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रविवार, 8 नवंबर 2009

तुम अमृत हो -------------(किशोर कुमार खोरेन्द्र)

मेरे जीवन की चेतना का
तुम अमृत हो
डूबा रहता है कलम सा मन मेरा
तुम्हारे
ख्यालो की स्याही मेसुबह शाम


बाह्य आवरण है दिनचर्या के काम
जैसे अपने बाहुपाश मे भर
सुरक्षित रखता है
मुझे
मेरी देह का यह मकान


मेरी इस
कल्पना के वीरान संसार
मे
तुम
फूलो की पंखुरियों सी कोमल
शीतल जल के बहाव सी रेत
पर हो अंकित
एक गीत चल चल कल कल


किरणों और बादलो के पल पल
बदलते रंगों के धागों से
बनी पोशाक की हो तुम धारण


पहाड़ से उतरती हुवी
विचार मगना
तुम उदगम से चली
अकेली
चिंतन-धारा हो तनहा
या
खुबसूरत ,मनमोहक ,प्रकृति हो
सोचती रहना....


पर मुझ कवि की भावुकता का
हे शाश्वत यौवना
मत करना उपहास


समझो हम दोनों है
एक दूजे के लिए
जीवित उपहार



मै सौन्दर्य का पुजारी
और तुम
प्रकृति .....
करती हो
नित नव श्रृंगार