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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सफर में ठोकर............... (सत्यम शिवम)

ठोकर ये कैसी मिली है सफर में,
डुब गया है मन अब अँजाने भँवर में।

हौसला मेरा अब ना पस्त हो जाये,
मंजिल से पहले ही ना रास्ते खो जाये।

एक मजाक बना हूँ मै नफरत के इस शहर में,
मै घोलना चाहता हूँ, प्यार दुनिया के इस जहर में।

ये जहर कही मेरी जिंदगी में ना घुल जाये,
अरमाँ मेरे ना यूँ चकनाचूर हो जाये।

सच्चाई का ना मोल है अब यहाँ,
ईमानदारी भटक रही है यहाँ वहाँ,
हैवानियत का नँगा नाच तो देखो,
इंसानियत को दफनाते है खुद इंसान यहा।

सच्चाई बस पागलपन समझी जाती है,
दुनिया में लोगों को अपनापन कहाँ भाती है।

पापिजगत में मै ना खो जाऊँ,
कही इन सा ही ना अब मै हो जाऊँ।

पागल कहलाना भी अब है भला मुझे सच्ची डगर में,
रोक ना पायेगा अब कोई मुझे इस सफर में।

छल कपट को दुनियादारी समझी जाती है,
ऐसी बुराईयाँ अब समाज में खुब तवज्जो पाती है,
उस वक्त कलियुग का खेल आँखो को दिखता है,
जब दो भाई बस धर्मों के लिए मर मिटता है।

जात पात पे यूँ लोग कटते रहते है,
 अपने या पराये सभी इस दंश को सहते है।

रास्ते में जो किसी का खुन होता दिखता है,
बेगुनाहों को भी किस बात का सजा मिलता है,
मुझे समझ में अब भी ये नहीं आता,
मुकदर्शक बने लोग क्यों कहते है?

तेरा इस लफड़े से क्या वास्ता है।

सोचो अगर कोई अपना यूँ मौत से जुझता होता,
तब भी तुम्हारा दिल क्या, पत्थर सा ही बना होता।

जोर जोर से तब तुम चिल्लाते,
मेरे भाई को छोड़ दो,
मेरी बहन को छोड़ दो।

दूसरे भी तो किसी के अपने है,
अपनी माँ बाप के तो सब सपने है।

इंसानियत को अब बचाना है जरुरी,
वरना जिंदगानी है बिल्कुल अधुरी......।