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शनिवार, 31 जुलाई 2010

साथी रे................(कविता)...................कवि दीपक शर्मा

नहीं समय किसी का साथी रे !
मत हँस इतना औरों पर कि
कल तुझको रोना पड़ जाये
छोड़ नर्म मखमली शैय्या को
गुदड़ पर सोना पड़ जाये
हर नीति यही बतलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !
तू इतना ऊँचा उड़ भी न कि
कल धरती के भी काबिल न रहे
इतना न समझ सबसे तू अलग
कल गिनती में भी शामिल न रहे
प्रीति सीख यही सिखलाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

रोतों को तू न और रुला
जलते को तू ना और जला
बेबस तन पर मत मार कभी
कंकड़- पत्थर , व्यंग्यों का डला
अश्रु नहीं निकलते आँखों से
जीवन भर जाता आहों से
मन में छाले पड़ जाते हैं
अवसादों के विपदाओं से
कुदरत जब मार लगाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना भी ऊँचा सिर न कर
औरों का कद बौना दिखे
इतनी भी ना कर नीचे नज़र
हर चीज़ तुझे नीची दिखे,
खण्ड - खण्ड अस्तित्व हो जाता है
पर लोक, ब्रह्माण्ड हो जाता है
साँसों कि हाट उजड़ जाती
जब संयम प्रचंड हो जाता है
हर सदी यही दोहराती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

इतना मत इतरा वैभव पर
अस्थिर धन के गौरव पर
पाण्डव का हश्र तुझे याद नहीं
ठोकर खायी थी पग - पग पर
मत हीन समझ औरों को तू
मत दीन समझ औरों को तू
मत हेय दृष्टि औरों पर डाल
मत वहम ग़लत ह्रदय में पाल
पल में पासा फ़िर जाता है
जब प्रकति नयन घुमती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे !

काया पर ऐसा गर्व ना कर
यौवन का इतना दंभ न भर
ना नाज़ कर इतना सुन्दरता पर
द्रग पर, केशों पर, अधरों पर
है नहीं ये कोई पूंजी ऐसी
जो आयु के संग बढती जाये
जैसे - जैसे चढ़ती है उमर
ये वैसे - वैसे घटती जाये
अस्थि - अस्थि झुक जाती रे !
नहीं समय किसी साथी रे !

मत भाग्य किसी का छीन कभी
दाना हक़ से ज्यादा न बीन कभी
चलता रह अपनी परिधि में
पथ औरों का मत छीन कभी
वरना ऐसा भी तो हो जाता है
दाना अपना भी छिन जाता है
परिधि अपनी भी छुट जाता है
और भाग्य ही जड़ हो जाता है
जब एक दिन गगरी भर जाती रे !
नहीं समय किसी का साथी रे

प्‍यार

तुम पास होती,
ये जरूरी नही था।
तुम्‍हारे होने का एहसास ही,
जीने के लिये काफी था ।।
मै तेरे बिना भी जी सकता था,
पर तेरी बेवफाई न मुझे मार डाला।
मुझे मालून भी न चला,
तुने एक पल मे प्‍यार बदल डाला।।
न चाह थी तेरे आलिंगन की,
न चाह थी तेरे यौवन का।
दिल की आस यही रही हमें,
प्‍यार अमर रहे हमेशा।।
मैने प्‍यार में चाहा खुद्दारी,
पर मिली हमेशा गद्दारी।
प्‍यार कोई दो जिस्‍मो खेल नही है,
प्‍यार दो दिलो का मेल है।।
मेरे प्‍यार की सीमा वासना नही,
ये तो अर्न्‍तत्‍मा का मिलन है।
पल भर पहले दो अजनबियों का,
जीवन भर साथ निभाने का वचन है।।
मै तुम्‍हारा ही हूँ और रहूँगा,
मैने तुमको वचन दिया था।
तुमने भी ऐसा ही प्रण लिया था,
पर आज तुम्‍हारा प्रण दम तोड़ दिया।।
बदलते परिवेश मे
प्‍यार की परिभाषा ही बदल गई।
वर्तमान आधुनिकता में,
प्यार की जगह वासना ने ले ली है।।
तुमसे मिलने के बाद सोचा था‍
कि मेरी सच्‍चे प्‍यार की तलाश खत्‍म हुई।
पर नही अभी प्‍यार की ठोकरें बाकी है,
प्‍यार के लिये अभी और परीक्षा बाकी है।।
तुम मेरी अन्तिम आस नही हो,
अभी प्‍यार करने वाले और भी है।
जिनने अन्‍दर प्‍यार के नाम पर वासना ही प्‍यास नही
बल्कि प्‍यार की गइराईयों मे डूबकर "प्रेम रसपान" की इच्‍छा हो।- प्रमेन्द्र