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सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

विकराल मुख और मधुर वाणी…...(सत्यम शिवम)

विकराल मुख और मधुर वाणी,
रुप विमुख पर अधरों का ज्ञानी।
संतृप्त रस,मधुता का पुजारी,
क्रंदन,रोदन का विरोध स्वभाव,
मन को तज,जिह्वा का व्यापारी,
मुख पे भर लाया घृणित भाव।

वाणी की प्रियता से है सब जग जानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

मुख पे ना अनोखा अलंकार,
मधुता है वाणी का श्रृँगार,
नैनों में ना विस्मित संताप,
होंठों पे है मधु भावों का जाप।

नैनों ने अधरों की महता मानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

वाणी से सुकुमार राजकुमार,
छवि की परछाई से गया वो हार,
अधरों की मोहकता से लगता कुँवर,
मुख ने है जताया रुप फुहर।

मधु अधरों से प्रिय वचनों का दानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

वाणी की प्रवाह नवजीवन सा,
श्रोता की जिज्ञासा बढ़ा देता,
रुप की झलक कुरुपता को,
हर बार अँगूठा दिखा देता।

वाणी ने बनाया मधुरता की रानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

प्रकृति से भी ना लड़ पाया,
कुरुपता क्यों मुझको दिया,
अधरों की बर्बरता ना दिखलाया,
वाणी की मिठास जो पी लिया।

अधरों के सौंदर्य से हुआ मुख पानी पानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

सौंदर्यता रुप की ढ़ल जाती है,
वाणी ही प्रतिष्ठा दिलाती है,
मृत्यु उपरांत काया विलुप्तता पाती है,
विचार और बाते ही हमेशा याद आती है।

विकरालता मुख का रुपांतरण कर,
अधर जगत में प्रवास पाती है।

कुरुपता से ना है अब हानि,
विकराल मुख और मधुर वाणी।