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गुरुवार, 6 अगस्त 2009

कविता - प्रकाश गोविंद जी की

प्रश्न बन जाए भले जीवन-मरण का
प्यार करना तो मगर अवगुण नहीं है !
कब गगन ने बैर माना उस नियति से
जो लगाती सूर्य पर स्याही निशा की,

कब कली करती निरादर उस किरण का
जो गयी तो दे गयी गहरी उदासी,
जिन्दगी में दर्द का क्रंदन बहुत है
प्यार का लेकिन अकेला क्षण बहुत है
हारकर सब बाजियां भी प्यार पाए
तो मनुज की आत्मा निर्धन नहीं है !

इन पहाड़ी चोटियों को क्या पता है
कौन चन्दन आख़िरी होगा बिछौना
बेसगुन आती मुहूरत भाल पर
जब मौत की जोगन लगा जाती दिठौना

यों ख़ुशी से मौत को किसने वरा है
प्यार बिन जीना मगर उससे बुरा है
मौत को भी सरल कर दे कुसुम सा
प्यार से ज्यादा गुनी मुमकिन नहीं है !

क्या हुआ जो फट गयी चूनर जरी की
जात तो पहचान में आई चुभन की
चांदनी इतनी न होती चंद्रमा में
जो न तकलीफें सही होती ग्रहण की

रात ने जितनी सुरा तम की चढ़ा ली
रोशनी उतनी पुतलियों ने बढा ली
हुबहू सूरत दिखाने को जगत की
दर्द से बढ़कर कहीं दर्पण नहीं है !

मोरपंखी ज्योति तिरती है नयन में
वेणु स्वर सा गूंजता है छंद कोई
मिलन-बिछुडन की हदों से पार देखो
प्राण का हो प्राण से सम्बन्ध कोई

लोक अपयश दे भले, चाहे सराहे
पीर हो हर सांस का पर्याय चाहे
लौट कर कान्हा भले आये न आये
पूजती राधा मगर निर्गुण नहीं है !