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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

नदी के पास नहीं हैं जल ......(कविता) .......किशोर जी

नदी के पास नहीं हैं जल 
वृक्षों की टहनियों पर नहीं हैं पर्ण 
पगडण्डीयो पर धूल में हैं कण 
तालाब में नहीं खिले हैं कमल 
कुओं के स्रोत के प्यासे हैं अधर 
मेरे साथ हैं 
बबूल की परछाईयों के घायल तन 

हवा भी बहुत हैं गरम 
अमराई में भी झर गए हैं आम के फल 

आग लगी हैं 
और 
जल रहा हैं समूचा वन 
उठा हैं धुंवा आकाश तक 
इसलिए 
दूर खड़े ..पर्वतो के सीने में भी 
हैं कम्पन 

सूनसान इस दृश्य में 
अदृश्य हैं जन 

सड़को के पास भी -
मृगतृष्णा का .. आकर्षक हैं भरम 

रेत पर -बने पद चिन्हों के 
पैरो में हैं जलन 

पर कब थका हैं खेतो का उर्वर मन
जमी नमी की बूंदों को निचोड़ कर 
एक महानदी के इंतज़ार में 
जी लेता हैं तट 
नन्ही चिडियों की चोंच में 
जब तक तिनका हैं 
और उड़ रहें उनके पंख 

तब तक मनुष्य करो ...
सुनहरे भविष्य के लिए संघर्ष 
रहो निश्चिन्त

पुस्तक समीक्षा ................... समीक्षक---डा श्याम गुप्त.



पुस्तक---मधु- माधुरी , रचनाकार ---श्रीमती मधु त्रिपाठी , प्रकाशक --अखिल भारतीय अगीत परिषद् , राजाजी पुरम , मूल्य--१२५/=
समीक्षक----डा श्याम गुप्त .


समीक्षा------—- कृति --मधु-माधुरी ( गीत संग्रह) , रचनाकार—श्रीमती मधु त्रिपाठी,  

  प्रकाशन---अ. भा. अगीत परिषद, राजाजी पुरम, लखनऊ., मूल्य-१२५/-

 
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  सृष्टि की सबसे सुन्दर है कृति है मानव , और मानव की कृतियों में सबसे सुन्दर है-कविता; तथा गीत-- काव्य की सुन्दरतम प्रस्तुति है । गीत होते ही हैं मानव मन के सुख-दुख व अन्तर्द्वन्द्वों के अनुबन्धों की गाथा । जहां भावुक नारी मन गीत सृष्टा हो तो वे मानव ह्रदय, जीवन, जगत, की सुखानुभूति, वेदना, संवेदना के द्वन्द्वों व अन्तर्संबंधों की संगीतमय यात्रा हो जाते हैं । मधु त्रिपाठी जी का प्रस्तुत गीत सन्ग्रह ’मधु-माधुरी’ मूलतः नारी के भावुक मन, अन्तश्चेतना व जीव-जगत संबन्धों के व्यष्टि से समष्टिगत सरोकारों से उत्पन्न अन्तरवेदना के संगीतमय गीतों की भाव यात्रा है। ये गीत वस्तुतः मानव ह्रदय की पूंजी होते है--स्वान्त सुखायः- कवयित्री स्वयं कहती है-“ यह मेरी सम्पति है, मन का दर्पण है।“

  मधु जी के इन गीतों में मूलत नारी जीवन के राग-विराग, कर्तव्य बन्धनों की अनिवार्यता की स्वीकृति के साथ-साथ मुक्त गगन में उडान की छटपटाहट की व्यष्टि चेतना के साथ नारी जगत की समष्टिगतता भी निहित है; और निहित है समाज व विश्वकल्याण की भावना,जब वे कहतींहैं—“वंदना में विश्व के कल्याण की हों कामनायें”।

  नारी जीवन के संत्रासों, घुटन, विडम्बनाओं, इच्छाओं के दमन को वे समष्टि द्रिष्टि देती हुई कहतीं हैं—“ अब न भटको मन पखेरू ..” तथा ----- 

  “चांदनी कितनी ही मुस्कुराए,  

  चांद के सपने उसे छलते रहेंगे ।“

सात्विक प्रेम तो बिना प्रतिदान मांगे ही होता है,वे कहती हैं—“ प्यार का प्रतिदान मुझको दो न दो तुम,चिर सुहागिन मेंतुम्हारी ही रहूंगी ।“ मन की कल्पनायें, ऊंची उडानें, एक छलावा व भटकन ही हैं----“कल्पित प्रतिबिम्बों की छाया छूना मत,

  पता नहीं कब कौन छवि धूमिल होजाये।“

“ जीवन है महाकाव्य, भोगे बनवासों का” व “इतनी पीर दिये जाओगे” में वे महादेवी वर्माजी की-“मैं नीर भरी दुख की बदली…” के सन्निकट दिखाई पडती हैं । आज के संदर्भ में नारी मर्यादा के रक्षक ही भक्षक पर उनका कथन है—“ होते छल छंद यहां मित्रॊं के वेश में” व “ सीतायें छली जातीं रामों के हाथ ..” ।

  नारी कर्तव्य व अन्तस की उडान के द्वन्द्व को वे “जग की दीवाली” में स्पष्ट करती हैं---=” तुम में सिमट गये बस चारों धाम,” व : “सैलानी मनअपना कब तक बहलाऊं” । हर नारी, पत्नी. प्रेयसि के सुखद स्वप्न, स्वीकारा हुआ जीवन सत्य, सुखद ग्रहस्थ आश्रम् को वे “सोने के रस रन्ग भरे दिन ..” में स्वीकृति प्रदान करती हैं। आयु का छीज़ना जीवन की सबसे कठिनतम स्वीकारोक्ति है----“ देहरी में दुबक बैठी, एक अंजुरी धूप । छीज़ता दिन दिन सलोना सोन पांखी रूप॥“ अनियन्त्रित अमर्यादित प्रेम की मृग तृष्णा पर भारतीय नारी के भाव में कहा है—“ मन की प्यास बुझाने वाला बिना तुम्हारे कौन।“ औरतों की बन्धित जीवन-शैली पर वे प्रहार करती हैं व जन्ग का एलान करती दिखती हैं-“औरतों की ज़िन्दगी है क्या, गुलामी किस्तवार” 

  “ इक तरफ़ हैं हम अकेले,इक तरफ़ लश्कर तमाम “

  जीवन भर यान्त्रिक पत्नीत्व, प्रेम व कर्तव्य पथ पर चलते हुएभी भावुक मन्की उन्मुक्त विहगता की इच्छा रूपी पीडा, जो नारी जीवन क एक और यथार्थ है-राधा से मीरा-महादेवी तक—“ बरसो आज नयन घन..” में परिलक्षित होती हैं ।

  विप्रलम्भ, आगमन संदेश, स्म्रितियां, जीवन की शून्यता, परकीया भाव, संयोग श्रन्गार, लोकगीत आदि सभी पक्षों पर मधुजी ने कलम चलाई है।

  सामाजिक सरोकार के बिना कोई भी कविता व साहित्य अधूरा ही है।विभिन्न सामाजिक सरोकार व उनके समाधान पर भी मधु जी ने खूब गाया है। “ जागो युवा बन्धु..” में युवा पीढी को आव्हान है, प्रक्रिति, पर्यावरण, प्रदूषण,यान्त्रिकता, सर्वधर्म सम भाव, मानव एकता, नारी जागरण, अधूरा विकास, मूल्यों का क्षरण, आदि का भी काव्यीकरण किया गया है। “ सगुन चिरैया…”समष्टि हित की वन्दना ही है ।

  रचना की भाषा के रूप मे मधुजी का अवधी व खडी बोली पर समान अधिकार परिलक्षित होता है। कही-कहीं उर्दू के श्ब्द भी प्रयोग हुए हैं। भाव मूलतः छायावादी हैं। रचनायें सुष्ठु, शुद्ध, परिष्क्रत व स्पष्ट भाव संप्रेषणीय हैं। समुचित स्थान पर अलंकार,

भावालंकार, लक्षणाएं, व्यन्जनाएं प्रयुक्त हुई हैं जो अर्थ प्रतीति व भावाव्यक्ति को बल देती हैं। भाव दोष, मात्रा दोष, अर्थ व कथ्य दोष मुझे नहीं मिले। विश्वमान्य-सत्य –तथ्य दोष भी देखने को नहीं मिले। अतः प्रस्तुति कृति एक सुन्दर, पुष्ट काव्यमय रचना है । श्रीमती मधु त्रिपाठी जी बधाई की पात्र हैं ।