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शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

घर से बाहर {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"



ठिठक जाता है मन

मुश्किल और मजबूरीवश

निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर

ढेहरी से एक पैर बाहर निकालते ही

एक संशय, एक शंदेह

बैठ जाता है मन में

की आ पाउँगा वापस, घर या नहीं

जिस बस से आफिस जाता हूँ

कहीं उसपर बम हुआ तो.........

या रस्ते में किसी दंगे फसाद में भी.......

फिर वापस घर के अन्दर

कर लेता हूँ कदम

बेटी पूंछती है

पापा क्या हुआ ?

पत्नी कहती है आफिस नहीं जाना क्या ?

मन में शंदेह दबाए कहता हूँ

एक गिलाश पानी........

फिर नजर भर देखता हूँ

बीवी बच्चों को

जैसे कोई मर्णोंमुख

देखता है अपने परिजनों को

पानी पीकर निकलता हूँ

घर से बाहर

सोंचता हूँ

अब जीवन भी मर मर कर.......

पता नहीं कब कहाँ किसी आतंकवादी की गोली

या बम प्रतीक्षारत है ,

मेरे लिए !

फिर सोंचता हूँ मंत्रियों के विषय में तो,

एक घृणा सी होती है उनसे !

खुद की रक्षा के लिए बंदूकधारी लगाए है !

बुलेट प्रूफ कपडे और कार......

और हमारे लिए, पुलिश

जो हमेशा आती है देर से

मरने के बाद !

अब समझ में आता है की,

क्यों कोई नेता नहीं फंसता दंगो में

क्यों किसी आतंकवादी की गोली

नहीं छू पाती इन्हें !

हमारे वोट का सदुपयोग

बखूबी कर रहे है हमारे नेता !

अब तो खुद की परछाई पर भी

नहीं होता विशवास !

घर से निकलने का मन नहीं करता

लेकिन मजबूरी में निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर !



(प्रस्तुत कविता को वर्तमान स्थिति को देखता हुए, लिखा गया है ! इस कविता में एक आम आदमी के विचारों का चित्रण किया गया है ! )