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रविवार, 6 सितंबर 2009

हिन्दी साहित्य मंच की कविता प्रतियोगिता का परिणाम घोषित - विजेताओं को बधाई

हिन्दी साहित्य मंच द्वारा आयोजित द्वितीय कविता प्रतियोगिता का परिणाम घोषित कर दिया है। हिन्दी साहित्य मंच द्वारा विजेता को एक प्रशस्ति पत्र और साहित्य से जुड़ी हुई पुस्तकें पुरस्कार स्वरूप प्रदान की जाती है । इस बार हमें अधिक संख्या में कविताएं प्राप्त हुई । जिससे हमारा प्रयास सफल हो पाया । इसी तरह की भागीदारी की उम्मीद भी करता है यह मंच । आप भी अपना सहयोग कर हिन्दी साहित्य को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे सकते हैं । हिन्दी साहित्य मंच हिन्दी दिवस के अवसर पर एक निबंध प्रतियोगिता का भी आयोजन कर रहा है । जिसका विषय है - " हिन्दी साहित्य का बचाव कैसे ? " अधिक जानकारी के लिए आप यहां देखें- www.hindisahityamanch.blogspot.com

हिन्दी साहित्य मंच की द्वितीय कविता प्रतियोगिता के विजेता ---
प्रथम पुरस्कार - नवनीत नीरव ( रचना-" मन गीला " के लिए )
द्वितीय पुरस्कार- डाo श्याम गुप्ता ( रचना -" सजनि तुम सुर में सजो तो " के लिए )
तृतीय पुरस्कार - डाo तारा सिंह ( रचना -" हे सारथी़ ! रोको अब इस रथ को " के लिए )

सांत्वना पुरस्कार -
प्रथम स्थान - अनुज कौशिक ( रचना - " हिन्दी की वेदना " के लिए )
द्वितीय स्थान- किशोर कुमार ( रचना - " प्राचीन मंदिर में " के लिए )
 
हिन्दी साहित्य मंच की ओर से सभी विजेताओं को बहुत बहुत बधाई । और जिन्होनें ने अपनी रचना इस प्रतियोगिता हेतु भेजी हम उनके आभारी हैं । अगली प्रतियोगिता में दुबारा से हमें आपकी रचनाओं का इतंजार रहेगा । किसी भी तरह की जानकारी के लिए आप हमें इस अंतरजाल पते (hindisahityamanch@gmail.com ) पर संपर्क करें ।

संचालक
हिन्दी साहित्य मंच

हिन्दी पखवाड़े में आज का व्यक्तित्व ---रांगेय राघव


हिन्दी पखवाड़े को ध्यान में रखते हुए हिन्दी साहित्य मंच नें 14 सितंबर तक साहित्य से जुड़े हुए लोगों के महान व्यक्तियों के बारे में एक श्रृंखला की शुरूआत की है । जिसमें भारत और विदेश में महान लोगों के जीवन पर एक आलेख प्रस्तुत किया जा रहा है । । आज की कड़ी में हम " रांगेय जी" के बारे में जानकारी दे रहें ।आप सभी ने जिस तरह से हमारी प्रशंसा की उससे हमारा उत्साह वर्धन हुआ है उम्मीद है कि आपको हमारा प्रयास पसंद आयेगा

रांगेय राघव एक ऐसा नाम जिसने बहुत कम समय में हिन्दी साहित्य के विकास के लिए वह कर दिखाया जिसकी तुलना शब्दो से की जाये तो वह तौहीन होगी। रांगेय राघव जी का बचपन से ही हिन्दी से लगाव रहा, इनके बारे मे कहा जाता था कि "जितने समय में कोई पुस्तक पढ़ेगा उतने में वे लिख सकते थे"। रांगेय राघव जी का जन्म १७ जनवरी, १९२३ को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रंगनाथ वीर राघवाचार्य और माता का नाम श्रीमती वन -कम्मा था। इनका परिवार मूलरूप से तिरुपति, आंध्र प्रदेश का निवासी था। जब इन्होनें लिखना शुरु किया था उस समय भारत अपने आजादि के लिए संघर्षरत था। ऐसे वातावरण में उन्होंने अनुभव किया- अपनी मातृभाषा हिंदी से ही देशवासियों के मन में देश के प्रति निष्ठा और स्वतंत्रता का संकल्प जगाया जा सकता है। रांगेय राघव ने जीवन की जटिलतर होती जा रही संरचना में खोए हुए मनुष्य की, मनुष्यत्व की पुनर्रचना का प्रयत्न किया, क्योंकि मनुष्यत्व के छीजने की व्यथा उन्हें बराबर सालती थी। उनकी रचनाएँ समाज को बदलने का दावा नहीं करतीं, लेकिन उनमें बदलाव की आकांक्षा जरूर हैं। इसलिए उनकी रचनाएँ अन्य रचनाकारों की तरह व्यंग्य या प्रहारों में खत्म नहीं होतीं, न ही दार्शनिक टिप्पणियों में समाप्त होती हैं, बल्कि वे मानवीय वस्तु के निर्माण की ओर उद्यत होती हैं और इस मानवीय वस्तु का निर्माण उनके यहाँ परिस्थिति और ऐतिहासिक चेतना के द्वंद से होता है। उन्होंने लोग-मंगल से जुड़कर युगीन सत्य को भेदकर मानवीयता को खोजने का प्रयत्न किया तथा मानवतावाद को अवरोधक बनी हर शक्ति को परास्त करने का भरसक प्रयत्न भी। कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के उत्तर रांगेय राघव ने अपनी कृतियों के माध्यम से दिए। इसे हिंदी साहित्य में उनकी मौलिक देन के रूप में माना गया। ये मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित उपन्यासकार थे। ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ के उत्तर में ‘सीधा-सादा रास्ता’, ‘आनंदमठ’ के उत्तर में उन्होंने ‘चीवर’ लिखा। प्रेमचंदोत्तर कथाकारों की कतार में अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य, सृजन विविधता और विपुलता के कारण वे हमेशा स्मरणीय रहेंगे। इनकी प्रमुख कृतियो मे घरौंदा , सीधा साधा रास्ता , मेरी भव बाधा हरो , साम्राज्य का वैभव , देवदासी ,समुद्र के फेन , अधूरी मूरत , जीवन के दाने ,रामानुज ,कला और शास्त्र , महाकाव्य विवेचन , तुलसी का कला शिल्प आदि थी। रागेय राघव ने वादों के चौखटे से बाहर रहकर सही मायने में प्रगितशील रवैया अपनाते हुए अपनी रचनाधर्मिता से समाज संपृक्ति का बोध कराया। समाज के अंतरंग भावों से अपने रिश्तों की पहचान करवाई। सन् १९४२ में वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दिखे थे, मगर उन्हें वादग्रस्तता से चिढ़ थी। उनकी चिंतन प्रक्रिया गत्यात्मक थी। उन्होंने प्रगतिशीस लेखक संघ की सदस्यता ग्रहण करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें उसकी शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा नहीं था। साहित्य में वे न किसी वाद से बँधे, न विधा से। उन्होंने अपने ऊपर मढ़े जा रहे मार्क्सवाद, प्रगतिवाद और यथार्थवाद का विरोध किया। उनका कहना सही था कि उन्होंने न तो प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का आश्रय लिया और न प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया। उन्होंने केवल इतिहास को, जीवन को, मनुष्य की पीड़ा को और मनुष्य की उस चेतना को, जो अंधकार से जूझने की शक्ति रखती है, उसे ही सत्य माना। रांगेय राघव जी सन् १९४६ में प्रकाशित ‘घरौंदा’ उपन्यास के जरिए वे प्रगतिशील कथाकार के रूप में चर्चित हुए। १९६२ में उन्हें कैंसर रोग से पीड़ित बताया गया था। उसी वर्ष १२ सितंबर को उन्होंने मुंबई (तत्कालीन बंबई) में देह त्यागी, और हिन्दी साहित्य ने अपना एक बेटा खो दिया।