी!!
बहुत ही सुन्दर रचना ....बधाई ..
यह कविता बहुत बढ़िया ढंग से शुरू होती है!
--
अंत बहुत प्रभावशाली है -
--
हृदय के पट खोलो,
प्रेम को बाँटो,
बाहें फैलाओ
और
जहाँ को समेट लो .....
--
हम भी उड़ते
हँसी का टुकड़ा पाने को,
क्योंकि इंद्रधनुष के सात रंग मुस्काए!
सभी पाठक बंधुओं का आभार
bahut sundar prastuti.
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