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शनिवार, 25 दिसंबर 2010

गंगा की घाटों पे वो..............(सत्यम शिवम)

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।
इक बहाव में बह गया वो,
आज की शाम,
जाने कब से निर्झर है ये शांत।
युगों युगों से देखा है जिसने कई सदी।

शाम की आरती का है समय,
तन्हाईयों ने कर दिया फिर से अकेला।


गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।

ये शाम अब भी वैसा है,
आसमां में चाँद,
गँगा की धार में बहते कई नाव।
गँगा के उस पार अब भी दिखता है इक गाँव।

वो लोगों का जमावड़ा भी वैसे ही है,
जैसा कभी हुआ करता था पहले।

बदला तो है बस जहा मेरा,
कल साथ थे सब,
आज हूँ अकेला।

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।

इक रुकी रुकी सी धुँधली तस्वीर,
दिखती है मुझको गँगा तीर।

इक नाव अभी भी दिखता है,
किसी की बाट जोहता हुआ बिल्कुल अधीर।

इक प्रार्थना का दीप जलता,
गँगा की धार में बहता है,
मेरी भावना के सीप चुनकर,
कुछ अधूरे ख्वाब को गहता है।

मेरा मन मुझसे कहता है,
यादों में जी लेता हूँ फिर,
गुजरे दिनों की हर इक वेला।

गंगा की घाटों पे वो फिरता,
न जाने है कितना अकेला।