उसके पापा की साइकिल मरम्मत की दुकान थी, आमदनी ज्यादा नहीं थी, सो पापा ने उसे बनारसी साङियों की एक फैक्टरी मे काम करने भेजा ,तब वह महज ८-९ साल का था।छोटा होने की वजह से हाथो की पकङ मजबूत नही थी, नतीजन साङी मे दाग छूट गया , इस बात पर गुस्साये ठेकेदार ने उस की पिटाई की। वह पापा के पास जा पहुचा ,पर पापा ने उस की बात नही सूनि और उन्होने भी उस की पिटाई की, फिर उसे जबरजस्ती उसी ठेकेदार के पास पहुचा दिया गया ,ठेकेदार ने उसे दोबारा पिटा ,वह फिर भागा पर अब वह घर नही गया वह सिधा जा पहुचा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन । यहाँ से शुरु होती है उसके आगे की कहानी जब वह स्टेशन पहुचा तब वह वहा सो गया ,जब आँखे खूंली तब उसे भुख लगी थी और सवेरा हो चूका था। ,पेट मे चुहे दैङ रहे थे खाने के लिये पास मे कुछ भी नही था और न ही कुछ खरीद पाने के लिये पैसे, वह असहाय भुख से तङप रहा था,। अचानक उसकी नजर कुछ ऐसे बच्चो पे पङी जो कूड़े के डब्बे से कुछ निकालने की कोशिश मे लगे थे ,वह वहाँ गया तो उसने देखा कि वे बच्चे कूड़े से कुछ खाने की वस्तुवे निकाल रहे थे , तब वह वँहा गया और वह भी उन बच्चो के गिरोह मे शामिल हो गया और उसने भी उन जूठे खाने से अपने पेट की आग को बुझाई ।
शनिवार, 14 नवंबर 2009
प्लेटफार्म पर भटकता बचपन-------------[मिथिलेश दुबे]
वह उन बच्चो के गिरोह मे शामिल हुआ जो पल्टेफार्म पर भीख मांगने से लेकर पानी के डब्बो को बेचना, नशे की चिजो को बेचना ,प्लेटफार्म पे पोछा लगाने आदि कई ऐसे काम करते जो की प्रशासन की नजर मे गैर कानुनी हैं। ये कहानी किसी एक विषेश की नही है हम और आप प्रतिदीन इन बच्चो को देखते है फिर कुछ सोचते और फिर भूल जाते है। आपको जान कर हैरानी होगी की इनमे से ज्यातर बच्चे ऐसे है जो नशे की गिरफ्त मे बुरी तरह से जकङे जा चुके है। नशे के व्यापारी अपने थोङे से फायदे के लिये उन बच्चो के भविष्य के साथ खेल रहे है जिन्हे भारत का भविष्य कहा जा रहा है।कानून है कि १८ साल से कम उम्र का बच्चा न तो नशे का सेवन कर सकता है और न ही उसे बेच सकता है , लेकीन हमारा प्रशासन है की जिसे इसकी खबर ही नही है । बाल अधिकारो से जुङी तमाम गैरसरकारी संस्था को चाहिये की नशे की ओर इनके बढते हुये कदम को रोका जाये और इनके कदम को भारत के उज्वल भविष्य की ओर अग्रसर किया जाये।
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18 comments:
गहरी संवेदना। बात को एकदम सीधे रखना दिल को छू गया । आभार।
वर्तनी की अशुद्धियाँ दूर करें। साहित्य मंच पर सतर्कता अधिक होनी चाहिए।
गिरिजेश राव जी, बहुत-बहुत आभार आपका हिन्दी साहित्य मंच पर अपनी राय रखने के लिए। आपकी राय सर आँखो पर, मेरे ब्लोग जगत का सबसे पहला लेख यही था, इसी लेख से मैंने ब्लगिंग शुरु किया था, । इसलिए गलतियाँ ज्यादा दिखं रही है। आगे से ध्यान दूगां।
आखिर माता-पिता इतने क्रूर क्यों हो जाते हैं कि बच्चे को घर से भागना पड़े? क्या यह हमारी कुशिक्षा का परिणाम नहीं है?
तम्बाखूयुक्त गुटखा खाना तो अब आम लत बन गई है अधिकतर बच्चों की।
मुझे भी इस बाल दिवस पर ऑटो मैकेनिक की शॉप पर बात-बात पर उस्ताद की गालियां और मार खा रहा आठ-नौ साल का बच्चा याद आ रहा है...जब भी उस्ताद ये काम करता है तो मुझे लगता है बाल श्रम विरोधी कानून के मुंह पर ही कस कर तमाचे जड़े जा रहे हैं...
जय हिंद...
यही कटु सत्य है हर जगह का दुबे साहब ! हमारा यह हरामखोर सरकारी तंत्र फैक्ट्री या फिर घरो में काम करने
वाले बच्चो को बाल और बंधवा मजदूरी की दुहाई दे अपने पीठ थपथपाने के लिए छुडा कर मीडिया के समक्ष प्रतुत तो कर देता है मगर उसके बाद उन बच्चो के रिहैब्लीटेशन के लिए क्या करता है ? कुछ नहीं ! दुसरे शब्दों में उन बच्चो के मुह से लिवाला छीनता है ! निठारी की क्या गत हुई सभी जानते है! हमारे कानून को तो साक्ष्य चाहिए !
..तो फिर आपकी पहली पोस्ट में इतनी संवेदना और सरोकार...बधाई भाई...
" karara prahar aur siddhi baat per gaherai bahra prakash dalti hiu post "
badhai
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
कटु सत्य व संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ....... बाल दिवस पर बडी-बडी बातें करने से या बाल-श्रम कानून बना लेने मात्र से इन बच्चों के अबोध बचपन को नशे के गर्त में डूबने से नहीं बचाया जा सकता ।
mithlesh ji baldivas per sundar prstuti.
कुछ इसी प्रकार नशे के गर्त में ढाबों पर काम करने वाले बच्चे भी चले जाते हैं, जहां रात-दिन ट्रक चालक शराब के नशे में आते हैं ये बच्चे उनके लिये तो शराब लाते ही हैं, साथ ही उनके द्वारा फ़ेंकी गई बोतलों में से बची हुई शराब का स्वाद लेते-लेते नशे के आदी हो जाते हैं.
पता नहीं ऐसे कितने भटकते बचपन रोज ही आँखों से गुजरते हैं...एक बार देखा, ट्रेन में एक लड़का अपनी कमीज़ से ही झाडू लगा रहा था...पसेंजर्स ने कुछ पैसे दिए और ट्रेन रुकते ही उसने वही शर्ट वापस झाड़ कर पहन ली...और उतर गया...नशा का सेवन करना भी इनकी मजबूरी बन जाती है...उस से भूख महसूस नहीं होती...दुखदायी हैं ऐसे दृश्य
कहीं न कहीं इनके माँ बाप ही इस सबके पीछे दोषी हैं.... ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं ताकि ज्यादा कमाई हो.. उनकी परवरिश और भविष्य की कोई चिंता नहीं..
यथार्थबोध के साथ कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है।
achchi prastuti ...
thanxxxxxxxx
bharat jaise desh ki sacchai yahi hai . dekh kar hum sabhi aage badh jate hai kuch karne ke bajay........
मिथिलेश इस लेख मे कथ्य तो ताकतवर है लेकिन भाषा और शिल्प पर थोड़ा काम करना होगा और वह अच्छे लेख व गद्य पढ़कर ही सम्भव होगा । शुभकामनायें ।
( नईपोस्ट -पास पड़ोस पर )
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