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गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का स्मृति-उपवन है "कितने अपने"

मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले किन्तु वह स्वयं को स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पाता है। पता नहीं यह मोहपाश है अथवा बीते पलों को न भुला पाने की विवशता कि व्यक्ति जाने-अनजाने ही स्मृतियों के विशाल उपवन में विचरण करने लगता है। सुखद पलों की सोंधी महक एसे भटकाती है तो दुःखद पलों के काँटों की चुभन एक टीस पैदा करती है। डॉ0 वीणा श्रीवास्तव की स्मृतियों का उपवन उन्हें भी कभी महकाता है तो कभी एक टीस सी देता दिखता है। इन स्मृतियों का वे आज जिस तरह स्वयं अनुभव करतीं हैं वही अनुभव ‘कितने अपने’ के द्वारा अपने पाठकों को भी करवातीं हैं।

‘अब वो मिठास कहाँ’ से शुरू उनकी स्मृति-यात्रा पैंतीस सोपानों से गुजरते हुए अन्त में वर्तमान में खड़ा करती है। इस पूरी स्मृति-यात्रा में हर पल यही अनुभव होता रहा कि हाँ, ऐसा तो कुछ मेरे साथ भी हुआ है। ‘कितने अपने’ का आरम्भ ही समूची स्मृतियों का सूत्र-वाक्य लगता है कि ‘उस गुठली या फाँकों में जो मिठास थी वो अब किलो भर आम या पूरे खरबूजे में कहाँ? वो मिठास तो संतुष्टि की थी, आम या खरबूजे की नहीं।’
बचपन की स्मृतियों में ले जाती लेखिका तत्कालीन समाज का चित्र भी अनायास हमारे सामने खींच ले जाती हैं। ‘कमथान साहब’ ‘बटेश्वरी चाचा’ ‘बहर साहब’ के लबों से गुजरता ‘हुक्का’ बाबू जी के मुँह पर रुकता तो वह मात्र विषयों की चर्चा, किसी निर्णय, पारिवारिक मसलों का आधार नहीं बनता वरन् तत्कालीन सामुदायिकता का परिचायक भी बनता है। संयुक्त परिवारों की दृढ़ता के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी पुष्ट करता दिखता है। ऐसी सामुदायिक भावना के मध्य ही लेखिका ‘परमट वाली बहू’ ‘चुन्नीगंज वाली महाराजिन’ तथा ‘रामानुज चाचा’ के गुम हुए चेहरों को खोजती है, जो परिवार के सदस्य न होकर भी एक पारिवारिक सदस्य की भाँति आदर और सम्मान के पात्र रहे। ‘जहाँ देखो वहाँ मुखौटे ही मुखौटे हैं। चलो ढूँढती हूँ इन्हीं मुखौटों में शायद कुछ लोग ऐसे मिल जायें जिन्हें मैं कह सकूँ ये ‘कितने अपने’ हैं, की एक टीस के बीच लेखिका पुराने सम्बन्धों का आधार तलाशने का प्रयास भी करती हैं।
लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का संगीत के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ा होना उन्हें अत्यधिक सम्वेदनशील बनाता है। यही कारण है कि वर्तमान कालखण्ड से कहीं बहुत दूर किसी समय में जब वे स्वयं बचपन की शरारत, मासूमियत, निश्छलता को जी रही थीं, उन्हें उस समय की कुछ किरिचें आज भी चुभती हैं। इसी चुभन के बीच वे पारिवारिक संरचना की मिठास को खोजती हुई तुरन्त ही ‘पीपल की शादी’ ‘वह तोड़ती ईंट’ जैसी मनोवैज्ञानिक वेदना को भी प्रदर्शित करती हैं।
‘रंगपासी’ के माध्यम से आँगन में खड़ी दीवार की टीस, विभा का ‘प्रेमघट, रीता का रीता’ रह जाना, ‘मुनिया’ का पिंजड़े में बद्ध जीवन, शोभा के प्रति डॉक्टर की ‘अमानुष’ होने की वेदना को गहराई से प्रकट करना लेखिका के सम्वेदनशील होने का प्रमाण है। इसी सम्वेदनशीलता के कारण वे बचपन की ‘पतंग’ को न उड़ा पाने की विवशता को याद रख पाती हैं तो छोटी सी चवन्नी के सहारे बालसुलभ प्रतिद्वन्द्विता के रूप में अपनी सहेलियों को प्रत्युत्तर भी देती हैं तथा खुद को क्षणिक अमीर बने होने का भाव भी हृदय में सहेजे रह पाती हैं।
परिवार, रिश्ते, नाते, सम्बन्धियों, दोस्तों, सहेलियों के आत्मीय व्यवहार को अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोये लेखिका प्रकृति प्रेम को भी आत्मीय रूप में अपने में समाहित किये हैं। तभी उन्हें खजुराहो की कलाकृतियों में, मंदिरों में एक प्रकार का दर्शन दिखता है तो हिमालय की चोटियों, पर्वत श्रेणियों, झीलों, जलप्रपातों में मानवीय गुणों को देख उनका मन मंत्रमुग्ध हो उठता है। सम्वेदनशील हृदय की मलिका होने के कारण यदि वे अपनी ‘बिटिया’ के प्रति संवेदित हैं तो नन्हे से खरगोश चीकू के प्रति भी असंवेदनशील नहीं होती हैं। इसी स्वच्छ और निर्मल चित्त होने के कारण उन्हें और उनके पूरे परिवार को नारियल में माँ दुर्गा के साक्षात दर्शन प्राप्त होते हैं।
‘कितने अपने’ की लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का लगाव संगीत से बचपन से ही रहा है। ‘गुरु कृपा’ से वे आज इसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। संगीत की लय, तालबद्धता, उतार-चढ़ाव उनके स्मृति-लेखन में भी दिखाई देता है। एक-एक संस्मरण जैसे उनके मन-मष्तिष्क से कागज पर सीधे उतर आया हो। बिना किसी कृत्रिमता के, बिना किसी साहित्यिकता के शब्दों में संगीत की लहरियाँ दिखती हैं, रेखाचित्र सी चित्रात्मकता है तो शब्दों का नैसर्गिक प्रवाह। गीतों की रवानी सी इस पूरे संकलन ‘कितने अपने’ में देखने को मिलती है। बचपन की बात करते-करते अपने परिवार को याद करना, परिवार को याद करते-करते प्रकृति की गोद में चले जाना, प्रकृति की मनमोहक छवि के बीच अपने किसी प्रिय की परेशानी याद करने लगना और इन सबके बीच फिर से बचपन की किसी घटना का स्मरण करने लगना दर्शाता है कि लेखिका ने किसी प्रयास रूप में स्मृतियों का उपवन तैयार नहीं किया है वरन् स्मृतियों का जो स्वरूप मन-मष्तिष्क में उभरता रहा वही ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आया।
बिना प्रयास के स्वतः स्फूर्त रूप से उभरती स्मृतियों के मध्य कुछ कमी सी लगती है। ऐसा शायद उन्हें न लगे जो लेखिका से परिचित नहीं हैं पर जो डॉ0 वीणा जी के सम्पर्क में हैं वे आसानी से उस कमी को देख सकते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि लेखिका का वरद् हस्त मेरे ऊपर भी है। पिछले कई वर्षों का आत्मीय, पारिवारिक सम्पर्क होने से यह कमी मुझे भी दिखी। स्मृतियों के इस उपवन में उनके छोटे भाई संदीप की महक नहीं दिखती है, उनकी अन्य बहिनों की अंतरंगता परिलक्षित नहीं हुई है, उनके जीवनसाथी डॉ0 अरुण कुमार श्रीवास्तव के सहयोग और प्रेम की विश्वासधारा भी नहीं दिखी, जो महाविद्यालय एक लम्बे अरसे से लेखिका की विविध गौरवमयी उपलब्धियों का मूक दर्शक रहा है उसकी चमक इन स्मृतियों में प्रकाशित नहीं हो सकी। ये स्थितियाँ भी दर्शाती हैं कि लेखिका ने स्मृतियों को सँजोने का जो प्रयास किया है उसको शब्दरूप नहीं दिया है वरन् वे स्वतः, स्वच्छन्द रूप से निर्मित होकर ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आईं हैं।
हाँ, इसके साथ यह भी हो सकता है कि जिन स्मृतियों की सुगंध की कमी दिखती है, लेखिका उन कुछ स्मृतियों को अपनी थाती के रूप में सहेज कर उस उपवन में नितान्त निजी रूप में स्वयं ही विचरण करना चाहती हों, उनका अकल्पनीय सुख वे स्वयं ही भोगना चाहती हों।
कुछ भी हो ‘कितने अपने’ के बाद भी अभी और बहुत से कितने अपने शेष हैं जिनसे मिलने को पाठकगण आतुर हैं। आशा है कि डॉ0 वीणा श्रीवास्तव अपने स्मृति-उपवन की सैर आगे भी हम सभी को करवाती रहेंगीं।
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कृति-कितने अपने (स्मृतियाँ)
रचनाकार-डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
प्रकाशक-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ-101
मूल्य-रु0 150.00 मात्र
समीक्षक-डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर