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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

जाने वाले कभी नही आते ....मोनिका गुप्ता

जी हाँ ... एक कटु सत्य है.. जाने वालो की बस याद आती है .. वो कभी नही आते .. लेकिन हम फिर भी इस बात को समझ ही नही पा रहे है .. हाल ही मे दिशा की सास बहुत बीमार चल रही थी पर वो उनसे मिलने एक बार भी नही गई ... ना ही फोन पर बात की ना हाल पूछा .. अचानक वो एक दिन मर गई .. फिर तो उसकी हालत देखने वाली थी .. इतना रोई ...इतना रोई कि बस ..अब ये सारा ड्रामा ही लग रहा था ...भले ही उनके जाने के बाद उसके दिल मे प्यार जाग गया हो ..पर अब तो कुछ नही हो सकता ..सोचने वाली बात यह है कि जब आदमी जिन्दा होता है तब हम उसकी कद्र क्यो नही करते ...उसे वो सम्मान क्यो नही देते जिसके वो हकदार है हो सकता है हमारे द्वारा अगर वो इज्जत मिली होती तो शायद वो इतनी जल्दी मरे ही ना होते .. आज हमारे ही बीच मे होते ..यही बात मीडिया पर भी लागू होती है ...जब वो आदमी जिन्दा होगा तब उसकी खैर खबर लेने कोई नही आएगा पर जहाँ वो मरा नही .. पूरा मीडिया वहाँ इक्कठा होकर दिन रात ब्रेकिंग न्यूज बनाएगा ..भले आदमियो ....अगर पहले ही उन पर ध्यान दे देते ...उनका और उनके कामो का प्रचार ही कर देते तो शायद उनके मरने की नौबत ही ना आई होती ..वो शायद मरे ही इस वजह से है कि इतना करने के बाद भी उनकी वो पहचान नही बनी जिसके वो हकदार थे ..इसलिए हे मृत्यु लोक के वासियो ...जीवन की डोर बडी कमजोर ना जाने कब छूट जाए... इस जीवन मे रहते हुए सभी का आदर करो ..सम्मान दो .. खुशी दो .. और समय दो .. ताकि बाद मे यह ना कहना पडे कि काश मै उनकी फलां इच्छा पूरी कर पाता .. काश ये .. काश वो ....जरा सोचिए ....

समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा-----


समीक्षा—— कृति --शूर्पणखा -(अगीत विधा- खंड काव्य), रचयिता—डा श्याम गुप्त-

समीक्षक---मधुकर अस्थाना, प्रकाशन—सुषमा प्रकाशन , आशियाना एवम

अखिल भारतीय अगीत परिषद, लखनऊ, मूल्य-७५/=



नारी विमर्श का खन्ड-काव्य : शूर्पणखा

समकालीन साहित्य में नारी-विमर्श बहुत महत्वपूर्ण होगया है, इस सम्बन्ध में विभिन्न विधाओं में पर्याप्त सृजन किया जा रहा है, जिसमें नारी स्वतन्त्रता, समानता के साथ ही उसका मनोविश्लेषण भी प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया जारहा है। वस्तुतः विश्व की आधी जनसंख्या होने के बावज़ूद नारी को पुरुषों की भांति स्वाधीनता प्राप्त नही है और उसका हर प्रकार से शोषण किया जारहा है।नारी समुदाय का ७५% प्रतिशतशिक्षा व अज्ञान के अंधेरे में जीने को विवश है। नारियों को उचित प्रतिनिधित्व देने के सम्बन्ध में अभी तक संसद में भी कोई कानून व नियम नहीं बन सका है। विदेशों में जहां विकास उत्कर्ष पर है ,वहां परिवार टूट रहे हैं, परिवार विघटन पर हैं, जनसंख्या मे असंतुलन बढ रहा है। इन परिस्थितियों में डा.श्याम गुप्त का यह खन्ड काव्य “शूर्पणखा” अत्यंत महत्वपूर्ण होजाता है। इस कृति के माध्यम से उन्होंने अनेक एसे प्रश्न उठाये हैं जो विघटन कारी हैं एवम उनके समाधान को खोजने का भी प्रयास किया है। डा गुप्त ने इस खन्ड काव्य मे उन्मुक्त एवं उच्छ्रन्खल नारी तथा भारतीय संस्कृति -सभ्यता के अनुरूप आदर्श नारी का भी विशद वर्णन किया है जो समाज़ को उचित दिशा देने में समर्थ है।

सहज़ सरल प्रवाहपूर्ण प्रसाद-गुण संपन्न, संप्रेषणीय भाषा, नवीनतम शिल्पविधान-- संस्कृत के वर्णवृत्त छंदों के समान छ: पंक्तियों में कथ्य की निबद्धता आदि पाठकों को प्रत्येक द्रष्टि से नूतनता का परिचय देती है। रचनाकार ने इस काव्य में अपनी मौलिकता सूझ-बूझ का उपयोग करते हुए अपनी भाषा,शिल्प, कथ्य व शैली का स्वयं विकास किया है जिसे किसी विशेष विधा से जोडना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। भारतीय संस्कृति -सभ्यता से नहाया हुआ डा गुप्त का अन्तर्मन –पुरुष व नारी दोनों की गरिमा पर ध्यान देते हुए एसा मध्य मार्ग चिन्हित करता है जो भारतीय परिस्थिति के तो सर्वथा अनुकूल है ही, यदि पूरे विश्व में इसका समुचित प्रचार-प्रसार होजाये तो उसकी तीन-चौथाई समस्याओं का समाधान होजाये ।यद्यपि डा श्याम गुप्त ने आजीविका के लिये शल्यक के पद पर कार्य किया एवम रेलवे से वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए किन्तु भारतीय संस्कृति व साहित्य में विशेष अभिरुचि के कारण निरंतर अध्ययनशील रहे । वे अनेक साहित्यिक संस्थाओं के केन्द्र बिन्दु हैं,

२.

हिन्दी साहित्य में प्रचलित लगभग समस्त विधाओं में वे सिद्धहस्त लेखन में संलग्न हैं। सेवा निवृत्ति के उपरान्त अल्पकाल में हे उन्होंने हिन्दी जगत में चर्चित स्थान बना लिया है। स्वाध्याय को समर्पित उनके द्वारा प्रस्तुत स्थापनाएं, आम आदमी का मार्ग प्रशस्त करती हैं, उनके

विचार से समाज़ में विश्रन्खलता व विघटन का मूल कारण मानव मन में नैतिक बल का अभाव है। अति भौतिकता,महत्वाकांक्षा, के सम्मुख नैतिकता, सामाज़िकता, धर्म, अध्यात्म, व्यवहारिक शुचिता, धैर्य, समानता, संतोष, अनुशासन आदि मानवीय गुणों का संतुलन समाप्त होजाता है। डा गुप्त के अनुसार शास्त्रकारों ने कहा है—

“आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः।

तज्जय: संपदां मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम ॥“

अर्थात इन्द्रिय असंयम को विपत्ति तथा उन पर विजय को संपत्ति का मार्ग समझना चाहिये; दोनों पन्थों का विचार करके ही उचित मार्ग पर चलना चाहिये। अतीत के संदर्भों में वर्तमान के प्रासन्गिक प्रश्नों से झूझते हुए इस क्रति में कवि ने नारी-मुक्ति आंदोलनों के नाम पर होरहे आन्तरिक अनाचार, भ्रष्टाचार को भी तटस्थ रूप से व्यक्त किया है। विद्रूपताओं से युक्त पाश्चात्य जीवन शैली का प्रभाव भारत पर भी पडा है एवम तलाक, वाइफ़ स्वेपिन्ग आदि की घटनाएं बढी हैं। अनुचित कार्यों के प्रतिरोधक- स्वयं की अंतरात्मा, समाज़ का भय, परिवार का ्डर, कानून का निषेध आदि निरर्थक सिद्ध होरहे हैं। एसी विषम परिस्थिति में इस रचना का महत्व और बढ जाता है।

नौ सर्गों में विभक्त यह खन्ड काव्य पारम्परिक शैली में प्रारम्भ होता है। वंदना में भी संपूर्ण विश्व की कामना निहित है। कवि का फ़लक विशाल है जिसमें संपूर्ण श्रष्टि समाहित रहती है – “ग्यान भाव से सकल विश्व को ,करें पल्लवित मातु शारदे” मानव कल्याण भाव से ही इस काव्य का सृजन किया गया है,ताकि लोग इसे पढकर उचित-अनुचित, स्वच्छंदता-अनुशासन, सुकर्म-कुकर्म, सदाचरण- कदाचरण में अन्तर और उनके दुष्परिणामों से अवगत हॊं;” पूर्वा-पर’ में वे शूर्पणखा के चरित्र का परिचय देते हैं-

“सुख विचरण, स्वच्छंद आचरण / असुर वंश की रीति नीति युत / नारी की ही

प्रतिकृति थी वह ।“

स्वतंत्रता एक सीमा तक तो उचित है, परंतु समाज़ में अनुशासन व मर्यादा भी है; केवल नारी ही नहीं , पुरुष के लिये भी आचरण की व्यवस्था है, जो नारी-पुरुष में संतुलन्रखती है। सर्ग अरण्य-पथ में कहा है—“पुरुष धर्म से जो गिर जाता / अवगुण युक्त वही पति करता / पतिव्रत धर्म हीन नारी को।“

सर्ग छः “शूर्पणखा” में मूल कथ्य में कवि शूर्पणखा द्वारा दानव-कुल पुरुष विद्युज्जिहव से प्रेम विवाह करलेने पर एवम रावण द्वारा उसके पति की हत्या करदेने पर उसके असामान्य मनोवैज्ञानिक रूप का चित्रण किया गया है—

“पर पति की हत्या होने पर/ घ्रणा-द्वेष का ज़हर पिये थी ।

“पुरुष जाति प्रति घ्रणा भाव में/ काम दग्ध रूपसी बनगयी/ एक वासना की पुतली वह”

राक्षस कुल , भोग वासना पद्दति में पली शूर्पणखा ने आचरण युक्त जीवन नहीं सीखा था अतः वह स्वच्छंद आचरण व कामाचार में लिप्त रहने लगी।

३.

रचना में साम्प्रदायिक जातीय दम्भ का भी रचना में संज्ञान लिया गया है जिसके कारण शूर्पणखा के पति की हत्या हुई एवम जो आगे उसके नैतिक पतन एवम विभिन्न घटनाओं का कारण बनी।

पंचवटी सर्ग में शूर्पणखा के नखशिख का वर्णन किया गया है जो उनकी सौन्दर्य-द्रष्टि का परिचायक है।---

“ सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर/ काम बाण दग्धा शूर्पणखा…

भरकर नयनों में आकर्षण / प्रणय निवेदन किया राम से ।“

कामोन्मादित नारी किसी भी शिक्षा, नीति आचरण, उपदेश पर अमल नहीं करती। जब शूर्पणखा सीता को ही मारने दौडती है तो राम के इन्गित पर लक्षमण द्वारा उसकी नाक काट ली जाती है---“सीता पर करने वार चली/ कामातुर राक्षसी नारी ।“

“नाक कान से हीन कर दिया/ रावण को संदेश देदिया।“

तत्पश्चात राम भयभीत वन बासियों, ऋषियों ,मुनियों को आश्वश्त करते है एवम साबधान रहने का निर्देश भी देते हैं । लक्षमण को समझाते हुए संदेश देते हैं कि अति भौतिकता, अनीति, मर्यादाहीनता, स्वच्छंद सामाज़िक व्यवस्था वर्ज़ित होनी चाहिये, इससे अहन्कार व अधिक भौतिक सुख की आकान्क्षा मानव को पतन की ओर लेजाती है।----

“ यह ही रावणत्व रावण का/ विडम्बना है शूर्पणखा की;

जिसके कारण लंकापति को/ अपनी भगिनी के पति को भी;

म्रत्यु दंड देना पडता है ? चाहे कारण राज़नीति हो।“

अन्तिम सर्ग में रावण का मानसिक चिन्तन व शूर्पणखा-मन्दोदरी संबाद है जो नई दृष्टि है। विषय एवम वर्णन की दृष्टि से समाजोपयोगी एवं प्रासंगिक यह खन्ड काव्य चिन्तन प्रधान भी है, जिसके लिये रचनाकार की विवेक सम्मत विचारशीलता की सराहना की जानी चाहिये। प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट इस खंड काव्य का निश्चित रूप से हिन्दी जगत में स्वागत होगा।



विद्यायन,एस एस १०८-१०९ मधुकर अष्ठाना

सेक्टर-ई,एल डी ए कालोनी व. साहित्यकार व नवगीतकार

कानपुर रोड, लखनऊ-२२६०१२

९४५०४४७५७९