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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

शान्ता क्लोज़

शान्ता क्लोज़ ने
दरवाजा खटटाया
छुट्टी के दिन भी सुबह-सुबह
आठ बजे ही आ जगाया
बोला
आँख फाडकर क्या देखता है
मुझे पहिचान
जो भी चाहिऐ माँग .

हम बडबडाऐ-
सुबह-सुबह क्यों दिल्लगी करते हो
किसी दूसरे दरवाजे पर जाओ
सरकारी छुट्टी है ,सोने दो
तुम भी घर जाकर सो जाओ.
वह हमारी समझदारी पर मुस्कराया
पुनः आग्रह भरी निगाहों का
तीर चलाया।

हामने भी सोच -
चलो आजमाते हैं
बाबा कितने पानी में
पता लगाते हैं.

हम बोले -
बाबा, हमारा ट्रान्सफर
केंसिल कर दो
मंत्री जी के कान में
कोई ऐसा मंत्र भर दो
जिससे उनको लगे
हम उनके वफादार हैं
सरकार के सच्चे पहरेदार हैं.

वो मुस्कराया-
यह तो राजनैतिक मामला है
हम राजनीती में टांग
नहीं फसाते
नेताओं की तरह
चुनावी आश्वासन
नही खिलाते
कुछ और माँगो.

हम बोले ठीक है-
बेटे की नौकरी लगवादो
घर में जवान बेटी है
बिना दहेज के
सस्ता सुन्दर टिकाऊ
दामाद दिलवादो
मंहगाई की धार
जेब को चीरकर
सीने के आरपार
हुई जाती है
धनिया के पेट की
बलखाति आँतों को
छिपाने की कोशिश में
तार-तार हुई कमीज भी
शरमाती है
नरेगा योजना में
उसका नाम भी है
रोजगार भी है
भुगतन भी होता है
लेकिन उसकी मेहनत का
पूरा भुगतान
उसकी जेब तक पहुँचा दो.


वृद्धाश्रमों की चोखट पर
जीवन के अंतिम पडाव की
इन्तजार में
आँसू बहाते
बूढे माँ-बाप की औलादों के
सीने में
थोडा सा प्यार जगा दो

एक दिन चाकलेट खिलाकर
बच्चों को क्या बहलाते हो
मुफ्त में सोई इच्छाओं को
क्यों जगाते हो ?

वह सकपकाया-
सब कुछ समझते हुऐ भी
कुछ नहीं समझ पाया

लेकिन हम समझ गये-
यह भी किसी संभ्रांत पति की
तरह लाचार है
या मेरे
जावान बेटे की तरह
बेरोजगार है
हो सकता है
यह भी हो
मेरे देश की तरह
महामारी का शिकार
या फिर इसकी झोली को
मिलें हों सीमित अधिकार.

वैसे भी हमारा देश
त्योहारों का देश है
पेट भरा हो या खाली
कितनी भी भारी हो
जेबों पर कंगाली
हर त्योहार देश की शान है
मेरा देश शायद
इसीलिऐ महान है ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि