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सोमवार, 31 अगस्त 2009

मलाईदार-मलाई ( व्यंग्य )

जब से मनमोहनी सरकार ने दोबार से होश संभालन शुरु किया, तभी से समाचार पत्रों में मलाईदार विभाग बडी ही चर्चा का विषय रहा है।जनता तो मनमोहन सिंह की मोह-मा्या में फंस गई लेकिन सरकारी बैसाखियां हैं कि मलईदार मंत्रालयों के दरिया में डुबकी लगाने की तैयारी में जुट गई थी।नतीजा सामने है कि मनमोहन की मोहनी सूरत पर मुस्कान आने से पहले ही गायब हो गई और मंत्रियों की घोषणा वे खुले मन से नहीं कर पाऐ।


पिछली बार जब सरकार बनाई थी तो कभी लेफ्ट गुर्राता था तो कभी राइट.....। बडी मुश्किल से संसदीय कुनबे की संभाल पूरे पाँच साल तक की जा सकी...?इसबार जनता ने कूछ दमदारी से उन्हें सरकार की कमान संभलाई तो लगा था कि कमसे कम इस बार तो सिंह साहब अपनी इच्छा से सांस ले सकेगें और लगाम केवल पार्टी सुप्रीमो के पास एक ही हाथ में रहेगी लेकिन इस बार भी बेचारे करुणा और ममता के साथ पंवार की पावर के चक्कर में फंस ही गये। सिंह सहब को एक बार फिर सरकार की इन बैसाखियों की रिपेयरिंग के लिऐ आला कमान की शरण में जाना ही पडा.......। वहाँ से बैसाखियों की रिपेयरिंग करवाकर जनता के सामने नई पुरानी चाशनी से युक्त मलाई -मक्खन वाले विभागों का तलमेल बिठाकर पेश किया गया ।
इस मलाई दार के शोर की गूँज हमारी श्रीमती के कानों में भी पहुंचनी लाजमी थी। तभी तो उन्होंने एक दिन हमसे पूछ ही लिया-ये मलाईदार क्या बला है....?

हमने अपनी कुशाग्र बुद्धी का प्रमाण देते हुऐ तुरन्त जबाब दिया- दूध..... अच्छा बढिया वाला दूध ....मलाईदार होता है...!हमार इतना कहना था कि हमें लगा जैसे बिना गैस का चूल्हा जलाऐ ही दूध में उफान आने वाला है.....? श्रीमती जी तुरन्त बोली-आप क्या मुझे उल्लु समझते हैं.....? सभी मंत्री पद के लिऐ मलाईदार विभाग ढुढ रहे हैं .... मैं पूछती हूँ कि मन्त्रालयों में मलाई भला आई कहाँ से.....? वहाँ क्या पंजाब से भैंस लाकर बांध रखी हैं मनमोहन जी ने.....?

अब भला हम श्रीमती जी को कैसे समझाऐं कि जिस विभाग में दान दक्षिणा और ऊपरी कमाई की जितनी अधिक गुंजाइश होती है वह विभाग सरकरी भाषा में आजकल मलाईदार विभाग कहलाता है ....।अब कहने के लिऐ तो सभी जन सेवक हैं। जनता की सेवा करने के लिऐ ही सभी राजनीति में आऐ हैं।तभी तो पाँच साल में ही बेचारे जनता का दुख-दर्द ढोते- ढोते करोडपति हो जाते हैं......।

अजीब गोरख-धंधा है ऊपर वाले का भी.......! जनता पसीना बहाते- बहाते रोटी के जोड-भाग में हाँफने लगती है लेकिन नेता जी उसी पसीने में इत्र डालकर नहाने से करोडपति हो जाते है.......? तभी तो मन्त्री बनते समय किसी को भी इस बात कोई चिन्ता नहीं होती कि गरीब का उद्धार कैसे होगा सभी की मात्र यही गणित होती है कि जनता का कुछ हो या न हो मेरे परिवार का उद्धार कैसे होगा..........?और वह अपने कुनबे की गरीबी दूर करने में सफल भी हो ही जाता है... बेचारी जनता का क्या है उसे तो वोट देनी है अगले चुनाव आऐगें तो फिर एक बार वोट दे देगी........!!


डॉ.योगेन्द्र मणि

शनिवार, 29 अगस्त 2009

विनाशकारी लहरें -

जब लहरों से टकराये पत्थर


वो पत्थर भी पल में बिखर जाता है


रेत बनके वो कण-कण से पत्थर


समन्दर में जाके वो मिल जाता है


जब लहरों से टकराये पत्थर


खेवईयां चलाए बस्तियों को


बस्तियों से मिलाए बस्तियों को


जब समन्दर की लहरें बदल जाती हैं


उजाड़ देती वो कितने बस्तियों को


जब लहरों से टकराये पत्थर


है कुदरत का सारा करिश्मा


लगा है लोगों का मजमा


आज लहरों ने ऐसा कहर ढाया है


दिया है सबको इसका सदमा


जब लहरों से टकराये पत्थर


लड़ रहे हैं भाई सब अपने


बनाया है सबको जिसे रब ने


धमनियों में बहता एक सा है


फिर बतलाया भेद हममें किसने


जब लेहरों से टकराये पत्थर


(नरेन्द्र कुमार)

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

" निबंध प्रतियोगिता सूचना " हिन्दी दिवस पर लिखें निबंध और जीतें ५०० के इनाम

हिन्दी साहित्य मंच हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने हतु नियमित अन्तराल पर कविता प्रतियोगिता का आयोजन करता रहा है । हिन्दी साहित्य मंच इस बार हिन्दी दिवस को ध्यान में रखते हुए एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है । निबंध प्रतियोगिता का विषय है - " हिन्दी साहित्य का बचाव कैसे ? " । निबंध ५०० से अधिक शब्दों का नहीं होना चाहिए । हिन्दी फाण्ट यूनिकोड या क्रूर्तिदेव में ही होना चाहिए अन्यथा स्वीकार नहीं किया जायेगा । निबंध प्रतियोगिता हेतु आप अपनी प्रविष्टियां इस अंतरजाल पते पर भेंजें- hindisahityamanch@gmail.com. प्रतियोगिता की अन्तिम तिथि है १३ सितंबर निर्धारित है । इसके बाद की प्रविष्टियां नहीं स्वीकार होगी । प्रतिभागी अपना स्थायी पता और संपर्क सूत्र अवश्य ही दें । विजताओं की घोषणा १४ सितंबर की शाम को की जायेगी । विजेता को एक प्रशस्ति पत्र और ५००, ३०० और २०० का इनाम दिया जायेगा । संचालक ( हिन्दी साहित्य मंच )

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

"प्लेटफार्म पर भटकता बचपन"

उसके पापा की साइकिल मरम्मत की दुकान थी, आमदनी ज्यादा नही थी, सो पापा ने उसे बनारसी साङियो की एक फैक्टरी मे काम करने भेजा ,तब वह महज ८-९ साल के था।छोटा होने की वजह से हाथो की पकङ मजबूत नही थी, नतीजन साङी मे दाग छुट गया , इस बात पर गुस्साये ठेकेदार ने उस की पिटाई की। वह पापा के पास जा पहुचा ,पर पापा ने उस की बात नही सूनि और उन्होने भी उस की पिटाई की, फिर उसे जबरजस्ती उसी ठेकेदार के पास पहुचा दिया गया ,ठेकेदार ने उसे दोबारा पिटा , पर अब वह घर नही गया वह सिधा जा पहुचा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन ।यहा से शुरु होती है उसके आगे की कहानी जब वह स्टेशनपहुचा तब वह वहा सो गया ,जब आखँ खुली तब भुख लगी थीऔर सवेरा हो चूका था ,पेट मे चुहे दैङ रहे थे खाने के लिये पास मे कुछ भी नही था और न ही कुछ खरीद पाने के लिये पैसे, वह असहाय भुख सेतङप रहा था, अचानक उसकी नजर कुछ ऐसे बच्चो पे पङी जो कुङे के डब्बे से कुछ निकालने की कोशीश मे लगे थे ,वह वहा गया तो उसने देखा की वे बच्चे कुङे से कुछ खाने की वस्तुवे निकाल रहे थे , तब वह वँहा गया और वह भी उन बच्चो के गिरोह मे सामील हो गया और उसने भी उन जुठे खाने से अपने पेट की आग को बुझाई । वह उन बच्चो के गिरोह मे शामील हुआ जो पल्टेफार्म पर भीख मांगने से लेकर पानी के डब्बो को बेचना, नशे की वस्तुवो को बेचना ,प्लेटफार्म पे पोछा लगाने आदि कई ऐसे काम करते हैं जो की प्रशासन की नजर मे गैर कानुनी हैं। ये कहानी किसी एक विषेश कि नही है हम और आप प्रतिदीन इन बच्चो को देखते है फिर कुछ सोचते और फिर भुल जाते है। आपको जान कर हैरानी होगी की इनमे से ज्यातर बच्चे ऐसे है जो नशे की गिरफ्त मे बुरी तरह से जकङे जा चुके है। नशे के व्यापारी अपने थोङे से फायदे के लिये उन बच्चो के भविश्य के साथ खेल रहे है जिन्हे भारत का भविश्य कहा जा रहा है।कानून है कि १८ साल से कम उम्र का बच्चा न तो नशे का सेवन कर सकता है और न ही उसे बेच सकता है , लेकीन हमारा प्रशासन है की जिसे इसकी खबर ही नही है । बाल अधिकारो से जुङी तमाम गैरसरकारी संस्था को चाहिये की नशे की ओर इनके बढते हुये कदम को रोका जाये और इनके कदम को भारत के उज्वल भविश्य कि ओर अग्रसर किया जाये।

हिन्दी साहित्य मंच " द्वितीय कविता प्रतियोगिता " सूचना

हिन्दी साहित्य मंच "द्वितीय कविता प्रतियोगिता " सितंबर " माह से शुरू हो रही है । इस कविता प्रतियोगिता के लिए किसी विषय का निर्धारण नहीं किया गया है अतः साहित्यप्रेमी स्वइच्छा से किसी भी विषय पर अपनी रचना भेज सकते हैं । रचना आपकी स्वरचित होना अनिवार्य है । आपकी रचना हमें अगस्त माह के अन्तिम दिन तक मिल जानी चाहिए । इसके बाद आयी हुई रचना स्वीकार नहीं की जायेगी ।आप अपनी रचना हमें " यूनिकोड या क्रूर्तिदेव " फांट में ही भेंजें । आप सभी से यह अनुरोध है कि मात्र एक ही रचना हमें कविता प्रतियोगिता हेतु भेजें । प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आने वाली रचना को पुरस्कृत किया जायेगा । दो रचना को सांत्वना पुरस्कार दिया जायेगा । सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन हमारे निर्णायक मण्डल द्वारा किया जायेगा । जो सभी को मान्य होगा । आइये इस प्रयास को सफल बनायें । हमारे इस पते पर अपनी रचना भेजें -hindisahityamanch@gmail.com .आप हमारे इस नं पर संपर्क कर सकते हैं- 09891584813,09818837469, 09368499921। हिन्दी साहित्य मंच एक प्रयास कर रहा है राष्ट्रभाषा " हिन्दी " के लिए । आप सब इस प्रयास में अपनी भागीगारी कर इस प्रयास को सफल बनायें । आइये हमारे साथ हिन्दी साहित्य मंच पर । हिन्दी का एक विरवा लगाये जिससे आने वाले समय में एक हिन्दीभाषी राष्ट्र की कल्पना को साकार रूप दे सकें । संचालक ( हिन्दी साहित्य मंच ) नई दिल्ली

बुधवार, 26 अगस्त 2009

बादलों में चांद छिपता

बादलों में चांद छिपता है,


निकलता है ,

कभी अपना चेहरा दिखाता है ,

कभी ढ़क लेता है ,

उसकी रोशनी कम होती जाती है

फिर अचानक वही रोशनी

एक सिरे से दूसरे सिरे तक तेज होती जाती है ।

मैं इस लुका छिपी के खेल को

देखता रहता हूँ देर तक,

जाने क्यूँ बादलों से

चांद का छिपना - छिपाना

अच्छा लग रहा है ,

खामोश रात में आकाश की तरफ देखना ,

मन को भा रहा है ,

उस चांद में झांकते हुए

न जाने क्यूँ तुम्हारा नूर नजर आ रहा है ।

ऐसे में तुम्हारी कमी का एहसास

बार - बार हो रहा है ।

तुम्हारी यादें चांद ताजा कर रहा है,

मैं तुमको भूलने की कोशिश करके भी ,

आज याद कर रहा हूँ ,

इन यादों की तड़प से

मन विचलित हो रहा है ,

शायद चांद भी ये जानता है कि-

मैं तुम्हारे बगैर कितना तन्हा हूँ ?

अधूरा हूँ ,

ये चांद तुम्हारी यादें दिलाकर

तुम्हारी कमी को पूरा कर रहा है

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

" राजनीति साहित्य जगत की "- नरेन्द्र कुमार

राजनीतिज्ञो की राजनीति देखी

धर्म, सम्प्रदाय में राजनीति दिखी

जाति, भाषा से बंटे लोग देखे


देखा भाई-भतीजावाद का हर वो चेहरा


पर साहित्यकारों में भी राजनीति होगी


इसकी कभी परिकल्पना नहीं कि थी मैंने


सब दिखा हंस और पाखी के प्रतिवाद में


उस ज्ञान पीठ पुस्कार से


जिसे समृद्ध ज्ञानत्व वालें लोगो को दिया जाता है


आलोचक रचनाकारों के तेवरों ने भी


दिखाया राजनीति का चेहरा


दिखाया कैसे एक साहित्यकार


साहित्य के क्षेत्र में एक छत्र


राज करने को लालायित रहता है


अपनी ही पत्रिका और लेखनी को


सर्वोच्च ठहराने की जुगत करता है


इस क्रम में एक-दूसरे पर आक्षेप


करने से भी नहीं चूकता


आदतें उन तमाम राजनीतिज्ञों की तरह


जो अपने ही दल को देश का प्रहरी मानता है


और दूसरे को देश का दुश्मन


उन धर्मनिर्पेक्ष और साम्प्रदायिक ठेकेदारों की तरह


जिन्हें न तो देश से लगाव है न ही देशवासियों से


ज्ञान बांटने वाले ये लोग

अज्ञानता की राजनीति से गुजरते देखे जायेंगे


नवीन कवियों और लेखको के लिए

यह बेहद चिंता का विषय है


खेमेबाजी की इस दौर में


नये उभरते लेखकों को


एक खेमा चुनने की विवशता


कहीं उनके लेखनी में जड़ता न ला दे


जिस समाज को बदलने की आश लिए


नए साहित्यकार अपना कलम चलाते हैं


कहीं उनके मन में डर न समा जाए कि


कौन सा खेमा उनसे ख़ीज खाकर


उसके पन्नों पर ही स्याही न छीड़क दे


निष्कर्ष सोचकर ही हम जैसे


रचनाकारों को डर सा लगने लगा है


कही हमारे पल्लवित होते पंख को भी


आलोचक राजनीति खेमेबाजी कर कुतर न डालें।

शनिवार, 22 अगस्त 2009

"बिन पानी इंसान कहा "- नरेन्द्र कुमार

कहीं छांव नहीं सभी धूप लगे


आज पांव में भी गर्मी खूब लगे


कही जलता बदन पसीना बहे


हर डगर पे अब प्यास बढ़े


सतह से वृक्ष वीरान हुये


खेती की जमीं शमशान हुई


पानी की सतह भी द्घटती गई


आबादी जहां की बढ़ती ही गई


गर्मी की तपन जब खूब बढ़ेगी


सूखा सारा हर देश बनेगा


पेड़ सतह से जब मिट जायेगा


इंसान की आबादी खुद--खुद द्घट जायगी


वृक्ष लगा तू धरती बचा


धरती पे है सारा इंसान बसा


जब पेड़ नहीं पानी भी नहीं


बिन पानी फिर इंसान कहां


शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

"मौत का तांडव " - नरेद्र कुमार

छिपे-छिपाए चकमा देकर,


असला बारूद भरकर


आ गये फिल्मी नगरी के भीतर


देखा इंसानी चेहरों को


मासूम भी दिखें, उम्र दराज जिंदगियां भी थी


पर शायद दरिंदगी छुपी थी सीने में


उनके जहन में था व्य्हसियानापन


कुछ आगे पीछे सोचे बगैर


मचा दिया कोहराम, बजा दी तड़-तड़ की आवाजें


बिछादी लाशे धरती पर


क्या बच्चें, बूढे और जवान


क्या देशी व विदेशी, चुन-चुन कर निशान बनाया


लाल स्याही से, पट गया धरती का आंगन


कुछ हौसले दिखे, दिलेरी का मंजर दिखा


जो निहत्थे थे पर जुनून था


टकरा गए राई मानो पहाड़ से


खुद की परवाह किए बगैर


शिकस्त दिया खुद भी खाई


वीरता से जान गवाई, बचे खुचे दहशतगर्द


आग बढ गए, ताज को कब्जे में किया


फिर जो दिखा, दुनिया भी देखी


आतंक का चेहरा, कत्ले आम किया।


कुछ बच गए, रहमत था उनपर


जो मारे गये, किस्मत थी उनकी


फिर युद्ध चला, पराजित भी हए


पर जांबाजो की ढेर लगी


मोम्बत्तियां जली आंसू बहें, एकता का बिगुल बजा,



नेताओं पर गाज गिरी, निकम्मों को सजा मिली


सबूत ढूंढे गए, दोषी भी मिले


सजा देना मुकम्मल नहीं


लोहा गरम है, कहीं मार दे न हथौड़ा


पानी डालने के लिए, अब कुटनीति है चली


लेकिन जनता जाग चुकी है


सवाल पूंछने आगे बढी है


पर शायद जवाब, किसी के पास है ही नहीं


जिन्होंने देश को तोड़ा, जाति क्षेत्रा मजहब के नाम पर


आज खामोश है वे सब,


मौकापरस्ती और, तुष्टिकरण की बात पर


चुनाव आनी है, दो और दो से पांच बनानी है


खामोश रहना ही मुनासिब समझा


बह कह दिया, सुरक्षा द्घेरा, हटादो मेरा!


कुछ दिनों तक तनातनी का


यहीं चलेगा खेल, फिर बढ़ती आबादी की रेलमरेल


एक बुरा सपना समझकर, फिर सब भूल जायेंगे


याद आयेंगे तब, जब अगली बार फिर से


मौत का तांडव मचायेंगे।


गुरुवार, 20 अगस्त 2009

"कुंवारी बेटी का बाप" - अवनीश तिवारी

बेटी के जन्मदिन के शाम,
मेरे आस की मोमबत्तियां बुझती हैं,
उसकी बढ़ती उम्र के चढ़ते दिन मुझे,
नजदीक आ रहे निवृत्ति की याद दिलाते हैं,
बरस का अन्तिम दिन उसके मन में प्रश्न
और मेरे माथे पर चिंता की रेखा छोड़ जाता है



बेटी के साँवले तस्वीर पर बार बार हाथ फेरता हूँ,
शायद कुछ रंग निखर आए,
उसके नौकरी के आवेदन पत्र को बार बार पढता हूँ,
शायद कहीं कोई नियुक्ति हो जाए,
पंडितों से उसकी जन्म कुण्डली बार-बार दिखवाता हूँ,
शायद कभी भाग्य खुल जाए



हर इतवार वर की खोज में,
पूरे शहर दौड़ लगा आता हूँ,
भाग्य से नाराज़, झुकी निगाहों का खाली चेहरा ले घर को लौट जाता हूँ,
नवयुवक के मूल्यांकन में भ्रमित मैं,
अपने और इस जमाने के अन्तर में जकड़ जाता,
वर पक्ष के प्रतिष्टा और परिस्थिती के सामने,
अपने को कमजोर पा कोसता-पछताता



रिश्तेदारों के तानों की ज्वाला से सुलग ,
मित्रों के हंसी की लपट में भभक ,
परिवार के असंतोष में झुलस,
अंत में एक अवशेष सा रह जाता हूँ




इस जर्जर, दूषित, दहेज़ लोभी समाज से लड़नेवाले,
किसी विद्रोही नवयुवक की तलाश करता हूँ,
मैं परेशान एक कुंवारी बेटी का बाप,
इस व्यवस्था के बदलने की मांग रखता हूँ


बुधवार, 19 अगस्त 2009

" है ये कहानी वीरो की कहानी " - नरेन्द्र निर्मल

ये कहानी वीरो की कहानी


क्या कहता सुन ये मन है, क्यों सबकी आंखें नम हैं,


कुछ तो खोया है, सब ने रोया है


दर्द है ये दिल की है कहानी, वीरों ने दी है कुर्बानी


है ये कहानी, वीरों की कहानी-


फक्र है हमको नाज यहीं है, अपने देश का ताज यही है,


सबकी इसने लाज बचा दी, मेरे गीतों का साज यही है


हंस हंस के ये जान लुटा दे, लुटा दे अपनी जवानी


है ये कहानी वीरों की कहानी-


इसको तोड़ों उसको फोड़ो, नेताओं ने राग है छेड़ा


जाति क्षेत्रा मजहब में तोड़ो, ताकि वोट मिले और थोड़ा


शहीदों को भी वोट में तोले, कड़वी इनकी जुबानी


है ये कहानी वीरों की कहानी-


आम आदमी भीख मांगता, और नेता को देखो


स्वीस बैंक में नोट छीपाके, कहते देश को बेचों


चिंता छोड़ों दुनिया की, तुम अपनी चिंता कर लों


कफन बेचदों वीरों की, पर अपनी जेब तो भर लो


भाषण देकर पेट भरे, ये रित है बड़ी पुरानी


है ये कहानी वीरों की कहानी-