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गुरुवार, 7 अगस्त 2014

इन लहु को बहुत दुःख है--- (ओशिन कुमारी )

लाशें जो बिछी हैं इंसानों की,
दिल दहल जाय ऐसे दृश्यों की 
आखिर क्यों इंसानों में भेद है ऐसा ,
क्यों कौम -संप्रदाय की दुरी है ऐसा ,
ये नजारा तो देखो ,
देखकर जरा गौर करो,
ये लहु मिलने चले हैं  ऐसे ,
जैसे चले हैं बरसों  पुरानी
दूरियां मिटाने को  l

इन लहु  को बहुत दुःख है कि
इंसान, इंसान को न पहचानता ,
ये क्यों है ऐसी खाई ,
मनुष्य से मनुष्यता के अंत का l

इन लहु को बहुत दुःख है कि
काश हमें वह शक्ति होता,
कि अगर यह काम हमसे हो जाता,
तो मिटा देते ये फासला,
इन्सानों के दिलों दिमाग का  l

 इन लहु को बहुत दुःख है कि
इंसान, ईश्वर ने बनाया तुझे ,
सर्वश्रेष्ठ - संपन्न   बनाया तुझे,
यह कमी क्यों रह गयी तुझमें ,
बस खुद को पहचानने का
ये लहु कहती है कि
आज हमारा मिलान होगा ऐसा ,
जैसे रग - रग में  घुल जाने का ,
 इंसान के दिल तो न मिल पाये  मगर,
पर आज देना है , पैगाम ये मुहब्बत का  l 
हमें डर है कि ये  तपती धरती सोख लेगी मुझे ,
ये सूरज कि तेज तपन विलीन कर देगी मुझे ,
फिर भी बेतहाशा मिलने चले हैं हम ,
जूनून ये मुहब्बत का कभी न होगा कम,
परन्तु
यह शायद पहली बार हुआ  है ,
ये धरती, ये आसमां , ये सूरज, ये  चन्द्रमाँ,
आज इनकी भी जोर है हमें मिलाने का l