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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

अलमारी----(कविता)----मोनिका गुप्ता

कमरे मे माँ की अलमारी नही
अलमारीनुमा पूरा कमरा है
जिसमे मेरे लिए सूट है
सामी के लिए खिलौना है
इनके लिए परफ्यूम है
मणि के लिए चाकलेट है
एक जोडी चप्पल है
सेल मे खरीदा आचार,मुरब्बा और मसाला है
बर्तनो का सैट है
शगुन के लिफाफा है
जो जो जब जब याद आता है
वो इसमे भरती जाती हैं
ताकि मेरे आने पर
कुछ देना भूल ना जाए
सच, ये अलमारी नही
अलमारीनुमा पूरा कमरा है

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

पत्रकारिता का बदलता स्वरुप....(शिव शंकर)

पत्रकारिता जो की लोकतंत्र का स्तम्भ है, जिसकी समाज के प्रति एक अहम भूमिका होती है, ये समाज में हो

रही बुराईयों को जनता के सामने लाता है तथा उन बुराईयों को खत्म करने के लिए लोगो को प्रेरित करता है। पत्रकारिता समाज और सरकार के प्रति एक ऐसी मुख्य कड़ी है, जो कि समाज के लोगो और सरकार को आपस में जोड़े रहती है। वह जनता के विचारों और भावनाओं को सरकार के सामने रखकर उन्हे प्रतिबिंबित करता है तथा लोगो में एक नई राष्टीय चेतना जगाता है।
पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यदि कोई जानकारी प्राप्त करनी है तो हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले की पत्रकारिता को समझना होगा । पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 19 वीं शताब्दी के पूर्वान्ह में भारतीय कला ,संस्कृति, साहित्य तथा उधोग धन्धों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नष्टकर दिया था, जिसके कारण भारत में निर्धनता व दरिद्रता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
इसे खत्म करने के लिए कुछ बुद्विजीवियो ने समाचार पत्र का प्रकाशन किया । वे समाचार पत्रो के माध्यम से देश के नवयुवको कें मन व मस्तिष्क में देश के प्रति एक नई क्रांति लाना चाहते थे, इस दिशा में सर्वप्रथम कानपुर के निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी पत्र उदन्त मार्तण्ड नामक पत्र 30 मई , 1926 ई. में प्रकाशित किया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक थे यह पत्र भारतियो के हित में प्रकाशित किया गया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक के पूर्व कि जो पत्रकारिता थी वह मिशन थी , किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पत्रकारिता व्यावसायिक हो चुकी है।
हमारे देश में हजारो ऐसी पत्र-पत्रिकायें छप रही है जिसमें पूंजीपति अपने हितो को ध्यान में रखकर प्रकाशित कर रहे है। आधुनिक युग में जिस तरह से पत्रकारिता का विकाश हो रहा है, उसने एक ओर जहां उधोग को बढावा दिया है, वही दूसरी ओर राजनीति क्षेत्र में भी विकसित हो रहा है। जिसके फलस्वरूप राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल बड़ी तेजी से बढ रहे है, इन दोनों शक्तियों ने स्वतंत्र सत्ता बनाने के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी और व्यवसाय का महत्व बढ़ता गया । एक समय ऐसा था जब केवल समाचार पत्रों में समाचारों का महत्व दिया जाता था। किन्तु आज के इस तकनीकी और वैज्ञानिक युग में समाचार पत्रो में विज्ञापन देकर और भी रंगीन बनाया जा रहा है।

इन रंगीन समाचार पत्रो ने उधोग धंधो को काफी विकसित किया है। आज हमारें देश में साहित्यिक पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके पाठकों व प्रशंसकों की हमेशा कमी थी। यही वजह थी की ये पत्रिकायें या तो बन्द हो गई या फिर हमेशा धन का अभाव झेलती रही । यह इस बात का प्रमाण है कि आज इस आधुनिक युग में जिस तरह से समाचार पत्रो का स्वरूप बदला है, उसने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी परिवर्तित कर दिया है। समाचार चैनलों ने टी. आर. पी को लेकर जिस तरह से लड़ायी कर रहे है, उसे देखते हुए आचार संहिता बनानी चाहिए और इसे मीडीया को स्वयं बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आदर्श जनतंत्र में यह काम किसी सरकार के हाथों में नहीं दिया जा सकता है। उसे अपने हर खबरो को जनतंत्र के मूल्यों व समाजिक राष्टीय हितो की कसौटी पर कसना होगा , यही सेंसरशिप है, जिसकी पत्रकारिता को जरूरत है। पत्रकारिता वास्तव में जीवन में हो रही विभिन्न क्रियाकलापों व गतिविधियों की जानकारी देता है। वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और अपने साथ सुसहमति रखने वाले व्यक्तियों और वर्गो को उनके विचार अभिव्यक्ति करने का अवसर देती है।

ज्ञात रहे कि पत्रकारिता के माध्यम से हम देश में क्रान्ति ला सकते है, देश में फैली कई बुराईयो को हमेशा के लिए खत्म कर सकते है। अत: पत्रकारिता का उपयोग हम जनहित और समाज के भलाई के लिए करें न कि किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में। पत्रकारिता की छवी साफ सुथरी रहे तभी समाज के कल्याण की उम्मीद कर सकते है।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

सोचो तो असर होता ---(गजल)----श्यामल सुमन

जीने की ललक जबतक साँसों का सफर होता
हर पल है आखिरी पल सोचो तो असर होता

इक आशियां बनाना कितना कठिन है यारो
जलतीं हैं बस्तियाँ फिर मजहब में जहर होता

होती बहुत निराशा अखबार खोलते ही
अब हादसों के बाहर क्या कोई शहर होता

अपनों के बीच रहकर अपनों से दूर है जो
अक्सर उसी पे देखो अपनों का कहर होता

आगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता


मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

मत बाँटो देश (लेख)-----मिथिलेश

नया युग वैज्ञानिक अध्यात्म का है । इसमें किसी तरह की कट्टरता मूढता अथवा पागलपन है। मूढताए अथवा अंधताये धर्म की हो या जाति की अथवा फिर भाषा या क्षेत्र की पूरी तरह से बेईमानी हो चुकी है । लेकिन हमारें यहां की राजनीति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन्हे देश को बाँटने के सिवाय कोई और मुद्दा ही नहीं दिखता । कभी वे अलग राज्य के नाम पर राजनीति कर रहे हैं तो कभी जाति और धर्म के नाम पर । जिस दश में लोग बिना खाए सो जा रहे हो , कुपोषण का शिकार हो रहें हो , लड़किया घर से निकलने पर डर रही हो उस देश में ऐसे मुद्दों पर राजनीति करना मात्र मूर्खता ही कही जा सकती है । आज से पाँच-छह सौ साल पहले यूरोप जिस अंधविश्वास दंभ एंव धार्मिक बर्बरता के युग में जी रहा था, उस युग में आज अपने देश को घसीटने की पूरी कोशिश की जा रही है जो किसी भी तरह से उचित नही है। जो मूर्खतायें अब तक हमारे निजी जीवन का नाश कर रही थी वही अब देशव्यापी प्रागंण में फैलकर हमारी बची-खुची मानवीय संवेदना का ग्रास कर रही है । जिनकें कारण अभी तक हमारे व्यक्तित्व का पतन होता रहा है जो हमारी गुलामी का प्रमुख कारण रही, अब उन्ही के कारण हमारा देश एक बार फिर तबाही के राह पर है । धर्म के नाम पर , जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम, और भाषा के नाम पर जो झगड़े खड़े किए जा रहे है उनका हश्र सारा देश देख रहा है ।
कभी मंदिर और कभी मस्जिद तो कभी जातीयता को रिझाने की कशिश । दुःख तो तब और होता है जब इस तरह के मामलो में शिक्षित वर्ग भी शामिल दिखता है । ये सब किस तरह की कुटिलताएँ है और इनका संचायन वे लोग कर रहे है जो स्वयं को समाज का कर्णधार मानते हैं । इन धर्मो एवं जातियो के झगड़ो को हमारी कमजोरियों दूर करने का सही तरीका केवल यही है कि देश के कुछ साहसी एंव सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन कट्टरताओं की कुटिलता के विरुद्ध एक महासंग्राम छेड़ दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण-पथ प्रशस्त ना होगा । समझौता कर लेनें, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलह नामों को लिखकर, हाथो में कालीख पोत लेने से ,तोड़फोड़ कर लेने से कभी राष्ट्रीयता व मानवीयता का उपवन नहीं महकेगा । हालत आज इतनी गई-गुजरी हो गई है कि व्यापक महांसंग्राम छेडे बिना काम चलता नहीं दिखता । धर्म , क्षेत्र एवं जाति का नाम लेकर घृणित व कुत्सित कुचक्र रचनें वालों की संख्या रक्तबीज तरह बढ रही है । ऐसे धूर्तो की कमी नहीं रही, पर मानवता कभी भी संपूर्णतया नहीं हुई और न आगे ही होगी, लेकिन बीच-बीच में ऐसा अंधयूग आ ही जाता है , जिसमें धर्म , जाति एवं क्षेत्र के नाम पर झूठे ढकोसले खड़े हो जाते हैं । कतिप्रय उलूक ऐसे में लोगो में भ्रातियाँ पैदा करने की चेष्टा करने लगते है । भारत का जीवन एवं संस्कृति वेमेल एवं विच्छन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है । जो बात पहले कभी व्यक्तिगत जीवन में घटित होती थी, वही अब समाज की छाती चिरने लगें । भारत देश के इतिहास में इसकी कई गवाहिँया मेजुद हैं । हिंसा की भावना पहले कभी व्यक्तिगत पूजा-उपक्रमो तक सिमटी थी, बाद में वह समाज व्यापिनी बन गयी । गंगा, यमुना सरस्वती एवं देवनंद का विशाल भू-खण्ड एक हत्याग्रह में बदल गया । जिसे कुछ लोग कल तक अपनी व्यक्तिगत हैसियत से करते थे, अब उसे पूरा समाज करने लगा । उस समय एक व्यापक विचार क्रान्ति की जरुरत महसूस हुई । समाज की आत्मा में भारी विक्षोभ हुआ ।

इस क्रम में सबसे बडा हास्यापद सच तो यह है कि जो लोग अपने हितो के लिए धर्म , क्षेत्र की की दुहाई देते है उन्हे सांप्रदायिक कहा जाता है, परन्तु जो लोग जाति-धर्म क्षेत्र के नाम पर अपने स्वार्थ साधते हैं , वे स्वयं को बडा पुण्यकर्मि समझते हैं । जबकि वास्तविकता तो यह है कि ये दोंनो ही मूढ हैं , दोनो ही राष्ट्रविनाशक है । इनमें से किसी को कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता । ध्यान रहे कि इस तरह की मुढतायें हमारे लिए हानिकारक ही साबित होंगी , अंग्रजो ने तो हमारे कम ही टुकडे किय, परन्तु अब हम अगर नहीं चेते तो खूद ही कई टूकडों में बँट जायेंगे, क्या भरोसा है कि जो चन्द स्वार्थि लोग आज अलग राज्य की माँग कर रहे हैं वे कल को अलग देश की माँग ना करे, इस लिए अब हमें राष्ट्रचेतना की जरुरत है, हो सकता है शुरु में हमें लोगो का कोपाभजन बनना पड़े , पर इससे डरने की जरुरत नही है । तो आईये मिलकर राष्ट्र नवसंरचना करने का प्रण लें ।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

विकराल मुख और मधुर वाणी…...(सत्यम शिवम)

विकराल मुख और मधुर वाणी,
रुप विमुख पर अधरों का ज्ञानी।
संतृप्त रस,मधुता का पुजारी,
क्रंदन,रोदन का विरोध स्वभाव,
मन को तज,जिह्वा का व्यापारी,
मुख पे भर लाया घृणित भाव।

वाणी की प्रियता से है सब जग जानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

मुख पे ना अनोखा अलंकार,
मधुता है वाणी का श्रृँगार,
नैनों में ना विस्मित संताप,
होंठों पे है मधु भावों का जाप।

नैनों ने अधरों की महता मानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

वाणी से सुकुमार राजकुमार,
छवि की परछाई से गया वो हार,
अधरों की मोहकता से लगता कुँवर,
मुख ने है जताया रुप फुहर।

मधु अधरों से प्रिय वचनों का दानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

वाणी की प्रवाह नवजीवन सा,
श्रोता की जिज्ञासा बढ़ा देता,
रुप की झलक कुरुपता को,
हर बार अँगूठा दिखा देता।

वाणी ने बनाया मधुरता की रानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

प्रकृति से भी ना लड़ पाया,
कुरुपता क्यों मुझको दिया,
अधरों की बर्बरता ना दिखलाया,
वाणी की मिठास जो पी लिया।

अधरों के सौंदर्य से हुआ मुख पानी पानी।
विकराल मुख और मधुर वाणी।

सौंदर्यता रुप की ढ़ल जाती है,
वाणी ही प्रतिष्ठा दिलाती है,
मृत्यु उपरांत काया विलुप्तता पाती है,
विचार और बाते ही हमेशा याद आती है।

विकरालता मुख का रुपांतरण कर,
अधर जगत में प्रवास पाती है।

कुरुपता से ना है अब हानि,
विकराल मुख और मधुर वाणी।

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

पुरस्कार-------(लघुकथा)----------निर्मला कपिला

राजा-- देखो कैसा जमाना आ गया है सिफारिश से आज कल साहित्य सम्मान मिलते हैं।
शाम -- वो कैसे?
हमारे पडोसी ने किसी महिला पर कुछ कवितायें लिखी। उसे पुरुस्कार मिला।
उसी महिला पर मैने रचनायें लिखी मुझे कोई पुरस्कार नही मिला।
तुम्हें कैसे पता है कि जिस महिला पर रचना लिखी वो एक ही महिला है?
राजा--- क्यों कि वो हमारे घर के सामने रहता है । लान मे बैठ जाता और मेरी पत्नि को देख देख कर कुछ लिखता रहता था। लेकिन मै उसके सामने नही लिखता मैं अन्दर जा कर लिखता था। सब से बडा दुख तो इस बात का है कि मेरी पत्नी उस मंच की अध्यक्ष थी और उसके हाथों से ही पुरुस्कार दिलवाया गया था।
शाम-- अरे यार छोड । तम्हें कैसे पुरस्कार मिलता क्या सच को कोई इतने सुन्दर ढंग से लिख सकता है जितना की झूठ को। द्दोर के ढोल सुहावने लगते हैं।उसने जरूर भाभी जी की तारीफ की होगी और तुम ने उल्टा सुल्टा लिखा होगा। फाड कर फेंक दे अपनी कवितायें नही तो कहीं भाभी के हाथ लग गयी तो जूतों का पुरस्कार मिलेगा।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

तुम तुम और तुम... (गीत)--- ( डा श्याम गुप्त )

सकल रूप रस भाव अवस्थित , तुम ही तुम हो सकल विश्व में |
सकल
विश्व तुम में स्थित प्रिय,अखिल विश्व में तुम ही तुम हो |
तुम
तुम तुम तुम , तुम ही तुम हो,तुम ही तुम, प्रिय! तुम ही तुम हो ||


तेरी वींणा के ही नाद से, जीवन नाद उदित होता है |
तेरी स्वर लहरी से ही प्रिय,जीवन नाद मुदित होता है |


ज्ञान चेतना मान तुम्ही हो ,जग कारक विज्ञान तुम्ही हो |
तुम जीवन की ज्ञान लहर हो,भाव कर्म शुचि लहर तुम्ही हो |


अंतस मानस या अंतर्मन ,अंतर्हृदय तुम्हारी वाणी |
अंतर्द्वंद्व -द्वंद्व हो तुम ही , जीव जगत सम्बन्ध तुम्ही हो |


तेरा प्रीति निनाद होता , जग का कुछ संबाद होता |
जग के कण कण, भाव भाव में,केवल तुम हो,तुम ही तुम हो |


जग कारक जग धारक तुम हो,तुम तु तुम तुम, तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |

तुम्ही शक्ति, क्रिया, कर्ता हो, तुम्ही ब्रह्म इच्छा माया हो |
इस विराट को रचने वाली, उस विरा की कृति काया हो |


दया कृपा अनुरक्ति तुम्ही हो, ममता माया भक्ति तुम्ही हो |
अखिल भुवन में तेरी माया,तुझ मे सब ब्रह्माण्ड समाया |


गीत हो या सुर संगम हे प्रिय!, काव्य कर्म हो या कृति प्रणयन |
सकल विश्व के गुण भावों में, तु ही तुम हो,तुम ही तुम हो |


तेरी प्रीति-द्रष्टि का हे प्रिय, श्याम के तन मन पर साया हो |
मन के कण कण अन्तर्मन में, तेरी प्रेम -मयी छाया हो


श्रिष्टि हो स्थिति या लय हो प्रिय!, सब कारण का कारण, तुम हो
तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम तुम तुम प्रिय, तुम ही तुम हो

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

उपन्यास ''छपाक-छपाक'' ( समीक्षा)-------


सामाजिक और धार्मिक जीवन में ऊँचे स्थान पर मानी जाने वाली नर्मदा नदी के साथ ही वहाँ के आलम को इस उपन्यास में प्रयाप्त रूप से मान मिला है.हर थोड़ी देर में नदी के बहाव को देखता हुआ लेखक अपने पात्रों के बहाने असल जीवन दर्शन को कागज़ में छापता है.शाम-सवेरे और सूरज जैसी उपमाओं के ज़रिए भी बहुत गहरी बातें संवादों में रूक रूक कर समाहित की गई है.संवादों में बहुत से ऐसे शब्दों का समावेश मिलेगा जो उस इलाके के देशज लगते हैं.समय के साथ अपने में बदलाव करता नंदी उम्र के साथ जिम्मेदारियां ओढ़ता है.मगर आसपास की समस्याएँ उसे हमेशा सालती रहती है.गलत संगत से बिगड़ते स्कूली बच्चों पर केन्द्रित ये उपन्यास बस्ती जैसे हलको की सच बयानी करता है.कथ्य भी मध्य प्रदेश में बहती नर्मदा मैंया के किनारे वाले प्रवाह-सा रूप धरता है.पढ़ते हुए कभी मुझे ये उपन्यास पाठक को सपाट गति से समझ में आने वाली फिल्म के माफिक भी लगता है.

ये छपाक-छपाक वो आवाजें है जिसमें नंदी ने अपने पिता भोरम,अपनी माँ सोन बाई को खो दिया, ये ही वो छपाक की धम्म है जिसके चलते नंदी को स्कूल छोड़ना पड़ा ,ये ही वो आवाज़ है जहां अपने कुसंस्कारों की औलादें बीयरपार्टी सनी पिकनिक मनाती है,और बहते पानी में अपने मित्र खो देते लोगों की कहानी बनाती है.ऊँची जात के युवक जब बहते हुए मरने वाले होते हैं तो नीची जात के कुशल तैराक उन्हें बचा लेते हैं.मगर खून तब खोलता है जब उपन्यास में वो ऊँची जात के मरते मरते बचे बेटे वीरेंद्र की माँ तैरने में उस्ताद नंदी की जात पूछकर खीर खिलाने का बरतन डिसाइड करती है.दकियानूसी परिवारों में फंसी सादे घरों की बेटियों की पीड़ा झलकाता देवांगी का चरित्र भी बहुत कम समय उपस्थित रह कर भी प्रमुखता से उभरा है.उपन्यास के बहुत बड़े हिस्से को घेर बैठे दो नबर के धन्धेबाज़ भैया जी और उनके बेटे वीरेंद्र जैसे घाघ किस्म के लोग भी इस दुनिया में बहुतेरे भरे पड़े हैं.ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज भी नंदी जैसे आदिवासी उनके बड़े दरवाजों वाले मकानों के भाव में डूब कर उनके पैर दबा रहे हैं.उपन्यास के अंत में खुद के अंत के साथ ही बाज़ आने वाला तंतर-मंतर का पोटला वो पड़िहार भी घाघ ही था.इस रचना में जहां पापी लोग भरे हैं वहीं ठीक दिल के पत्र भी हिस्सा रहे हैं.

होशंगाबाद के अशोक जमनानी जिन्हें उनकी कविताओं के साथ ही संस्कृतिकर्म के ज़रिए तो जाना जाता भी है,मगर साथ ही पिछले कुछ सालों में उनके तीन उपन्यास भी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय हुए हैं.उनकी सबसे प्रखर कृति व्यास गादी में उन्होंने आज कल के बाबा-तुम्बाओं की आश्रम बनाओ प्रतियोगिता के सच को अपनी गूंथी हुई शैली में पूरी बेबाकी से लिखा था.मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी के दुष्यंत कुमार सम्मान से पिछले साल ही नवाजे गए जमनानी के अन्य उपन्यासों में बूढी डायरी और को अहम् भी खासे चर्चित रहे.इस बार भाषा के स्तर पर नया प्रयोग का असर देने वाला उपन्यास छपाक-छपाक पाठक के हाथों में आया जनवरी के अंत तक आया.पांच भागों में बंटा हुआ अशोक जमनानी का नया उपन्यास एक सौ साठ पेज है,जिसे एक बार फिर दिल्ली के तेज़ प्रकाशन ने छापा है. मैंने एक ही बैठक में साठ पेज पढ़ते हुए पार कर गया. एक भाग पढ़ा. इसी बीच पांच बार रोया. अशोक भाई को अपनी टिप्पणी देते हुए भी रो पढ़ा.बातों में पता लगा कि अशोक खुद भी लिखते वक्त इस कहानी में घंटों रोए हैं.समाज के जीवंत चित्रण को शब्दों में ढालता ये उपन्यास बहुत शुरुआत में तो इमोशनल किस्म का जान पड़ता है,मगर अंत तक जाते जाते बहुत हद तक पिछड़े परिवारों की मानसिकता की परतें पाठक के सामने खोलता है.इसके केन्द्रीय भाव में समाज के मुख्य हिस्से कहे जाने वाले मगर गुरूजीब्रांड लोगों के बैनर तले शिष्यों से ली जाने वाली बेगार प्रथा जमी हुई नज़र आई.


भारतीय लोकतंत्र में साक्षरता के आंकड़े भले ही ऊँचे उठ गए हो मगर आज भी संवाद पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि ऐसी कई परम्पराए मौजूद हैं जो पैरों की नीचे की ज़मीन ढहाती लगती है.रचना का मुख्य पात्र नंदी बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से पाठक के मानसपटल पर अपनी तस्वीर बनाता है.शुरुआत से लेकर अंत तक भले आदमी के माफिक अपने दायित्व के इर्दगिर्द चलता है.न बहुत दूर,न ही बहुत सटा हुआ .



मानवीय मूल्यों की बात करें तो सभी बातों और विचारों के बीच सोन बाई,बघनखा और भोरम के मरने पर नंदी के मन का दु:ख समझने वाले पंचा काका और बचपने की मित्र महुआ जैसे लोग कम ही सही मगर आज भी हमारे इस परिदृश्य में बचे हैं.माँ नहीं होकर भी सुखो काकी ने नंदी पर अपना वात्सल्य ऊंडेल दिया.ये भाव अब भी देहात में सरस है.वीरेंद्र ने नंदी को पुलिस से बचाने के हित अपने पिता तक से दुश्मनी कर ली.नंदी को जेल से छुडाने में गिरवी रखे खेतों पर सेठजी की खराब नज़र भी अंत तक जाते जाते भली बन पड़ी. सच ही है कि मानव-मूल्यों की याद आदमी को धीरे ही आए मगर अन्तोगत्वा उन्ही की शरण से मुक्ति संभव लगती है.वैसे भी अच्छे दिल के लोग भगवान् जल्दी ही ऊपर बुला ले रहा है,वहीं बाकी की कसर तेजी से बदलते ज़माने की इस रफ़्तार में मानव मूल्यों की चटनी बनाकर पूरी कर दी है.यहाँ भी कई भले लोग जल्दी मर गए.


कुछ दह तक व्यवसाई अशोक स्पिक मैके नामक सांस्कृतिक आन्दोलन से भी जुड़े होने से अपने बहुत से गुणों के साथ उपन्यास में धुंधले से ही सही मगर दिखते हैं. उपन्यास में उनके कला और धर्म प्रेम की झलक बखूबी दिखती है.अशोक निचले तबके के लोगों के कठोर श्रम प्रधान जीवन से भलीभांती परिचित है.थोड़े-थोड़े दिनों में नर्मदा नदी के किनारे अकले में की गई उनकी लम्बी यात्राएं भी इस रचना से झांकती नज़र आई है.एक नदी के प्रति माँ का सा भाव उनकी अपनी मिट्टी के प्रति समर्पण भाव और स्वयं को उन्ही प्राकृतिक और विरासती पहचानों के हित घुला देने की उनकी प्रवृति को सलाम करता हूँ.उनकी पिछली रचनाओं की अपेक्षा ये उपन्यास आम पाठकों तक ज्य़ादा अच्छे से पहुँच बनाने में सफल हो पाएगी,ऐसा मेरा मानना है.


उपन्यास में आए पात्रों के नाम भी पूरे रूप में आदिवासी पहचान लिए हुए है.नदी,जंगल,बस्ती के इर्दगिर्द जंगली पेड़ों के नाम और वहां का अछूता जीवन आज भी शहरों की आधुनिकता के आगे थूंकता है.आज भी ऐसे गाँव हैं जहां अपने रोजी के रूप में लोग नदी में धर्म के नाम पर डाले सिक्के खंगालते हैं.आज भी अपने किसी काम के बाकी रहते लोग मर जाने पर मुक्ति के लिए भटकते रहते हैं.इसके उलट समाज की बहुत सी बीमारियाँ आज भी दबे कुचले गांवों में जड़ें पकड़ी हुई है.ये एक रूप है तो दूजा नंदी के प्यार में उसकी हर पीड़ा को समझने वाली महुआ नायिका के रूप में अपने थोड़े मगर सुगठित संवादों के साथ उभरी है.परेशानियों के हालात में नन्दी को गांवों में मिलने वाली सहज स्नेह दृष्टी के साथ कई सारे कड़ुए घुट भी पीने पड़े,जो यथासमय बदलते गांवों की कहानी कहते प्रतीत होते हैं.

समग्र रूप से छपाक-छपाक जैसा उपन्यास एक बार फिर पाठकों को सोचने के हित कई सारे मुद्दे छोड़े जा रहा है जो आज फिर से हमारी आर्थिक और वैचारिक गुलामी का द्योतक साबित हुआ है.ये रचना पढ़ने के बाद एक बार फिर लगा कि पुलिस तंत्र सहित सेठ-साहूकारों,वकीलों,डॉक्टरों,और गुरुजनों तक के सहयोग से भ्रटाचार की दीमक खुल्लेआम फ़ैली है.आज भी देहाती इलाकों में हॉस्पिटल जैसी चिड़ियाँ मिलना मुश्किल है और मज़बूरन आदमी जादू-टोने के भरोसे ही सांस लेते हैं.एक बार फिर सच तो यही लगने लगा है कि जुग्गियों और बस्तियों की ज़िंदगी में पास बहते नदी-नाले के पानी में थप-थप करने और कूदने पर छपाक-छपाक आवाजें आने मात्र ही उनके मनोरंजन के साधन बनकर उन्हें खुशियाँ देते हैं,और ये ही वो जगह है जहां वे अपना दु:ख साझा कर सकते हैं.वाकई ये उपन्यास वर्तमान को उकेरता है,तो बहुत दूर तक पढ़ा जाएगा.शुभकामनाओं के साथ

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

" मैं हिंदी "-----(कविता)-------वीनस**** जोया

हर बार यही मंजर दोहराया गया
मुझे मेरे ही घर में गिराया गया
पराये रौशनी आँखों में सजा ली
घर का कंदील कहीं छुपाया गया
मैं हिंदी मुडी तुडी किसी वेद की
सिलवट पे चिपकी पड़ी रह गयी
मेरे अपनों ने अंग्रेजी की पोषक से
अपने तन को सजा - सवार लिया
अपना आस्तित्व खरपतवार सा
प्रतीत हुआ मुझे जब अपनों की
महफिलों में मेरा रूप नकारा गया
मैं "हिंदी" सिर्फ कुछ कक्षाओं में
अब मात्र विषय बन के रह गयी
जुबां पे सजने की अदा और हुनर
खोखले दिखावों में छुपता गया
उर्दू - पंजाबी सरीखी बहनों से
अपना आस्तित्व बाँट लिया मैंने
और अब बाहर की सौतन से भी
धीरे धीरे मेरा सुहाग बंटता गया
शिकवा शिकायात करूँ तो क्या
अपनी जुबां से तो हटा चुके थे.
अब ज़ेहन से भी मुझे हटाया गया.......

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

ऐ दर्द न सता मुझे-----(गजल)----दिलबाग विर्क

किस बात की दे रहा सज़ा मुझे
है क्या गुनाह मेरा , बता मुझे .

हिम्मत नहीं अब और सहने की
रुक भी जा , ऐ दर्द न सता मुझे .

या खुदा ! अदना-सा इंसान हूँ
टूट जाऊँगा , न आजमा मुझे .

क्यों चुप रहा उसकी तौहीन देखकर
ये पूछती है , मेरी वफा मुझे .

आखिर ये बेनूरी तो छटे
किन्ही बहानों से बहला मुझे .

एक अनजाना सा खौफ हावी है
अब क्या कहूँ 'विर्क' हुआ क्या मुझे

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

इकतरफा प्यार..........(सत्यम शिवम)

ये दिल का खेल भी बड़ा निराला होता है,
जिससे प्यार करता है,
उससे ही कहने से डरता है।
अपनी सारी जिंदगी उसके इंतजार में गुजरता है,
वो तो सोता है,पर खुद रात भर जगता है।

दिल से ही दिल में खुब बातें करता है,
पर जब वो सामने आता है,
तो कुछ भी कहने से डरता है।

बस एक झलक जो पा लेता है उसकी,
दिल मोर बगिया में ऐसे नाचता है,
मानों सब कुछ मिल गया हो अब,
कुछ और ना पाने की चाहत रखता है।

पर जुदाई के हर तड़प को यूँ सहता है,
जैसे अग्निपथ को कोई पार करता है।

आँखों में खुब सपने संजोता है,
पर असलियत में ये आँख हरदम रोता है।

कोई कसुर भी तो उसका नहीं होता है,
सारा गुनाह तो बस इन आँखों से होता है।

बिना बताएँ ही ये किसी को,
दिल में यूँ बसा लेता है,
कि हर पल के हर क्षण में,
हर साँस के साथ बस उसे ही महसूस करता है।

अपने दिल की बातें पन्नों में उतारना चाहता है,
पर हर बार नए पन्ने से शुरुआत करता है।

इस वक्त दिल की जो हालत होती है,
वो बस कोई प्यार करने वाला ही जान सकता है।

एकतरफे दिल्लगी की ये दिवानगी,
दिवाने का जुनुन बन जाता है,
बस उसे छुप छुप के देख कर ही,
ये तो अब सुकुन पाता है।

बातों में ओंठ लड़खड़ाता है,
दिलबर से आँखों को चुराता है,
तन्हाईयों में रोज ये गम के ही गीत गाता है।

खुदा के दरबार में भी सर झुकाता है,
उसे पाने को अपना सब कुछ लुटाता है,
पर जिसे चाहता है उसे कुछ ना बताता है।

ये खेल वो खुद ही खेलता है,
और अंत में हार जाता है,
दिल की तड़प तब बढ़ती है,
जब उसे गैर की बाहों में पाता है।

दिल जो ये चोट खाता है,
प्यार से विश्वास उठ जाता है,
पर क्या करे इस एकतरफे प्यार में भी,
वो खुब मजे पाता है...........।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

क्यूकी बाप भी कभी बेटा था ......संतोष कुमार "प्यासा"


एक जमाना था जब लड़के अपने घर के बड़े बुजुर्गों का कहना सम्मान करते थे उनका कहा मानते थे ! कोई अपने पिता से आंख मिलाकर बात भी नहीं करता था ! उस समय कोई अपने पिता के सामने कुर्सी या पलंग पर भी नहीं बैठता था ! तब प्यार जैसी बात को अपने बड़े बुजुर्गों से बंटाना "बिल्ली के गले में घंटी बाधने" जैसा था ! प्रेम-प्रसंग तो सदियों से चला आ रहा है ! लेकिन पहले के प्रेम में मर्यादा थी ! उस समय यदि किसी के पिता को पता चल जाता था की उसका बेटा या बेटी किसी से नैन लड़ाते( प्रेम करते) घूम रहे है तो समझों की उस लड़के या लड़की की शामत आ गई !
 पिता गुस्से में लाल पीला हो जाता था ! तरह तरह की बातें उसके दिमाग में गूंजने लगती थी ! मन ही मन सोंचता था "समाज में मेरी कितनी इज्ज़त है, नालायक की वजह से अब सर उठा कर भी नहीं चल सकता, सीधे मुह जो लोग बात करते डरते थे अब वही मुह पर हजारों बातें सुनाएगे, मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दिया इसने" कही ऐसा करने वाली लड़की होती तो उसके हाँथ पैर तोड़ दिए जाते थे, घर से निकलना बंद कर दिया जाता था ! साथ ही लड़के या लड़की को खुद शर्म महसूस होती थी ! लड़कियों का तो गली मोहल्ले से निकलना मुश्किल हो जाता था ! लोफ़र पार्टी तरह तरह की फब्ती कसते थे ! कहते थे " देखो तो इशक लड़ाती फिरती है, जवानी संभाले नहीं संभलती...." कभी कभी तो बेचारी को घर की इज्ज़त और कायली के कारण आत्महत्या भी करनी पड़ जाती थी ! इसके विपरीत कुछ लड़के अपने प्यार को बुजुर्गों से बाटना बुरा नहीं समझते थे ! ऐसे विचार के युवकों को उस समय बद्त्मीच और संस्कारहीन समझा जाता था ! यहाँ तक की उस समय फ़िल्मी गाना गाना भी असभ्य समझा जाता था ! समय के साथ बाप और बेटों के विचारों में बदलाव आया ! अब बेटा अपने प्यार के बारे में अपने पिता से आसानी से कहता है और पिता सरलता से सुनता है ! समय ने बेटियों को भी इतना सक्षम बना दिया है की वे भी अब अपने मन की बात अपने पिता से बेहिचक कह सकती है ! वर्तमान समय में पिताओं की भूमिका "शादी के कार्ड छपवाने और मैरिज हाल बुक करने तक ही रह गई है !" अब बेटा सीधे एक लड़के को घर में लाता है और कहता है "डैड मै इससे प्यार करता हूँ !" यह सुनकर अब कोई पिता गुस्से से लाल पीला नहीं होता और न ही वह समाज के बारे में सोंचता है ! क्युकी उसे पता है की आज हर दूसरे घर में यही हो रहा है ! पिता मन ही मन सोंचता है "अच्छा हुआ कम से कम एक जिम्मेवारी तो ख़त्म हुई !अब माता पिताओं को "बहु और दामाद" ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती ! शायद ऐसा समय के बदलाव के कारण हुआ है ! समय ने पिता को एहसास दिला दिया है की "बाप भी कभी बेटा था" ! पिता भी सोंच लेता है की एक समय था जब हमने भी किसी से प्यार किया था, लेकिन वह समय स्थिति ऐसी नहीं थी की हम अपने प्यार के बारे में किसीको बता पाते ! आज के पिताओं ने अपने पिताओं की गलती को दोहराना बंद कर दिया है ! इस व्यवस्था में अच्छाई और बुराई दोनों है !
अच्छाई यह की, अब माता पिता बच्चों की भावनाओ को समझने लगे है, उनकी इच्छाओं और भावनाओं को दबाना बंद कर दिया है ! जिससे बेटा या बेटी "कुंठा उन्माद तनाव और आत्महत्या जैसी बुराई से बचे रहते है ! पहले प्यार के बारे में दोनों पक्षों के परिवारों को पता होने के बावजूद शादी होना संभव न था ! जिससे जवानी के जोश और प्यार के जूनून में बच्चे आत्महत्या कर लेते थे !

बुराई यह की, पिताओ के द्वारा प्राप्त इस मानसिक स्वतंत्रता का आज के युवा गलत फायदा उठा रहे है ! पहले के युवा घर की इज्ज़त और सामाजिक भय के कारण अपने जीवनसाथी का चुनाव बड़ी सावधानी से करते थे ! लेकिन आज के नवयुवाओं ने प्यार को खेल समझ लिया है ! बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बनाना एक शौक समझ लिया है ! घर का दबाव न होने के करण आज के युवा गैर्जिम्मेवारी ढंग से अपने साथी कचुनव करते है !फलत: चार दिन बाद प्रेमप्रसंग टूट (ब्रेकउप) जाता है ! बेतिओं को भी घर का डर नहीं रह गया ! ऐसी दशा में कभी कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जो शादी के बाद होनी चाहिए ! बुजुर्गों ने बच्चो को मन की बात कहने की छूट क्या दे दी ! युवावर्ग तो बड़ो का सम्मान करना ही भूल गए ! घर की मन मर्यादा की कोई चिंता नहीं शायद इसी वजह से आज तलाक ज्यादा हो रहे है ! इस स्वतंत्रता का आज के युवा इस तरह लाभ उठा रहे है की "प्रेम और प्रेमियों का व्याकरण" ही बदल गया ! घर, समाज और मान अपमान का डर न होने के कारण कुछ युवा बलात्कार जैसे पाप कर डालते है ! जो इस स्वतंत्रता को शर्मसार कर डालता है ! बाप तो यह समझ गया की "वो भी कभी बेटा था" पर शायद बेटा यह भूल गया है की "वह भी कभी बाप बनेगा !

शिक्षा अनिवार्यता का सच ... ..... ( शिव शंकर)

भारत में ६ से १४ साल तक के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भले ही लागू हो चुका हो, लेकिन इस आयु वर्ग की लडकियों में से ५० प्रतिशत तो हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाति है। जाहिर है,इस तरह से देश की आधि लडकियां कानून से बेदखल होती रहेगी। यह आकडा मोटे तैर पर दो सवाल पैदा करते है। पहला यह कि इस आयु वर्ग के १९२ मिलियन बच्चों में से आधी लडकिया स्कुलो से ड्राप-आउट क्यो हो जाती है ? दूसरा यह है कि इस आयु वर्ग के आधी लडकिया अगर स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाती है तो एक बडे परिद्श्य में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का क्या अर्थ रह जाता है ? इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन(१९९६) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया भर में ३३ मिलियन लडकिया काम पर जाती है,जबकि काम पर जाने वाले लडको की संख्या ४१ मिलियन है। लेकिन इन आकडो मे पूरे समय घरेलू काम काजो मे जूटी रहने वाली लडकियो कि संख्या नहीं जोडी गई थी ।

इसी तरह नेशनल कमीशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ चिल्ड्रेन्स राइटस की एक रिपोर्ट में भी बताया गया है कि भारत मे ६ से १४ साल तक कि अधिकतर लडकियो को हर रोज औसतन ८ घंटे से भी अधिक समय केवल अपने घर के छोटे बच्चो को संभालने मे बिताना पडता है। सरकारी आकडो मे भी दर्शाया गया है कि ६ से १० साल तक कि २५ प्रतिशत और १० से १३ साल तक की ५० प्रतिशत (ठीक दूगनी) से भी अधिक लडकियो को हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाना पडता है। एक सरकारी सर्वेक्षण (२००८) के दौरान ४२ प्रतिशत लडकियों ने बताया कि वह स्कुल इस लिए छोड देती है कि क्योंकि उनके माता-पिता उन्हे घर संभालने और छोटे भाई बहनों की देखभाल करने के लिए कहते है,आखिरी जनगणना के मुताबिक ,२२.९१ करोड महिलाएं निरक्षर है,एशिया में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। एन्युअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (२००८) के मुताबिक ,शहरी और ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः ५१.१ प्रतिशत और ६८.४ प्रतिशत दर्ज हैं। क्राई के एक रिपोर्ट के अनुसार,५ से ९ साल तक की ५३ प्रतिशत भारतीय लडकिया पढना नहीं जानती, इनमे से अधिकतर रोटी के चक्कर मे घर या बाहर काम करती है। ग्रामीण इलाकों में १५ प्रतिशत लडकियों की शादी १३ साल की उम्र में ही कर दी जाति है। इनमें से तकरीबन ५२ प्रतिशत लडकियां १५ से १९ साल की उम्र मे गर्भवती हो जाती है। इन कम उम्र की लडकियों से ७३ प्रतिशत (सबसे अधिक) बच्चे पैदा होते है। फिलहाल इन बच्चो में ६७ प्रतिशत (आधे से अधिक) कुपोषण के शिकार है। लडकियों के लिए सरकार भले हि सशक्तिकरण के लिए शिक्षा जैसे नारे देना जितना आसान है,लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही कठीन।

दूसरी तरफ कानून मे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कह देने भर से अधिकार नहीं मिल जाएगा, बलिक यह भी देखना होगा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के अनुकूल ।खास तौर से लडकियो के लिए ,भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं ।आज ६ से १४ साल तक के तकरीबन २० करोड भारतीय बच्चो की प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्य स्कूल ,कमरे , प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवतायुक्त सुविधाएं नहीं है, देश की ४० प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुडा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ४६ प्रतिशत सरकारी स्कूलो में लडकियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। मुख्य तौर पर सामाजिक धारणाओं,घरेलू कामकाजो और प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि व्यवस्था के अभाव के चलते एक अजीब सी विडंबना हमारे सामने हैकि देश की आधी लडकियों के पास अधिकार तो हैं,मगर बगैर शिक्षा के । इसलिए इससे जुडे अधिकारो के दायरे में लडकियों की शिक्षा को केंद्रीय महत्व देने की जरुरत है, माना कि यह लडकिया अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती है। लेकिन अगर यह लडकियां केवल इन्ही कामों में रात- दिन उलझी रहती है ,भारी शारीरिक और मानसिक दबावों के बीच जीती हैं,पढाई के लिए थोडा सा समय नहीं निकाल पाती हैं और एक स्थिति के बाद स्कुल से ड्राप्आउट हो जाती है तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य के साथ खिलवाड ही हुआ। आज समय की मांग है कि लडकियों के पिछडेपन को उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद परिस्थतियो के रुप में देखा जाए। अगर लडकी है तो उसे ऐसे ही रहना चाहिए ,जैसे बातें उनके विकाश के रास्ते में बाधा बनती हैं। लडकियों की अलग पहचान बनाने के लिए जरुरी है कि उनकी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे कारणो की खोजबीन और भारतीय शिक्षा पद्दती ,शिक्षकों की कार्यप्रणाली एवं पाठ्यक्रमों की पुनर्समीक्षा की जाए ,लडकियों की शिक्षा से जुडी हुई इन तमाम बाधाओं को सोचे- समझे और तोडे बगैर शिक्षा के अधिकार का बुनियादी मकसद पूरा नहीं हो सकता है ।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

सफर के साथ मैं...............neeshoo tiwari

सफर के साथ मैं
या फिर मेरे साथ सफर
कुछ ऐसा रिश्ता बन गया था
कब, कहाँ, और कैसे पहुँच जाना है
बताना मुश्किल था
ऐसे ही रास्तों पर कई जाने पहचाने चहरे मिलते
और
फिर वो यादें धुंधली चादर में कहीं खो जाती
मैं कभी जब सोचता हूँ इन लम्हों को तो
यादें खुद ब खुद आखों में उतर आती हैं
वो बस का छोटा सा सफर
अनजाने हम दोनों
चुपचाप अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे थे
वो मेरे सामने वाली सीट पर शांत बैठी थी
उसके चेहरा न जाने क्यूँ जाना पहचाना सा लगा
ऐसे में
हवा के एक झोंके ने
कुछ बाल उसके चेहरे पर बिखेरे थे
वो बार-बार
अपने हाथों से बालों को प्यार से हटाती थी
लेकिन कुछ पल बीतने के बाद
वो लटें उसके गालों को फिर से छेड़ जाया करती थी
और
उसके चेहरे पर हल्की सी परेशानी छोड़ जाया करती थी
वो कुछ शर्माती, लजाती हुई असहज महसूस करती थी
फिर
चुपके चुपके कनखियों से मेरी ओर देखती थी
मैं तो एक टक उसको निहारता ही रहा था
कुछ कहने और सुनने का समय,
हम दोनों के पास न था
बिन कहे और बिन सुने
जैसे सब बातें हो गयी थी
क्यूंकि
हमें पता था की ये मुलाकात
बस कुछ पल की है
और
फिर इस दुनिया की भीड़ में गुमनाम होकर
कहीं खो जाना है
लेकिन ऐसे ही अनजानी शक्लें
अजनबी मुलाकातें होती रहेगी
कभी तन्हाई में साथ दे जाया करेगी

प्रणय-कथा अब कौन कहेगा ? --(गीत)----डॉ. नागेश पांडेय "संजय"

तुमको तो जाना ही होगा,
लेकिन क्या यह भी सोचा है -
दर्द हमारा कौन सहेगा ?

तपते मरुथल में पुरवाई
के झोंके अब क्या आएँगे ?
रुँधे हुए कंठों से कोकिल
गीत मधुर अब क्या गाएँगे ?
तुमको तो गाना ही होगा,
लेकिन क्या यह भी सोचा है -
अब उस लय में कौन बहेगा ?

यह कैसा बसंत आया है ?
हरी दूब में आग लगा दी !
निंदियारे फूलों की खातिर
उफ्! काँटों की सेज बिछा दी !
इसको अपनाना ही होगा,
लेकिन क्या यह भी सोचा है -
आशाओं का महल ढहेगा।

एक बार फिर छला भँवर ने,
डूब गई मदमाती नैया।
एक बार फिर बाज समय का
लील गया है नेह चिरैया।
मन को समझाना ही होगा,
लेकिन क्या यह भी सोचा है -
प्रणय-कथा अब कौन कहेगा ?

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

सफर के साथ मैं...............neeshoo tiwari

सफर के साथ मैं
या फिर मेरे साथ सफर
कुछ ऐसा रिश्ता बन गया था
कब, कहाँ, और कैसे पहुँच जाना है
बताना मुश्किल था
ऐसे ही रास्तों पर कई जाने पहचाने चहरे मिलते
और
फिर वो यादें धुंधली चादर में कहीं खो जाती
मैं कभी जब सोचता हूँ इन लम्हों को तो
यादें खुद ब खुद आखों में उतर आती हैं
वो बस का छोटा सा सफर
अनजाने हम दोनों
चुपचाप अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जा रहे थे
वो मेरे सामने वाली सीट पर शांत बैठी थी
उसके चेहरा न जाने क्यूँ जाना पहचाना सा लगा
ऐसे में
हवा के एक झोंके ने
कुछ बाल उसके चेहरे पर बिखेरे थे
वो बार-बार
अपने हाथों से बालों को प्यार से हटाती थी
लेकिन कुछ पल बीतने के बाद
वो लटें उसके गालों को फिर से छेड़ जाया करती थी
और
उसके चेहरे पर हल्की सी परेशानी छोड़ जाया करती थी
वो कुछ शर्माती, लजाती हुई असहज महसूस करती थी
फिर
चुपके चुपके कनखियों से मेरी ओर देखती थी
मैं तो एक टक उसको निहारता ही रहा था
कुछ कहने और सुनने का समय,
हम दोनों के पास न था
बिन कहे और बिन सुने
जैसे सब बातें हो गयी थी
क्यूंकि
हमें पता था की ये मुलाकात
बस कुछ पल की है
और
फिर इस दुनिया की भीड़ में गुमनाम होकर
कहीं खो जाना है
लेकिन ऐसे ही अनजानी शक्लें
अजनबी मुलाकातें होती रहेगी
कभी तन्हाई में साथ दे जाया करेगी

अंतिम विदाई-----(कविता) -- मीना मौर्या

धरा पर अवतिरत हुआ
लिपटा मोह माया में भाई
आज खुशी मना लो
कल होगी अंतिम विदाई ।

खुशियों का बसेरा छोटा
जीवन पहाड़ व रवाई
सुख-समृद्धि धन दौलत
खोयेगा बचेगा एक पाई ।

मानव मन परिवर्तन शील
स्थिर टिक नहीं पाई
वर्तमान तेरा अच्छा है
मत सोच भविष्य होगा भाई ।

अकेला चिराग देगा रोशनी
संसार अंधेरा कुआ राही
चिकने डगर पर गड्ढे हैं
शूल अनगिनत न देत दिखाई ।

टुक-टुक मत देख तस्वीर
सामने बुढापा जीवन बनी दवाई
शुरुआत तो अच्छी थी
अन्त बड़ा ही दुःखदाई।।

इन्द्र धनुष रंग जीवन
सब रंग न देत दिखाई
सजीला तन बना लचीला
सास लेना दुःखदाई ।

वास्तविकता विपरित इसके है
मानव मन आये चतुराई
स्वयं संसार में नाम कर
इतिहास बना ले अंतिम विदाई । ।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

चांदनी को निखरते हुए... {गजल} सन्तोष कुमार "प्यासा"



देखा है मैंने इश्क में ज़िन्दगी को संवरते हुए
चाँद की आरजू में चांदनी को निखरते हुए
इक लम्हे में सिमट सी गई है ज़िन्दगी मेरी
महसूस किया है मैंने वक्त को ठहरते हुए
डर लगने लगा है अब तो, सपनो को सजाने में भी
जब से  देखा है हंसी ख्वाबों को बिखरते हुए
अब तो सामना भी हो जाये तो वो मुह फिर लेते हैं अपना
पहले तो बिछा देते थे नजरो को अपनी, जब हम निकलते थे
उनके रविस से गुजरते हुए...

(रविस = (सुन्दर) राह)

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

आ जाओ माँ.....(सत्यम शिवम)

स्वर मेरा अब दबने लगा है,
कंठ से राग ना फूटे,
अंतरमन में ज्योत जला दो,
कही ये आश ना टूटे।
तु प्रकाशित ज्ञान का सूरज,
मै हूँ अज्ञानता का तिमीर,
ज्ञानप्रदाता,विद्यादेही तु,
मै बस इक तुच्छ बूँद सा नीर।

विणावादिनी,हँसवाहिनी!
तुझसे है मेरा नाता,
बिना साज,संगीत बिना भी,
हर दम मै ये गाता।

तेरा पुत्र अहम् में माता,
भूल गया है स्नेह तुम्हारा,
भूल गया है ज्ञान,विद्या,
धन लोभ से अब है हारा।

आ जाओ माँ आश ना टूटे,
दिल के तार ना रुठे,
कही तुम बिन माँ तड़प तड़प के,
प्राण का डोर ना छुटे।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

मेरी इच्छा के बन दीप.........(सत्यम शिवम)

मेरी इच्छा के बन दीप,
हर पल,हर क्षण तुम जलते रहो,
निशदिन प्रगति के पथ पर,
अनवरत तुम चलते रहो।
इतनी शक्ति दे ईश्वर,
एक दिन जाओ दुनिया को जीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

सारी खुशीयाँ कदमों को चूमे,
जीवन में हर पल आनंद झूमे।

कभी भी ना तुम रहो उदास,
ईश्वर में रखो सदा विश्वास।

बुरे दिनों में तुम्हे राह दिखाए,
मेरी मुस्कुराहटों का हर गीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

आकांक्षाओं को मेरे दो नया स्वरुप,
आती जाती रहती है,
जीवन में छावँ धूप।

इक नया आसमां बनाओ,
इक नई धरती का ख्वाब सजाओ।

सूरज सा दमको क्षीतिज पर हर दिन,
बनो दुखियारों के तुम मीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

शाश्वत सत्य ज्ञान को सीखो,
विकास के इतिहास को लिखो,
महापुरुष सी छवि हो तुममे,
हो तेज,सत्य,बल और विज्ञान।

स्वर्णाक्षरों में हो अंकित जो,
प्रेम सुधा से मोहित हर प्रीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

मेरा बचपन,मेरी जवानी,
तुममे देखु अपनी बीती कहानी,
हर ख्वाब जो था मेरे जीवन में अधूरा,
तुम कर दो सब को पूरा पूरा।

संवेदना और भावना के मोती,
चुन लो सागर से भावों का सीप।
मेरी इच्छा के बन दीप।

जब हो मेरे जीवन का अवसान,
साँस थमे और निकलने को हो प्राण,
मुझमे आत्म रुप दीप तु जल,
मन के तम को तु दूर कर।

प्रज्जवलित मुझमे तु चिर काल से,
चिर काल तक निभाना हर रीत।
मेरी इच्छा के बन दीप।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

नव प्रेरणा {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"


क्या धरा, क्या व्योम
नव-प्रेरणा देता प्रकृति का रोम-रोम
प्रभा की बेला देती
जीवन में नव उमंग भर
परसेवा को प्रेरित करते तरुवर
प्रिय के वियोग में जब
प्रीत-गीत छेड़ते विहाग
स्पंदित हो उठता ह्रदय
छट जाते जन्मो के मर्म विषाद
स्वेत श्याम रूप धर
नीलाम्ब में जब बदल इठ्लाएं
अमृत बूँद गिरे धरा पर
मन-मानस पुलकित हो जाए...

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पोर्टब्लेयर में कवि सम्मेलन

हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्टब्लेयर द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर 25 जनवरी को कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस अवसर पर दक्षिण अंडमान के उप मंडलीय मजिस्ट्रेट श्री राजीव सिंह परिहार मुख्य अतिथि थे और कार्यक्रम की अध्यक्षता चर्चित युवा साहित्यकार और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने की. दूरदर्शन केंद्र पोर्टब्लेयर के सहायक निदेशक श्री जी0 साजन कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे. कार्यक्रम का शुभारम्भ द्वीप प्रज्वलन द्वारा हुआ.

इस अवसर पर द्वीप समूह के तमाम कवियों ने अपनी कविताओं से शमां बांधा, वहीँ तमाम नवोदित कवियों को भी अवसर दिया गया. एक तरफ देश-भक्ति की लहर बही, वहीँ समाज में फ़ैल रहे भ्रष्टाचार, महंगाई और अन्य बुराइयाँ भी कविताओं का विषय बनीं. कविवर श्रीनिवास शर्मा ने देश-भक्ति भरी कविता और द्वीपों के इतिहास को छंदबद्ध करते कवि सम्मलेन का आगाज किया. जगदीश नारायण राय ने संसद की स्थिति को शब्दों में ढलकर लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया. जयबहादुर शर्मा ने महंगाई को इंगित किया तो उभरते हुए कवि ब्रजेश तिवारी ने गणतंत्र की महिमा गाई. डाॅ0 एम0 अयया राजू ने आज की राजनैतिक व्यवस्था पर कविता के माध्यम से गहरी चोट की तो डाॅ0 रामकृपाल तिवारी ने यह सुनकर सबको मंत्रनुग्ध कर दिया कि नेताओं के चलते 'तंत्र' ही बचा और 'गण' गायब हो गया. श्रीमती डी0 एम0 सावित्री ने कविताओं के सौन्दर्य बोध को उकेरा तो डाॅ0 व्यासमणि त्रिपाठी ने ग़ज़लों से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया. अन्य कवियों में संत प्रसाद राय, अनिरूद्ध त्रिपाठी, बी0 के0 मिश्र, राजीव कुमार तिवारी, सदानंद राय, एस0 के0 सिंह, रामसिद्ध शर्मा, रामसेवक प्रसाद, परशुराम सिंह, डाॅ0 मंजू नायर एवं श्रीमती रागिनी राय ने अपने काव्य पाठ द्वारा काव्य संध्या को यादगार शाम बना दिया। मुख्य अतिथि श्री राजीव सिंह परिहार ने भी हिन्दी कविता की आस्वादन प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए स्वरचित कविताओं का पाठ किया।

कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए चर्चित युवा साहित्यकार और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने सामाजिक परिवर्तन में कविता की क्रांतिकारी भूमिका की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। आज के लेखन में राष्ट्रीय चेतना की कमी और राष्ट्रीयता के विलुप्त होने की प्रवृत्ति के भाव पर रचनाकारों को सचेत करते हुए उन्होंने कविता को प्रभावशाली बनाने पर जोर दिया। श्री यादव ने जोर देकर कहा कि कविता स्वयं की व्याख्या भी करती है एवं बहुत कुछ अनकहा भी छोड़ देती है। इस अनकहे को ढूँढ़ने की अभिलाषा ही एक कवि-मन को अन्य से अलग करती है। ऐसे में साहित्यकारों और कवियों का समाज के प्रति दायित्व और भी बढ़ जाता है. उन्होंने परिषद द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन की सराहना करते हुए कहा कि मुख्यभूमि से कटे होने के बावजूद भी यहाँ जिस तरह हिंदी सम्बन्धी गतिविधियाँ चलती रहती हैं, वह प्रशंसनीय है.

कार्यक्रम के आरम्भ में परिषद के अध्यक्ष श्री आर0 पी0 सिंह ने उपस्थिति का स्वागत किया, जबकि प्रधान सचिव श्री बी0 के0 मिश्र ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कवि सम्मेलन का संयोजक एवं संचालन हिंदी साहित्य कला परिषद् के साहित्य सचिव डाॅ0 व्यासमणि त्रिपाठी ने किया।

डाॅ0 व्यासमणि त्रिपाठी
साहित्य सचिव- हिंदी साहित्य कला परिषद्, पोर्टब्लेयर-744101
अंडमान और निकोबार द्वीप समूह.