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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

कविता प्रतियोगिता में तृतीय स्थान प्राप्त --- "कितने इन्द्रधनुष" [कविता]---डा. श्याम गुप्त

पत्थर पर सिर पटक-पटक कर,
धुन्ध धुन्ध जल होजाता है ।

जब रवि रश्मि विविध रन्गों के,
ताने-बाने बुन देतीं हैं ।
किसी जलपरी के आंचल सा,
इन्द्रधनुष शोभा बिखराता॥ १।



पन्ख लगा उडता शीतल जल,
आसमान पर छाजाता है।

स्वर्ण परी सी रवि की किरणें,
देह-दीप्ति जब बिखरातीं हैं;
सप्त वर्ण घूंघट से छन कर,
इन्द्रधनुष नभ पर छाजाता॥२।


दीपशिखा सम्मुख प्रेयसि का,
कर्णफ़ूल शोभा पाता है।

दीप रश्मियां झिलमिल-झिलमिल,
कर्णफ़ूल सन्ग नर्तन करतीं।
विविध रंग के रत्नहार सा,
इन्द्रधनुष आनन महकाता॥३।


कानों में आकर के प्रियतम,
वह सुमधुर स्वर कह जाता है।

प्रेम-प्रीति
विरह अनल सी,
तन-मन में दीपित होजाती।
नयनों मे सुन्दर सपनों का,
इन्द्रधनुष आकर बस जाता॥४।


मादक नयनों का आकर्षण,
तन-मन बेवश कर जाता है।

कितने रूप-रंग के पन्छी,
मन बगिया में कुन्जन करते।
हर्षित
ह्रदय पटल पर,अनुपम-
मादक इन्द्र- धनुष सज जाता॥५।

भक्ति-प्रीति का नाद अनाहत,
ह्रद-तन्त्री में रच जाता है।

सकल ज्योति की ज्योतिदीप्ति,वह,
परमतत्व मन- ज्योति जलाता ।
आत्म-तत्व में परम-सुरभि का,
इन्द्र धनुष
झंकृत हो जाता ॥६।