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सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर--------[महाकवि गोपालदास नीरज]


उपनाम-नीरज
जन्म स्थान-पुरावली, इटावा, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख-
कृतियाँ-
दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, गीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की गीतीकाएँ, नीरज की पाती, लहर पुकारे, मुक्तकी, गीत-अगीत, विभावरी, संघर्ष, अंतरध्वनी, बादलों से सलाम लेता हूँ, कुछ दोहे नीरज के
विविध-1991 में पद्म भूषण से सम्मानित
पद्मश्री गोपालदास नीरज जी का आज जन्मदिंन है, इस अवसर पर हिन्दी साहित्य मंच पर एक विशेष प्रस्तुति---

जन्म 8 फरवरी 1926, ग्राम: पुरावली इटावा, उत्तर प्रदेश , कालेज मे अध्यापन, मंच पर कविता-वाचन और चित्रपट के लिये गीत रचना में लोकप्रिय हैं । नीरज जी से हिन्दी संसार अच्छी तरह परिचित है जन समाज की दृष्टि में वह मानव प्रेम के अन्यतम गायक हैं। 'भदन्त आनन्द कौसल्यानन' के शब्दों में उनमें हिन्दी का अश्वघोष बनने की क्षमता है। दिनकर के अनुसार वे हिन्दी की वीणा हैं। अन्य भाषा-भाषियों के विचार में वे 'सन्त-कवि' हैं और कुछ आलोचक उन्हें 'निराश-मृत्युवादी' मानते हैं। वर्तमान समय में सर्वाधिक लोकप्रिय और लाड़ले कवि हैं जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा द्वारा हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया है और बच्चन जी के बाद नयी पीढी को सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज अनेक गीतकारों के कण्ठ में उन्हीं की अनुगूँज है।


प्रस्तुत है महाकवि नीरज जी की एक रचना -----


पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!
वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?
हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?
वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियाँ तितलियाँ,

मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंजिल भुला दें?
जिन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,
आँधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

जानता जब तू कि कुछ भी हो तुझे ब़ढ़ना पड़ेगा,
आँधियों से ही न खुद से भी तुझे लड़ना पड़ेगा,
सामने जब तक पड़ा कर्र्तव्य-पथ तब तक मनुज ओ!
मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा,

है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,
मुस्कुराती जाए जिससे जिन्दगी असफल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।

याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,

चिन्ह वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफान घन भी,
मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,
किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
जिन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,
पाँव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूँजती भू, दिशि, गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,
व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,
कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,
किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,
एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,
है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥


कविता प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार हेतु स्थान प्राप्त -------आओ पीछे लौट चलें... -{कविता}--रश्मि प्रभा

आओ पीछे लौट चलें......
बहुत कुछ पाने की प्रत्याशा में
हम घर से दूर हो गए !
जाने कितनी प्रतीक्षित आँखें
दीवारों से टिकी खड़ी हैं -
चलो उनकी मुरझाई आंखों की चमक लौटा दें !
सूने आँगन में धमाचौकड़ी मचा दें
- आओ पीछे लौट चलें...........
आगे बढ़ने की चाह में
हम रोबोट हो गए
दर्द समझना,स्पर्श देना भूल गए !

..............................
दर्द तुम्हे भी होता है,
दर्द हमें भी होता है,
दर्द उन्हें भी होता है
- बहुत लिया दर्द, अब पीछे लौट चलें..........
पहले की तरह,
रोटी मिल-बांटकर खाएँगे,
एक कमरे में गद्दे बिछा
इकठ्ठे सो जायेंगे ...
कुछ मोहक सपने तुम देखना,
कुछ हम देखेंगे -
आओ पीछे लौट चलें.....................