दर्द आज
बयां करना चाहता था
अपनी पीड़ा को
जो उसे असहाय कर चली थी
जब से वह
उसके भीतर पली थी
चिंता के साथ
घुल रही थी उसकी हड्डियां भीं
उसके रोम छिद्र
सिहर उठते उसकी चुभन से
आंसुओ के वेग में
निशब्द मौन खड़ा वह
होठों को भींचकर
देखता उसकी जड़ता को
हठीली मुस्कान पपड़ाये हुये होठों पर
सफेद धारियों में
रक्त की लालिमा लाकर
उसे मन ही मन कुंठित करती
आज पूरे वेग से
वह झटकना चाहता था
गुजरना चाहता था हद के परे
हताशा और निराशा के
पकड़ना चाहता था
आस की एक नन्हीं किरण
जो इस दर्द का अंत कर सकती थी