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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

भारतोन्नति में बाधक हैं अतीत के सुनहरे स्वप्न!******* सन्तोष कुमार "प्यासा"



आजादी के सालों बाद भी भारत पूर्णरूपेण विकसित नही पाया यह चिन्तनीय विषय है। किसी भी राष्ट्र की उन्नती एवं विकाषषीलता के लिए जिन उपादानों की आवष्यकता पडती है, वह सभी हमारे देष में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। 
तो फिर वह क्या कारण है जिससे हमारा देष अभी तक ठीक से अपने पैरों में खडा नही हो पाया ? क्या हमारे पास विवेक की कमीं है ? या फिर प्राक्रतिक संसाधनों की ? अथवा बल व पौरूष की ? गंभीरता से विचारने पर ज्ञात होता है कि हमारे पास वह सभी उपादान उपलब्ध हैं जो किसी राष्ट्र को विकसित करतीं हैं। तो फिर हम आजादी के 63 वर्षो पश्चात भी विकसति क्यूॅ नही हो पाये ? आखिर वह कौन सी कमी है, जो हमारे देष की उन्नती में बाधक है ? 
अरे 63 वर्ष तो एक दीर्घ समयावधि होती है। 63 वर्षो में तो एक मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन लीला ही समाप्त हो जाती है। वह बाल्यावस्था से युवावस्था फिर ग्रहस्थ जीवन में प्रवेष करता हुआ बुडापे एवं अपने मृत्यु तक का सफर 63 वर्षो में तय कर लेता है। कुछ लोगांे की जीवन लीला तो 60 साल से पहले ही समाप्त हो जाती है। जब एक मनुष्य के जीवन का सफर 63 वर्षों खत्म हो सकता है, तो देष की उन्नती होना कोई बडी बात नही होती।

 भारतेन्दू जी ने भारतीयों को जापन से सीख लेने की सलाह दी थी। यदि हम भारतेन्दू जी की सलाह पर अमल करते और जापान से सीख लेते तो शायद अभी तक हम सफलता के कई पायदान चड चुके होते। अरे आजादी के बाद हमारे पास तो प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार के संसाधन उपलब्ध थे, पर बेचारा जापान तो आजादी के बाद प्राक्रतिक और भौतिक दोनो प्रकार से अपाहिज था। लेकिन फिर भी अपने मेहनती स्वभाव और वर्तमान-पर चिंतन के गुण के कारण वह चंद समय मे ही सफलता के पायदान सरलता और सुगमता से चढता चला गया। विकाष में सहायक हर साधन के उपलब्ध होने के बाद भी भारत अभी तक विकसित नही हुआ यह बात खलती है। 
भारत की इस स्थिति का बारीकी से पडताल करने के बाद कुछ कारण सामने आये जो कि भारतोन्नती में बाधक हैं। हम भरतियों में सबसे बडी कमी है ‘खुद को अतीत के सुनहरे स्वप्नों में गम कर लेना’। यदि हम चाहे तो वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके खुद को विकसित कर सकतें हैं, लेकिन हमें अतीत की गाथा गाने से फुर्सत ही नही मिलती । हम बडे गर्व से कहा करतें है कि ‘भारत ने सम्पूर्ण विष्व को ज्ञान दिया है। भारत ने ‘‘शून्य’’ का ज्ञान कराकर दुनियाॅ को विज्ञान की कई महान उपलब्धियों का बोध कराया। भारत के विवेक के सन्मुख संसार नत्मस्तक हो चुका है। भारत के अध्यात्मिक ज्ञान को संसार ने महान माना है, इत्यादि कई प्रकार की बरबड्डी करते फिरतें हैं। हमें अपने वर्तमान की न कोई सुध है और न ही कोई चिन्ता। जितना समय हम अतीत की गाथा गाने मे नष्ट करते है यदि वही समय सामाजिक कार्यो में लगायें तों स्वयम् एवं देष की तरक्की एवं उन्नति में सहायक हो सकते हैं। भारत की उन्नति में बाधा उत्पन्न करने वाला दूसरा व अहम् तत्व है। दोषारोपण ! बात चाहे राजनितिक क्षेत्र की हो या सामाजिक अथवा व्योसयिक क्षेत्र की ! हर क्षेत्र में एक दूसरे के ऊपर दोष माड़कर खुद को कर्तब्य मुक्त कर लिया जाता है ! अज राजनितिक पार्टियों का कार्य विक्ष करना नहीं अपितु दोषारोपण करना है ! मुद्दा चाहे महंगाई का हो या राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रस्ताचार का, या नक्सली हमले का अथवा घ!टी की समस्याओं का ! इस तरह के सभी मुद्दों में राजनितिक पार्टियों की भूमिका छींटाकसी और दोषारोपण करने तक ही सिमित रहती है ! यही स्थिति सामाजिक व व्यावसायिक क्षेत्रों की भी है ! अतीत का गुणगान करना बुरा नहीं है ! पर अतीत के स्वप्नों में खो कर वर्तमान को भूल जाना बेवकूफी है ! अतीत के समय की राजनितिक एवं सामाजिक व्यवस्था दोषारोपण की बुराइयों से मुक्त थी ! अतीत के लोग (हमारे पूर्वज जिनकी हम गाथा गाते नहीं थकते ) दुसरे के ऊपर दोषारोपण करने को उचित नहीं समझते थे ! उनकी राय में "दूसरो की कमियां देखने से अच्छा है, अपनी कमियों को दूर किया जाये !" उनका मन्ना था की जितना समय हम दूसरों को दोष देने में गवाएंगे, उतने समय में हम प्रयत्न करके अपनी कमियों को दूर कर सकते है ! जिससे स्वयं एवं समाज की भलाई होगी ! वर्तमान की बड़ी समस्या यह है कि "हम अपने पूर्वजों के गुणों का बखान तो करते है, पर उसे अमल में नहीं लाते! यदि हम अतीत के महापुरुषों का गुणगान करने कि अपेक्षा उनके गुणों को निजी जिंदगी में अमल करें तो अपने साथ साथ समाज का भी भला कर सकते है !  

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

वो आई !

वो आई जैसे चुपके से 
सौन्दर्य सुरभि लेकर 
आती है, 
सावन की तरूनाइ्र्र
मेरे मन में बस गई ऐसै
जैसै बस जाता है, अलि का गुंजन
कली-कली में...
पुलकित हुआ मैं
पाकर 
उसकी सोख-पर-संयत अदायें
छाने लगी प्रीत फिर
 जैसे 
कारे नभ में इन्द्रधनुष खिल जाये...
हर्षाने लगे ओस-कण तरूपात में
सजने लगे उज्ज्वल स्वप्न
चाॅदनी रात में!

बस अब पुष्प को कलि बन खिलना था
बेकल थे दोनो, दोनो को मिलना था
पर...
पर न जाने क्या हुआ, क्यूॅ मैं हुआ विक्षिप्त
क्यूॅ खोने लगा तिमर में अनुराग दीप्त
अमा  के चन्द्र की तरह जाने कहाॅ खो गई
करके मेरे जीवन को पतछड सा विरान...
अब समझा मैं, गुंजन की बेरूखी
और अलि की प्रीत में पुष्प बन खिले 
कलि की व्याकुलता...
छण भंगुर ही था, वो नभ पर 
छाया नयनाभिराम इन्द्रधनुष 
 अब अग्नि लगातें हैं ओसकण-तरूपात के
खो गये अमा में, उज्ज्वल स्वप्न चाॅदनी रात के...

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

दोहे..............कवि कुलवंत सिंह

शुद्ध धरम बस एक है, धारण कर ले कोय .
इस जीवन में फल मिले, आगे सुखिया होय .

सत्य धरम है विपस्सना, कुदरत का कानून .
जिस जिस ने धारण किया, करुणा बने जुनून .

अणु अणु ने धारण किया, विधि का परम विधान .
जो मानस धारण करे, हो जाये भगवान .

अंतस में अनुभव किया, जब जब जगा विकार .
कण - कण तन दूषित हुआ, दुख पाये विस्तार .

हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख हो, भले इसाई जैन .
जब जब जगें विकार मन, कहीं न पाये चैन .

दुनियादारी में फंसा, दुख में लोट पलोट .
शुद्ध धरम पाया नही, नित नित लगती चोट .

मैं मैं की आशक्ति है, तृष्णा का आलाप .
धर्म नही धारण किया, करता रोज विलाप .

माया पीछे भागता, माया का अभिमान .
माया को सुख मानता, धन का करे न दान .

गंगा बहती धरम की, ले ले डुबकी कोय .
सच्चा धरम विपस्सना, जीवन सुखिया होय .

तप करते जोगी फिरें, जंगल, पर्वत घाट .
काया अंदर ढ़ूंढ़ ले, तीन हाथ का हाट .

अपनी मूरत मन गढ़ी, सौ सौ कर श्रृंगार .
जब जब मूरत टूटती, आँसू रोये हजार .

पत्नी, माता, सुत, पिता, नहीं किसी से प्यार .
अपने जीवन में सभी, स्वार्थ पूर्ति सहकार .

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

राज की नीति

राज की नीति.......!

शहर की सडकों पर कुछ दिनों से रोजना युवाओं के दौडते फर्राटेदार वाहनों और उस पर जिन्दाबाद का शोर,बरबस ही शहर के जिन्दा होने का प्रमाण दे जाता है।युवाओं की भागदौड देखकर लगा कि शायद किसी आन्दोलन या फिर बाजार बन्द की तैयारी चल रही है। लेकिन हमारे अनुमान पर भैय्याजी के पिचके आम से चेहरे ने पानी फेर दिया।उनका निचुडा सा चेहरा देख,हमने पुछ ही लिया कि भैय्या जी आखिर माजरा क्या है...?युवाओं के जोश को देख कर वे काहे को दुबले हुऐ जा रहे हैं ?

भैय्या जी तपाक से बोले -तुम्हें मालूम है कि युवाओं में इतना जोश क्यों है ...?

--क्यों है भला.....?

--कॉलेज में चुनाव हैं और ये सभी छात्रसंघ के चुनाव में पसीना बहा रहे हैं.......

हमें बडा आश्चर्य हुआ कि चुनाव कॉलेज में हो रहे हैं और चेहरे की हवाइयां भैय्या जी की उड रही हैं ।हमारी मनसिक स्थिति समझकर भैय्या जी स्वयं ही शब्दों की जुगाली करने लगे-तुम्हें मालूम है शर्मा जी हमारे लाडले भी छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड रहे हैं.......

-

तो भला इसमें इतना मायूस होने की क्या बात है....तुम्हें तो खुश होना चाहिऐ....?

भैय्या जी मुँह फाडकर अचरज से हमारी तरफ देखते हुऐ बोले - इसमें खुश होने जैसी क्या बात है......?

अब हमने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुऐ उन्हें समझाया कि देखो भैय्या जी तुम्हारा लाडला सपूत आज छा्त्रसंघ अघ्यक्ष का चुनाव लड रहा है तो कल नगर पालिका का चुनाव लडेगा....फिर एम.एल..,और एम.पी. का भी चुनाव लड सकता है.....और भगवान के साथ यदि जनता और आलाकमान का भी साथ रहा तो बस फिर क्या है.......? फिर तो पाँचों घी में और..................!तुम्हें मालूम है कि ला्डला डिग्री लेकर कहीं नौकरी भी करेगा तो भला क्या मिलेगा......?जिन्दगी भर की नेताजी की गुलामी.....!बाबू नहीं तो ज्यादा से ज्यादा आई..एस अफसर बन जाऐगा बस .....चाकरी तो विधायक...सांसद और मंत्री जी की करनी पडेगी......मंत्री जी यदि कहते हैं कि मँहगाई नहीं बढ रही है तो अफसर को भी कहना पडता है कि सब ठीक है ....क्योंकि मन्त्री और नेता लोग कभी गलत नहीं होते हैं....।गलत होती है तो केवल भोली जनता .........

अब जनता हाय मँहगाई....हाय मँहगाई कर रही है लेकिन सरकार है कि जैसे साँप सूँघ गया हो.... ...।मजदूरों और सरकारी कर्मचारियों को अपना वेतन बढवाने के लिऐ न जाने कितने पापड बेलने पडते हैं ....आन्दोलन करने पडते हैं....लाठियाँ तक खानी पडती हैं ...लेकित तब भी कोई जरूरी नहीं कि सरकार के कान पर जूँ रैंग ही जाऐ.......? कई बार तो नौकरी के लाले और पड जाते हैं.......

लेकिन राजनीति में आने पर नेता जी को भला काहे की चिन्ता...........क्योंकि सैय्या भये कोतवाल तो डर काहे का.......।जब मरजी आऐ वेतन बढाओ...........जितने चाहे भत्ते बढाओ...........चन्द मिनटों में ही वेतन बढोतरी का बिल पास..... .....न हडताल की जरूरत और न ही डण्डे खाने की नौबत..........!हकीकत तो यह है कि इन नेताओं को तो शायद वेतेन भत्तों की जरूरत ही कहाँ पडती होगी......?मान भी लिया जाऐ कि मामूली से वेतन- भत्तों में काम नहीं चल रहा तो भला राजनीति में आने पर एक ही चुनाव जीतने के बाद नेता जी के पास करोडों की सम्पत्ति भला कहाँ से और कैसे आ जाती है यह पहेली आम जनता की तो समझ से सदा ही परे रही है.............। मँहगाई से भी कई गुना तेज गति से नेता जी की सम्पत्ति बढती जाती है.........!पडोसियों, मित्रों, और पार्टी के पसे से एक बार चुनाव लडकर जीतने के बाद जनता की सेवा हो या न हो स्वयं और स्वयं के परिवार कीतो जी भर के सेवा हो ही जाती है.....

एक साधारण कर्मचारी को तो अपनी छत और बच्चों की पढाई के लिऐ बैंक लोन का जुगाड करने में ही जिन्दगी बीत जाती है क्योंकि खुद की कमाई में तो या तो बच्चों को खिला ले ..या फिर मकान और बच्चों की पढाई का सपना पूरा कर ले.........!

तभी हमारा ध्यान भैय्या जी की और गया तो हमने पाया कि वे मुँह फाडे आसमान को ताक रहे थे....।हमने उन्हें झंझोडते हुऐ कहा कि भैय्या जी कहाँ खो गये......?भैय्या जी नींद से जागते हुऐ बोले.- कहीं नहीं शर्मा जी......सांसद बेटे के बंगले में पोते- पोतियों को खिला रहा था.............!

डॉ.योगेन्द्र मणी कौशिक


शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

द्रोपदी पत्र....डा श्याम गुप्त

( अगीत में )
हे धर्मराज!
मैं बन्धन थी ,
समाज व संस्कार के लिए ,
दिनभर खटती थी ,
गृह कार्य में,
पति परिवार पुरुष की सेवा में
आज , मैं मुक्त हूँ,
बड़ी कंपनी की सेवा में नियुक्त हूँ,
स्वेच्छा से दिनरात खटती हूँ;
अन्य पुरुषों के मातहत रहकरकंपनी की सेवा में

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

झलक ................श्यामल सुमन

बेबस है जिन्दगी और मदहोश है ज़मानाइक ओर बहते आंसू इक ओर है तराना
लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी सेउसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना
मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनातेमालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासतरोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना
मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ मेंचाहत बिना भी सच का पड़ता गला दबाना
अबतक नहीं सुने तो आगे भी न सुनोगेमेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना
होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन केहै काम बागवां का हर पल उसे सजाना