सनातन भारतीय संस्कृति प्रतिको की संस्कृति मानी जाती है । इसके चिन्हों एवं प्रतिको के अर्थ गुहा , रहस्यपूर्ण एँव वैज्ञानिक हैं । प्रतीकों के तातपर्य बड़े ही रोचक एंव अनोखे होते हैं ।, इनका आशय न संमझ में आंने के कारण ही हमें ये बेढब और अटपटे लगते हैं । प्रतीकों के इसी क्रम में पताका , धव्ज या केतु को यश , प्रतिष्ठा तथा आस्था का प्रतीक माना जाता है । अपने यहाँ ध्वज का महत्व वैदिककाल से है । राजा के लिए ध्वज शौर्य , सर्वस्य एंव राज्योत्कर्ष का प्रतिक है ,। धर्मायतनों में लहराती-फहराती हुई पताकाएं अलग-अलग आस्था और आस्तिकता की परिचायक होती हैं । ध्वज जातीय ऊँचाईयो का प्रतिक है , जो अंनत आकाश में अपनी उत्कृष्ठता का उद्घोष करता है । ध्वज में पट का वर्ण , अकार और अंकित प्रतीक किसी महत् अभिप्राय को अंतर्हित किए होते हैं । ध्वज का उदभव् मूलतः धर्म एंव राजनीति के लिए हुआ । धार्मिक मान्यताओं में प्रार्थना-अभ्यर्थना हेतु तथा राजनीति में युद्ध-क्षेत्र में इसका प्रयोग हुआ । विश्व के सबसे प्राचिन ग्रंथ ऋगवेद में ध्वज का उल्लेख मिलता है
अस्माकमिन्द्र्हा समृतेषु धव्जेष्वस्माकं
या इषवस्ता जयन्तु ।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ
उ देवा अवता हवेषु ।।
यहाँ पर धव्ज और विजयी वाणों की सन्नद्धता के साथ जिस प्रकार देव सहयोग की प्रार्थना करते हुए युद्ध भूमि में वीरो को अपनी पताका फहराते हुए प्रस्तुत होने का चित्रण किया गया है , उससे उनके अद्भुत धौर्य, साहस का सहज परिचय मिलता है ।
अथर्वेद तो जागरण का शंख फूँकते हुए पताकाओं सहित युद्ध में कुद पड़ने और सर्प जैसे कुटिल तथा राक्षसों के समान क्रूर शत्रुओं पर धावा बोल देने का आह्वान करता है-
उत्तिषठता सं सह्वाध्वमुदाराः केतुभिः सह ।
सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत ।।
पताकाओं को व्यक्तित्व का अलंकरण और तेजस्वी का तेज माना जाता है । सभी देवशक्तियों की अपनी पताकाएँ होती है। सूर्य की पताकाएँ उसकी किरणें होती हैं , जिन के अधार पर वह विश्व को उद्भाभाषित करते हुए शोभित होता है । यजुर्वेद के एक मंत्र में यह तथ्य प्रतिपादित होता है --
उदु त्यं जातवेदसं देंव वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ।
परव्रति साहित्य से स्पष्ट होता है कि पताकाओं में बहुमूल्य कपड़ो का प्रयोग किया जाता था । कालिदास ने चीनांदुक के उल्लेख द्वारा सुँदर रेशमी कपड़ो के प्रयोग का उल्लेख किया है । महाभारत में अनेकों रंगो कओ पताकाओ का परिचय मिलता है । पताकाओं में इन रंगो का विशिष्ट महत्व होता है । ये किसी विशेष वस्तु के प्रतीक के रुप में अपनायी जाती थी । मुख्य रुप से लाल रंग की पताकाओं का प्रतिपादनन है । कुछ पताकाएँ रजतवर्णी भी होती थी । कैकेय राजकुमारों की पताकाएँ भी रक्तवर्णी थीं ।
वीरों के रथो के ध्वंजो के प्रतीकार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं । इस संदर्भ मे शल्य के ध्वज पर हल से भूमी पर खींची गई रेखा का चिन्ह था । जयद्रथ के ध्वज में चाँदी का बना हुआ वाराह विद्दमान ता । शल का ध्वज चाँदी के महान गजराज तथा विचित्र अँगो वाला वाले मयूरों से शोभित था । दारुक का छोटा भाई जिस रथ को लाया और जिस पर सात्यार्क आरुढ़ था उसके ध्वज मेम सिंह का निशान चमकता था । महाप्रतापी भीष्म के विसाल ध्वज पर पाँच तारो कर साथ ताड़ का वृक्ष अंकित था । एक स्थान पर उनका रथ उनका रथ ताल चिन्हित चंचल पताकाओं वाला बनाया गया है । बलराम की पताका में भी ताड़वृक्ष अंकित था । महाभारत के एक अन्य योद्दा धृष्टद्दुम्न के स्वर्णभूषित में जो ध्वजा फहराती थी , उमसें कचनार का वृक्ष अंकित था । पुरुषोत्तम राम के भ्राता भरत के धव्ज मे भी कचनार की आकृति का उललेख मिलता है । यही प्रतिक लक्षमण पुत्त चंद्रकेतु की पताका में भी विद्दमान था । इस तरह वीरों की पताकाओं में अलग-अलग आभाओं और चिन्हो के उल्लेख मिलते है और इन सभी के अपने-हपने विशिष्ट अभिप्राय होमग । पताकाओ के इन प्रतिकों को आधुनिक काल में भी उतनी ही प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त है , क्योंकि हर जाती , संस्था , वर्ग समाज , प्रतिष्ठान , सेनाओं की अपनी-अपनी टुकडीयों तथा देशों के हपने प्रतीकरूपी ध्वज होते हैं । इन सभी को पूर्ण सम्मान दिया जाता है ।
खेल स्काउट एंव गाइड , एन सी सी आदि प्रतिष्ठिनों में तो ध्वजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है । भारतीय स्वतंत्रा आंदोलन के क्रान्तकारियों के लिए तिरंगा प्राणो से भी बढ़कर था । समरांगण में पताकाओ का कट जाना अनिष्टक एंव झुक जाना अमंगलकारी माना जाता है । प्राणोत्सर्ग करते हुए भी योद्धा अपनी पताका की रक्षा करते हैं । आज भी इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। अपने तिरंगे पर अनगिनत देशों की गिद्धदृष्टि लगी हुई है । आज आंतक एंव कूटनीति से साये में इसकी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गयी है । ऐसे में भारतीय रणबांकुरो का आह्वान है कि वे अपने राष्ट्र के सर्वोच्च सम्मान के प्रतिक तिरंगे की रक्षा के लिए आगे आएँ ,। समाज एवं राष्ट्र के विकास में सहायक होकर ही इसके प्रति सच्चा आदर एंव सम्मान दिया जा सकता है ।
अस्माकमिन्द्र्हा समृतेषु धव्जेष्वस्माकं
या इषवस्ता जयन्तु ।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ
उ देवा अवता हवेषु ।।
यहाँ पर धव्ज और विजयी वाणों की सन्नद्धता के साथ जिस प्रकार देव सहयोग की प्रार्थना करते हुए युद्ध भूमि में वीरो को अपनी पताका फहराते हुए प्रस्तुत होने का चित्रण किया गया है , उससे उनके अद्भुत धौर्य, साहस का सहज परिचय मिलता है ।
अथर्वेद तो जागरण का शंख फूँकते हुए पताकाओं सहित युद्ध में कुद पड़ने और सर्प जैसे कुटिल तथा राक्षसों के समान क्रूर शत्रुओं पर धावा बोल देने का आह्वान करता है-
उत्तिषठता सं सह्वाध्वमुदाराः केतुभिः सह ।
सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत ।।
पताकाओं को व्यक्तित्व का अलंकरण और तेजस्वी का तेज माना जाता है । सभी देवशक्तियों की अपनी पताकाएँ होती है। सूर्य की पताकाएँ उसकी किरणें होती हैं , जिन के अधार पर वह विश्व को उद्भाभाषित करते हुए शोभित होता है । यजुर्वेद के एक मंत्र में यह तथ्य प्रतिपादित होता है --
उदु त्यं जातवेदसं देंव वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ।
परव्रति साहित्य से स्पष्ट होता है कि पताकाओं में बहुमूल्य कपड़ो का प्रयोग किया जाता था । कालिदास ने चीनांदुक के उल्लेख द्वारा सुँदर रेशमी कपड़ो के प्रयोग का उल्लेख किया है । महाभारत में अनेकों रंगो कओ पताकाओ का परिचय मिलता है । पताकाओं में इन रंगो का विशिष्ट महत्व होता है । ये किसी विशेष वस्तु के प्रतीक के रुप में अपनायी जाती थी । मुख्य रुप से लाल रंग की पताकाओं का प्रतिपादनन है । कुछ पताकाएँ रजतवर्णी भी होती थी । कैकेय राजकुमारों की पताकाएँ भी रक्तवर्णी थीं ।
वीरों के रथो के ध्वंजो के प्रतीकार्थ भिन्न-भिन्न होते हैं । इस संदर्भ मे शल्य के ध्वज पर हल से भूमी पर खींची गई रेखा का चिन्ह था । जयद्रथ के ध्वज में चाँदी का बना हुआ वाराह विद्दमान ता । शल का ध्वज चाँदी के महान गजराज तथा विचित्र अँगो वाला वाले मयूरों से शोभित था । दारुक का छोटा भाई जिस रथ को लाया और जिस पर सात्यार्क आरुढ़ था उसके ध्वज मेम सिंह का निशान चमकता था । महाप्रतापी भीष्म के विसाल ध्वज पर पाँच तारो कर साथ ताड़ का वृक्ष अंकित था । एक स्थान पर उनका रथ उनका रथ ताल चिन्हित चंचल पताकाओं वाला बनाया गया है । बलराम की पताका में भी ताड़वृक्ष अंकित था । महाभारत के एक अन्य योद्दा धृष्टद्दुम्न के स्वर्णभूषित में जो ध्वजा फहराती थी , उमसें कचनार का वृक्ष अंकित था । पुरुषोत्तम राम के भ्राता भरत के धव्ज मे भी कचनार की आकृति का उललेख मिलता है । यही प्रतिक लक्षमण पुत्त चंद्रकेतु की पताका में भी विद्दमान था । इस तरह वीरों की पताकाओं में अलग-अलग आभाओं और चिन्हो के उल्लेख मिलते है और इन सभी के अपने-हपने विशिष्ट अभिप्राय होमग । पताकाओ के इन प्रतिकों को आधुनिक काल में भी उतनी ही प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त है , क्योंकि हर जाती , संस्था , वर्ग समाज , प्रतिष्ठान , सेनाओं की अपनी-अपनी टुकडीयों तथा देशों के हपने प्रतीकरूपी ध्वज होते हैं । इन सभी को पूर्ण सम्मान दिया जाता है ।
खेल स्काउट एंव गाइड , एन सी सी आदि प्रतिष्ठिनों में तो ध्वजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है । भारतीय स्वतंत्रा आंदोलन के क्रान्तकारियों के लिए तिरंगा प्राणो से भी बढ़कर था । समरांगण में पताकाओ का कट जाना अनिष्टक एंव झुक जाना अमंगलकारी माना जाता है । प्राणोत्सर्ग करते हुए भी योद्धा अपनी पताका की रक्षा करते हैं । आज भी इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। अपने तिरंगे पर अनगिनत देशों की गिद्धदृष्टि लगी हुई है । आज आंतक एंव कूटनीति से साये में इसकी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गयी है । ऐसे में भारतीय रणबांकुरो का आह्वान है कि वे अपने राष्ट्र के सर्वोच्च सम्मान के प्रतिक तिरंगे की रक्षा के लिए आगे आएँ ,। समाज एवं राष्ट्र के विकास में सहायक होकर ही इसके प्रति सच्चा आदर एंव सम्मान दिया जा सकता है ।