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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

समाज सेवा - लघुकथा (डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर)

श्रीमान जी व्यवस्था की अव्यवस्था से लड़ते-लड़ते जब हार गये तब गहन अंधकार के बीच विकास की नई रोशनी उन्हें दिखलाई दी या कहिये कि उनके मन-मष्तिष्क में प्रस्फुटित हो गई। आनन-फानन में एक संस्था का गठन, शहर के बीचोंबीच शानदार कार्यालय, क्षेत्रीय विधायक जी द्वारा उदघाटन, दो-चार फोटो, फ्लैश, पत्रकार और फिर समाचार-पत्रों में सुर्खियाँ।
नेताजी का भाव-विभोर करता भाषण और श्रीमान जी के हृदय को छूने वाले उद्देश्य; संस्था के गठन का उद्देश्य, ग्रामीणों, असहायों के विकास को संकल्पित निश्चय। सभी कुछ लाजवाब, सभी कुछ सराहनीय।
श्रीमान जी का कार्य प्रारम्भ हो चुका था। सुबह से अपने तीन-चार चेलों के साथ पास की ग्रामीण बस्ती में जाते, लोगों को कुछ बताते, बहुत कुछ समझाते और काफी कुछ पाते। इधर-उधर के फंड, इधर-उधर की योजनाएँ, ऊपर-नीचे के लोगों का वरद्हस्त, आगे-पीछे करने में महारथ.....बस विकास-यात्रा चल निकली, चेतना की लहर दौड़ उठी।
विकास होने लगा, श्रीमान जी पैदल से गाड़ी पर आ गये, घर से कोठी हो गई, पंखों से ए0सी0 हो गये पर क्षेत्र को वे नहीं भूले, ग्रामीण, असहायों को भी पीछे नहीं छोड़ा। इन सभी का भी विकास हुआ....दिहाड़ी काम करने वाले, छोटे-छोटे खेतों में काम करने वाले अब धन्ना सेठों के यहाँ बँधुआ मजदूर थे। रात को झोपड़ी की जमीन अथवा टूटी खाट पर सोने वालीं महिला मजदूर अब सफेदपोशों के पलंग की चादर बन गईं। असहाय महिलाओं के लिए महिला आवास बनाया गया ताकि पराजित पुरुषत्व पोसने को स्थायी साधन मुहैया हो सके।
विकास यात्रा रुकी नहीं, अनवरत जारी रही और श्रीमान जी......श्रीमान जी राज्यपाल द्वारा सर्वश्रेष्ठ समाजसेवी के रूप में सम्मानित होने जा रहे हैं।