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बुधवार, 3 जून 2009

श्रीमती जी

श्रीमती जी
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एक बार श्रीमती जी को
न जाने कैसे एक नेक विचार आया
कि हमारी कुछ रचनाओं को
टुकडे-टुकडे कर हमारे ही सामने
चूल्हे में जा जलाया .
हम सकपकाऐ
और धीरे से बडबडाऐ
भाग्यवान.......!
यह क्या कर डाला
मेरे जिगर के टुकडे-टुकडे कर
मेरे ही सामने जला डाला
तुम्हें मालूम है
कवि दिन रात रोता है
तब जाकर कविता का जन्म होता है
वह तपाक से बोली-
भाड़ में जाऐ तुम्हारी यह कविता
इस रद्दी को नहीं जलाती
तो खाना कैसे बनाती.....?
और आप भी आज देख लिया
तो चिल्ला रहे हैं
आपको मालूम है-
घर में जब-जब
ईंधन का अभाव आया
मैनें
इन्हीं रचनाओं से काम चलाया.
उनकी समझदारी का राज
हम आज समझ पाऐ
फिर भी होट फडफडाऐ
प्रिय.....
क्या तुमने पहले भी
रचनाओं को जलाया...?
वह तपाक से बोली
नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती
क्या मै स्वंय जल जाती....?
मगर स्वंय भी कैसे जलती
एक महीने से केरोसिन की पीपियां खली हैं
कल से आटे के कनस्तर में भी कंगाली है
घी का ड्ब्बा हो गया तली तली तक खाली
और शक्कर ,आज उसने भी हडताल कर डाली
लेकिन आपकी समझ में कहाँ आती है
कान पर जूँ तक कहाँ रैंग पाती है
कितनी बार समझाया
कि ऐसा लिखो
जो छप जाऐ बिक जाऐ
सरकारी सम्मान पाऐ
मौके का फायदा क्यों नहीं उठाते
मन्त्री जी के रिश्तेदार क्यों नहीं बन जाते
साहित्य आकादमी में क्यों नहीं घुस जाते
यदि गधे को बाप बनाने में
अपना उल्लू सीधा हो जाये
तो उसमें आपका क्या जाता है
बाप तो फिर भी बाप कहलाता है

लेकिन हम उन्हें कैसे समझाते
यह लेखनी स्वतंत्र है
जो उचित होगा लिखेगी
अंतिम क्षण तक संघर्ष करेगी
मगर तिजोरी की कैद
कभी स्वीकार नहीं करेगी ॥
डॉ. योगेन्द्र मणि