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शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

अंर्तद्वंद....[कविता]......संदीप मिश्रा जी

आज कल जो भी दिखता है परेशान दिखता है,
वक्त ऐसा है बस इंसान ही नहीं दिखता है।
जहां देखो बस ऐतबार नहीं दिखता है,
इंसान कहता है बस प्यार नहीं मिलता है।

मालिक को मजदूर दिखता है, मजबूरी नहीं,
मजदूर को परिवार दिखता है पर प्यार नहीं मिलता है।
गांवों से लेकर शहरों तक इंकार ही दिखता है,
इकरार चाहिए तो वही अपना परिवार दिखता है।

जहां देखता हूं बस हर इंसान बेकरार दिखता है,
अकसर हर आदमी बस यही कहता है कि सब कुछ बिकता है।