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रविवार, 31 मई 2009

कैसा अपना बचपन था [ एक कविता ]

आईस पाइस का खेल खेलते ,
मिट्टी के घर बनाते थे,
फिर बिगाड़ देते थे ,
मां से थोड़े समान मांगते
फिर एक चूल्हे पर उसे पकाते थे,
बनता क्या कुछ याद नहीं,
फिर भी अच्छा लगता था ,

नदियों में किनारे पर जा जाकर,
भीगते और सब को भीगाते थे,
कंकड़ ,और शीपी को लेकर,
उसकी एक माला बनाते थे,
बंदरों की तरह उछलकर ,
छोटे पेड़ो पर चढ़जाते थे,
कभी बात बात पर गुस्सा होते ,
रोते , चिढ़ते , मारते ,
फिर भी एक साथ हो जाते थे,
ऐसा अपना बचपन था.

झूठी कहानी भूतों वाली से,
अपने साथियों को डराते थे,
स्कूल से झूठा बहाना बनाकर ,
खेतों में हम छिप जाते थे,
मम्मी के मार से बचने को ,
न जाने क्या क्या जतन बताते थे,

दादी से अपने हम झूठी बाते मनवाते थे,
कभी सबेरे उठकर रोते,
तो कभी सब को हसाते थे,
ऐसा ही अपना बचपन था ,

खेतों में लोट पोट कर ,
फसलों को तोड़ तोड़कर ,
गायों को खिलाते थे,
सुबह सुबह दूध को पीकर,
अपनी मूछ बनाते थे ,
और शीशे में देख खुद को ,
हम भी बड़े बन जाते थे ,
कुछ ऐसा अपना बचपन था ।

आज सभी बीती बातें ,
एक कोने में धुंधली हैं ,
सोच सोच कर अच्छा लगता है ,
कैसा अपना बचपन था ।

शनिवार, 30 मई 2009

अभी भी ...... (कविता) Prakash Govind

अभी भी मन को मोह लेते हैं
फूल, पत्ते और मौसम
अभी भी कोशिश करता हूँ उनसे संवाद करने की
अभी भी मुग्ध कर देती है हैं खिली हुयी मानव छवियाँ
और मैं गुनगुनी झील में उतराने लगता हूँ
अभी भी आते हैं बाल्यवस्था के सपने
और मैं नदी में नाव सा बहने लगता हूँ
अभी भी भौंरे व चिडियों का संगीत
बज उठता है धीरे से कानों में
और मैं सितार सा झनझना जाता हूँ
अभी भी उपन्यासों के के पात्रों,
फिल्मी चरित्रों का दर्द
उनका घायल एकाकीपन
मुझे देर तक उदास कर जाता है
अभी भी इसका उसका जाने किस किसका
क्रूर और फूहड़ सुख
मेरे अंतर्मन को क्रोध से उत्तेजित कर देता है
अभी भी अक्सर मुझे आईना फटकार लगा देता है
अभी भी मौका मिलते ही ठहाके लगाना नहीं भूलता
यारों क्या अजीब बात है
मालूम होता है कि इस उम्र में भी
मैं जिन्दा हूँ औरों से थोडा ज्यादा !!!!!

शुक्रवार, 29 मई 2009

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट क संरक्षण

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

-अजी सुनते हो.......! सुबह-सुबह चाय के कप से भी पहले श्रीमती जी की मधुर वाणी हमारे कानों में पडते ही हम समझ जाते हैं कि आज जरूर कोई नई रामायण में महाभारत होने होने वाली है। आप सोचते होगें कि अजीब प्राणी है । भला रामायण में महाभारत की क्या तुक है। दोनों का एक दूसरे के साथ भला क्या तालमेल....?लेकिन बन्धु ऐसा ही होता है शादी-शुदा जिन्दगी में सब कुछ संभव है।जब मेरे जैसे भले जीव के साथ हमारी श्रीमती जी का निर्वाह संभव हो सकता है तो समझ लीजिऐ कि रामायण में महाभारत भी हो सकती है। श्रीमती की वाणी से वैसे ही हमारे कान ही क्या रौंगटे तक खडे हो जाते हैं। हम तपाक से बोले -‘-बेगम तुम्हें तो मालूम ही है कि हम जब भी सुनते हैं तो केवल तुम्हारी ही सुनते हैं वर्ना किसी की क्या मजाल कि हमें कूछ भी सुना सके.........?’--सुनोगे क्यॊं नहीं भला......? हजार बार सुनना पडेगा..... अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते.......!_-भागवान हम तो पहले ही तु्म्हारे समने हथियार डाले खडे हैं फिर भला किस बात का झगडा......? -झगडा कर भी कैसे सकते हैं आप......?-क्यों झगडा करने पर क्या सरकार ने टेक्स लगा दिया है या फिर संविधन में कोई संशोधन लागू हो गय है जिससे मर्दों की बोलती बन्द हो गई है...?-ये पढिये अखबार... सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने कहा है कि यदि शांति चहते हो तो धर्म पत्नी की बात माननी होगी....!-इसमें भला नई बात क्या हुई......? हर कोई समझदार पुरुष जानता है कि गृह शान्ती के लिऐ गृहमंत्राणी को प्रसन्न रखन जरूरी है । समझदार मर्द की बस यही तो एक मात्र मजबूरी है । और पत्नी है कि पुरुष की समझदरी को कमजोरी समझकर भुनाने लगती है .।शादी के समय पंडित जी भी बेचारे पुरुष को सात बचनों में इस तरह बांध देते हैं कि यदि पुरुष को वे वचन याद रह जाऐं तो आधा तो बेचारा वैसे ही घुट-घुट कर बीमार हो जाऐ । आजादी से सांसे लेने पर भी बेचारे के पहरे लग जाते है।इसीलिऐ हमारे जैसे बुद्धीमान लोग ऐसी दुर्घटनाओं को याद ही नहीं रखते। शायद इसीलिऐ अभी तक श्रीमती के साथ रहते हुऐ भी सभी बीमरियों से मुक्त हैं और शत-प्रतिशत स्वस्थ्य हैं ।अब आप ही बताऐं कि भला सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को सरे आम ऐसी नाजुक बाते कहने कि क्या जरूरत थी....? उन्हें मालूम होना चहिऐ कि आजकल ऐसी खबरें महिलओं तक जल्दी पहुंचती है ।क्योंकि साक्षारता का प्रतिशत भी तो काफी बढ गया है। वसे भी सुप्रीमो को भल किसी कोर्ट के संरक्षण की क्या जरुरत ......संरक्षण तो हम जैसे निरीह प्राणियों को चाहिऐ........?
अब आगे -आगे देखिये होता है ,
न्याय उनका हो गया रोता है क्या ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल - " भारतेन्दु हरिशचंद्र " [ आलेख ]

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हुआ। इसको हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है, जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। इस काल में राष्ट्रीय भावना का भी विकास हुआ। इसके लिए श्रृंगारी ब्रजभाषा की अपेक्षा खड़ी बोली उपयुक्त समझी गई। समय की प्रगति के साथ गद्य और पद्य दोनों रूपों में खड़ी बोली का पर्याप्त विकास हुआ। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा बाबू अयोध्या प्रसाद खत्रीने खड़ी बोली के दोनों रूपों को सुधारने में महान प्रयत्न किया।

इस काल के आरंभ में राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, श्रीधर पाठक, रामचंद्र शुक्ल आदि ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की। इनके उपरांत भारतेंदु जी ने गद्य का समुचित विकास किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसी गद्य को प्रांजल रूप प्रदान किया। इसकी सत्प्रेरणाओं से अन्य लेखकों और कवियों ने भी अनेक भांति की काव्य रचना की। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, नाथूराम शर्मा शंकर, ला. भगवान दीन, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, गोपाल शरण सिंह, माखन लाल चतुर्वेदी, अनूप शर्मा, रामकुमार वर्मा, श्याम नारायण पांडेय, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रभाव से हिंदी-काव्य में भी स्वच्छंद (अतुकांत) छंदों का प्रचलन हुआ।

हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है ।भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ ।भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया । हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया । भारतेन्दु जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। भारतेन्दु जी ने 'हरिश्चंद्र पत्रिका', 'कविवचन सुधा' और 'बाल विबोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। भारतेन्दु जी एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। भारतेन्दु जी ने मात्र ३४ वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की।

उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया-

लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।

भारतेंदु जी ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सुंदर चित्रण किया है।
देख्यो एक बारहूं न नैन भरि तोहि याते
जौन जौन लोक जैहें तही पछतायगी।
बिना प्रान प्यारे भए दरसे तिहारे हाय,
देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी।
भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग के मानने वाले थे।वे कामना करते हैं -
बोल्यों करै नूपुर स्त्रीननि के निकट सदा
पद तल मांहि मन मेरी बिहरयौ करै।
बाज्यौ करै बंसी धुनि पूरि रोम-रोम,
मुख मन मुस्कानि मंद मनही हास्यौ करै।
भारतेंदु जी के काव्य में राष्ट्र-प्रेम भी भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है ।
भारत के भुज बल जग रच्छित,
भारत विद्या लहि जग सिच्छित।
भारत तेज जगत विस्तारा,
भारत भय कंपिथ संसारा।
भारतेन्दु जी की प्रमुख कृतियां - भारत दुर्दशा ,अंधेर नगरी, प्रेम माधुरी ,राग-संग्रह ,विनय प्रेम पचासा ,प्रेम फुलवारी इत्यादि हैं ।

क्या कहूँ

क्या कहूँ
मेरे प्यार मे ना रही होगी कशिश
जो वो करीब आ ना सके
हम रोते रहे तमाम उम्र
वो इक अश्क बहा ना सके
पत्थर की इबादत तो बहुत की
पर उसे पिघला ना सके
जो उन्हें भी दे सकूँ जीने के लिये
वो एहसास दिला ना सके
बहुत किये यत्न हमने
पर उनको करीब ला ना सके
पिला के जाम कर दो मदहोश मुझे
उस बेदर्दी की याद सता ना सके

गुरुवार, 28 मई 2009

गीत

गीत
***************

ये बिजली का कड़कना
आँख मिलना,
मिलके झुक जाना
ये नाज़ुक लब फड़कना
कह न पाना ,
यूँ ही रुक जाना
हया से सुर्ख कोमल गाल
काली ज़ुल्फ क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की
ज़ुबां को
आप चुप रहिऐ ।

ये तेरी नर्म नाज़ुक
अंगुलियों का छू जरा जाना
श्वांसें तेज हो जाना
पसीने से नहा जाना
हर एक आहट पे तेरा
चौंक जाना
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की
ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।

कदम तेरे यूँ उठना
छम से गिरना,
गिर के रुक जाना
कभी यूँ ही ठिठक जाना
कभी यूँ ही गुजर जाना
अजब सी कशमकश है
दिल की हालत
हाय क्या कहिये
समझते हई निगाहों की
ज़िबां को
आप चुप रहिये ।

मिलन पर दूर जना
सकपकाना कह नहीं पाना
बिछुडने पर सिसकना
रह न पाना ख्वाब में आना
तेरा हर बार मिलना
और बिछुडन
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की
ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।


डॉ.योगेन्द्र मणि

मेरी दीवानगी [ गज़ल ] - मुस्तकीम खान


नाम- मुस्तकीम खान
शिक्षा-स्नातक( बी.काम) , परास्नातक ( मास्टर आफ आर्ट एण्ड मास कम्युनिकेशन ) , माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय , नोएडा कैंपस,
जन्म- २९ मार्च १९८८ , आगरा , उत्तर प्रदेश ।
रूचि- गज़ल, गीत लेखन ,गायन ।
संपर्क- मुस्तफा क्वाटर्स , आगरा कैंट, आगरा ।
मो- ०९९९०८४०३३९ .




मेरी दीवानगी




मुझको किसी से नफरत नहीं है ,
इतना आवार हूँ कि फुर्सत नहीं है ।
प्यार की कुर्बानी गिना रहे हो,,
कहते क्यूँ नहीं कि हिम्मत नहीं है ।।

हुस्न के बाजार मे दिल का ये हाल है,
हीरा है फिर भी कोई कीमत नहीं है।
छुपाती हैं आँखें कई गम अपने अंदर,,
खुशी किसी चेहरे की हकीकत नहीं है।

कह तो दिया तुम दोस्त हो अच्छे,
वो और कैसे कहें कि मोहब्बत नहीं है ।

खामोश रात में तुम्हारी यादें

खामोश रात में तुम्हारी यादें,

हल्की सी आहट के साथ

दस्तक देती हैं,


बंद आखों से देखता हूँ तुमको,

इंतजार करते-करते परेशां

नहीं होता अब,

आदत हो गयी है तुमको देर से आने की,

कितनी बार तो शिकायत की थी तुम से ही,

पर

क्या तुमने कसी बात पर गौर किया ,

नहीं न ,

आखिर मैं क्यों तुमसे इतनी ,

उम्मीद करता हूँ ,

क्यों मैं विश्वास करता हूँ,

तुम पर,

जान पाता कुछ भी नहीं ,

पर

तुमसे ही सारी उम्मीदें जुड़ी हैं,

तन्हाई में,

उदासी में ,

जीवन के हर पल में,


खामोश दस्तक के साथ

आती हैं तुम्हारी यादें,

महसूस करता हूँ तुम्हारी खुशबू को,

तुम्हारे एहसास को,

तुम्हारे दिल की धड़कन का बढ़ना,

और

तुम्हारे चेहरे की शर्मीली लालिमा को,

महसूस करता हूँ-

तुम्हारा स्पर्श,

तुम्हारी गर्म सांसे,

उस पर तुम्हारी खामोश

और आगोश में करने वाली मध्धम बयार को।

खामोश रात में बंद पलकों से,

इंतजार करता हूँ तुम्हारी इन यादों को...........

बुधवार, 27 मई 2009

नेहरु चाचा आओ ना (पुण्य-तिथि 27 मई पर)

नेहरु चाचा आओ ना
दुनिया को समझाओ ना
बच्चे कितने प्यारे होते
कोई उन्हे सताये ना

नेहरु चाचा आओ ना
मधुमुस्कान दिखाओ ना
तुम गुलाब कि खुशबू हो
बचपन को महकाओ ना

नेहरु चाचा आओ ना
उजियारा फैलाओ ना
देशभक्त हों, पढें लिखें
ऐसा पाठ पढाओ ना

नेहरु चाचा आओ ना !!

क्या पाया - कविता ( निर्मला कपिला )

क्या पाया
ये कैसा शँख नाद
ये कैसा निनाद
नारी मुक्ति का !
उसे पाना है
अपना स्वाभिमान
उसे मुक्त होना है
पुरुष की वर्जनाओ़ से
पर मुक्ति मिली क्या
स्वाभिमान पाया क्या
हाँ मुक्ति मिली
बँधनों से
मर्यादायों से
सारलय से
कर्तव्य से
सहनशीलता से
सहिष्णुता से
सृ्ष्टि सृ्जन के
कर्तव्यबोध से
स्नेहिल भावनाँओं से
मगर पाया क्या
स्वाभिमान या अभिमान
गर्व या दर्प
जीत या हार
सम्मान या अपमान
इस पर हो विचार
क्यों कि
कुछ गुमराह बेटियाँ
भावोतिरेक मे
अपने आवेश मे
दुर्योधनो की भीड मे
खुद नँगा नाच
दिखा रही हैँ
मदिरोन्मुक्त
जीवन को
धूयें मे उडा रही हैं
पारिवारिक मर्यादा
भुला रही हैं
देवालय से मदिरालय का सफर
क्या यही है तेरी उडान
डृ्ग्स देह व्यापार
अभद्रता खलनायिका
क्या यही है तेरी पह्चान
क्या तेरी संपदायें
पुरुष पर लुटाने को हैँ
क्या तेरा लक्ष्य
केवल उसे लुभाने मे है
उठ उन षडयँत्रकारियों को पहचान
जो नहीं चाहते
समाज मे हो तेरा सम्मान
बस अब अपनी गरिमा को पहचान
और पा ले अपना स्वाभिमान
बँद कर ये शँखनाद
बँद कर ये निनाद्


भक्तिकाल के महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी - आलेख [नीशू तिवारी]

मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के कवि हैं । हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 वि0 से 1700 वि0 तक माना जाता है। यह युग भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है।हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं : ज्ञानाश्रयी शाखा, प्रेमाश्रयी शाखा, कृष्णाश्रयी शाखा और रामाश्रयी शाखा, प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती हैं, शेष दोनों सगुण मत के। जायसी उच्चकोटि के सरल और उदार सूफी कवि थे ।

जायसी का जन्म सन १५०० के आसपास का माना जाता है । जायसी का जन्म स्थल उत्तर प्रदेश का जायस नामक स्थान माना जाता है । जायसी का जीवन सामान्य रहा । खेती बारी से ही जीवन निर्वाह किया ।

जायसी की कई कृतियों में गुरू शिष्य की परंपरा का वर्णन मिलता है । इनकी कुल २१ कृतियों के उल्लेख प्रमुख रूप से मिलते हैं इनमें प्रमुख है -पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा । जायसी की कृति पद्मावत से बड़ी ख्याति प्राप्त की । इसमें पद्मावती की प्रेम-कथा का रोचक वर्णन हुआ है। रत्नसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

जायसी की मृत्यु १५५८ में हुई । भक्तिकाल के अन्य कविओं में तुलसीदास , सूरदास एवं कबीरदास रहे ।

मंगलवार, 26 मई 2009

इंसान में इंसानियत.....................

इंसान में इंसानियत सबसे ज़रूरी चीज़ है

इंसान वो जिसमें कहीं ,इंसानियत का बीज


मान प्रतिष्ठा पाकर अँधा होता जाता है इंसान

उसे पता क्या अनजाने ही बना जा रहा वो हैवान

मीठी बोली भूल गया हँसी ठिठोली भूल गया

मित्र कौन कैसे नाते सब हमजोली भूल गया

स्वार्थ साधना और खुशामद उसकी यही तमीज है

इंसान में .........................................................


जिस सीढ़ी ने उसे चढाया उस सीढ़ी को छोड़ दिया

जिन लोगों ने साथ निभाया उनसे मुंह को मोड़ लिया

पहन मुखौटा कोयल का कौए का सुर साध लिया

लोमड से चालाकी ली तोते का अंदाज़ लिया

ख़ुद को राजा मान लिया बाकी सभी कनीज़ है

इंसान में..............................................................


सब कर्मों का लेखा जोखा रखता है ऊपर वाला

अपने मद में घूम रहा है होकर के क्यूँ मतवाला

कितनों का अपमान किया है कितनों को मारा तूने

क्या पाया है क्या खोया है सपनों में गोया तूने

उसके घर में देर भले , अंधेर मेरे अज़ीज़ है

इंसान में.............................................................


आसमान में देख चल रहा एक दिन ठोकर खायेगा

कितना भी ऊँचा उड़ जाए जमीं पर पंछी आएगा

साथ कोई देगा उसका एक दिन ऐसा भी होगा

आया था दुनिया में अकेला और अकेला जायेगा

जितनी जल्दी होय संभल जा मेरी सलाह विद प्लीज़ है

इंसान में.........................................................



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yogesh verma "swapn"

सोमवार, 25 मई 2009

गीत


हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते
शब्दों की परिधी में भाव समा जाते ॥


तेरी आंहें और दर्द लिखते अपने
लिखते हम फिर आज अनकहे कुछ सपने
मरुस्थली सी प्यास भी लिखते होटों की
लिखते फिर भी बहती गंगा नोटों की
आंतों की ऐंठन से तुम न घबराते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते॥

तेरे योवन को भी हम चंदन लिखते
अपनी रग रग का भी हम क्रंदन लिखते
लिख देते हम कुसुम गुलाबी गालों को
फिर भी लिखते अपने मन के छालों को

निचुड़े चेहरों पर खंजर आड़े आते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते


पीड़ा के सागर में कलम डुबोये हैं
मन के घाव सदा आँखों से धोये हैं
नर्म अंगुलियों का कब तक स्पर्श लिखें
आओ अब इन हाथों का संघर्ष लिखें
लिखते ही मन की बात हाथ क्यों कंप जाते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते

डॉ.योगेन्द्र मणि

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त " राष्ट्रप्रेम की भावना " को समर्पित करते रहे अपनी कलम से - [ आलेख ] नीशू तिवारी

द्विवेदी युग के प्रमुख कविओं में मैथिलीशरण गुप्त का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी को खड़ी बोली को नया आयाम देने वाले कवि के रूप में भी जाना जाता है । गु्प्त जी ने खड़ी बोली को उस समय अपनाया जब ब्रजभाषा का प्रभाव हिन्दी साहित्य में अपना प्रभाव फैला चुका था । श्री पं महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया । हिन्दी कविता के लंबे इतिहास में कवि गुप्त जी ने अपनी एक शैली बनायी यह थी - पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा । राष्ट्रकवि गुप्त जी की प्रमुख कृतियां रही - पंचवटी , जयद्रथ वध , यशोधरा एवं साकेत ।


मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म झांसी में हुआ । विद्यालय में खेलकूद को ध्यान देते हुए पढ़ाई को पूरी न कर सके । घर में ही हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। गुप्त जी ने बाल्यकाल से १२ वर्ष की आयु में ब्रजभाषा में कविता रचना आरम्भ किया ।जल्द ही इनका संपर्क आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुआ और इनकी रचनाएं खड़ी बोली मासिक पत्रिका "सरस्वती " में प्रकाशित होने लगी । गुप्त जी का पहला कविता संग्रह "रंग में भंग " तथा बाद में "जयद्रथ वध " प्रकाशित हुआ । सन् १९१४ ई. में राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत "भारत भारती' का प्रकाशन किया । जिससे कवि मैथिली शरण गुप्त जी ख्याति भारत भर में फैल गयी । गुप्त जी नें साकेत और पंचवटी लिखी उसके बाद गांधी जी के संपर्क आये । गांधी जी ने मऔथिली शरण जी को " राष्ट्रकवि " कहा ।

गुप्त जी अपनी कलम से संपूर्ण देश में राष्ट्रभाक्ति की भावना भर दी । गुप्त जी की कलमसे ये स्वर निकले -

'जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।'


मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत प्रोत है
। 12 दिसंबर 1964 को चिरगांव में ही उनका देहावसान हुआ।

रविवार, 24 मई 2009

अखबार

अखबार

मैं रोजाना पढ़ता हूँ अखबार
इस आशा के साथ
कि-
धुंधलके को चीरती सूर्य आभा
लेकर आई होगी कोई नया समाचार....।
लेकिन पाता हूँ
रोजाना प्रत्येक कॉलम को
बलात्कार, हत्या,
और दहेज कि आग से झुलसता
या फिर धर्म की आड में
खूनी होली से सुर्ख सम्पूर्ण पृष्ठ
साथ में होता है
राजनेताओं का संवेदना संदेश
आतंकवाद के प्रति शाब्दिक आक्रोश
जो इस बात का अहसास दिलाता है
सरकार जिन्दा तो है ही
संवेदनशील भी है।
तभी तो ढ़ू्ढते हैं वे हर सुबह
निंदा और शोक संदेशों में
अपना नाम ।
फिर भी न जाने क्यों
अखबार में बदलती तारीख
और नित नये विज्ञापन
मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं
जिससे मैं देश की प्रगति को
सरकारी आंकडों से जोडता हूँ
और इन आंकडों को
‘मेरा भारत महान’ वाली गली में
ले जाकर छोडता हूँ ॥


डॉ.योगेन्द्र मणि

[कविता ] - भूतनाथ "रास्ता होता है....बस नज़र नहीं आता.........."

कभी-कभी ऐसा भी होता है

हमारे सामने रास्ता ही नहीं होता.....!!

और किसी उधेड़ बून में पड़ जाते हम....

खीजते हैं,परेशान होते हैं...

चारों तरफ़ अपनी अक्ल दौडाते हैं

मगर रास्ता है कि नहीं ही मिलता....

अपने अनुभव के घोडे को हम....

चारों दिशाओं में दौडाते हैं......

कितनी ही तेज़ रफ़्तार से ये घोडे

हम तक लौट-लौट आते हैं वापस

बिना कोई मंजिल पाये हुए.....!!

रास्ता है कि नहीं मिलता......!!

हमारी सोच ही कहीं गूम हो जाती है......

रास्तों के बेनाम चौराहों में.....

ऐसे चौराहों पर अक्सर रास्ते भी

अनगिनत हो जाया करते हैं..........

और जिंदगी एक अंतहीन इम्तेहान.....!!!

अगर इसे एक कविता ना समझो

तो एक बात बताऊँ दोस्त.....??

रास्ता तो हर जगह ही होता है.....

अपनी सही जगह पर ही होता है.....

बस.....

हमें नज़र ही नहीं आता......!!!!

शनिवार, 23 मई 2009

laghu kathaa

एहसास
बस मे भीड थी1 उसकी नज़र सामनीक सीट पर पडी जिसके कोने मे एक सात आठ साल का बच्चा सिकुड कर बैठा था1 साथ ही एक बैग पडा था
'बेटे आपके साथ कितने लोग बैठे हैं/'शिवा ने ब्च्चे से पूछा जवाब देने के बजाये बच्चा उठ कर खडा हो डरा सा.... कुछ बोला नहीं 1 वो समझ गया कि लडके के साथ कोई हैउसने एक क्षण सोचा फिर अपनी माँ को किसी और सीट पर बिठा दिया और खाली सीट ना देख कर खुद खडा हो गया1
तभी ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो बच्चा रोने लगा1 कन्डक्टर ने सीटी बजाई ,एक महिला भग कर बस मे चढी उस सीट से बैग उठाया और बच्चे को गोद मे ले कर चुप कराने लगी1उसे फ्रूटी पीने को दी1बच्चा अब निश्चिन्त हो गया था1 कुछ देर बाद उसने माँ के गले मे बाहें डाली और गोदी मे ही सोने लग गया1 उसके चेहरे पर सकून था माँ की छ्त्रछाया का
' माँ,मैं सीट पर बैठ जाता हूँ1मेरे भार से तुम थक जाओगी1''
''नहीं बेटा, माँ बाप तो उम्र भर बच्चों का भार उठा सकते हैं1 तू सो जा1''
माँ ने उसे छाती से लगा लिया
शिवा जब से बस मे चढा था वो माँ बेटे को देखे जा रहा था1उनकी बातें सुन कर उसे झटका सा लगा1 उसने अपनी बूढी माँ की तरफ देखा जो नमआँखों से खिडकी से बहर झांक रही थी1 उसे याद आया उसकी माँ भी उसे कितना प्यार करती थी1 पिता की मौत के बाद माँ ने उसे कितनी मन्नतें माँग कर उसे भगवान से लिया था1 पिता की मौत के बाद उसने कितने कष्ट उठा कर उसे पल पढाया1 उसे किसी चीज़ की तंगी ना होने देती1जब तक शिव को देख न लेती उसखथ से खाना ना खिल लेती उसे चैन नहिं आता1 फिर धूम धाम से उसकी शादी की1.....बचपन से आज तक की तसवीर उसकी आँखों के सामने घूम गयी1
अचानक उसके मन मे एक टीस सी उठी........वो काँप गया .......माँकी तरफ उस की नज़र गयी......माँ क चेहरा देख कर उसकी आँखों मे आँसू आ गये....वो क्या करने जा रहा है?......जिस माँ ने उसे सारी दुनिया से मह्फूज़ रखा आज पत्नी के डर से उसी माँ को वृ्द्ध आश्रम छोडने जा रहा है1 क्या आज वो माँ का सहारा नहीं बन सकता?
''ड्राईवर गाडी रोको""वो जोर से चिल्लाया
उसने माँ का हाथ पकडा और दोनो बस से नीचे उतर गये1
जेसे ही दोनो घर पहुँचे पत्नी ने मुँह बनाया और गुस्से से बोली''फिर ले आये? मै अब इसके साथ नहीं रह सकती1'' वो चुप रहा मगर पास ही उसका 12 साल का लडका खडा था वो बोल पडा....
''मम्मी, आप चिन्ता ना करें जब मै आप दोनो को बृ्द्ध आश्रम मे छोडने जाऊँगा तो दादी को भी साथ ही ले चलूंगा1 दादी! चलो मेरे कमरे मे मुझे कहानी सुनाओ1'' वो दादी की अंगुली पकड कर बाहर चला गया..दोनो बेटे की बात सुन कर सकते मे आ गये1 उसने पत्नी की तरफ देखा.....शायद उसे भी अपनी गलती का एहसास हो गया था1

विजय की दो रचनाएं - " तस्वीर " और " बीती बातें "

तस्वीर


मैंने चाहा कि


तेरी तस्वीर बना लूँ इस दुनिया के लिए,


क्योंकि मुझमें तो है तू ,हमेशा के लिए....



पर तस्वीर बनाने का साजो समान नही था मेरे पास.


फिर मैं ढुढ्ने निकला ; वह सारा समान , ज़िंदगी के बाज़ार में...



बहुत ढूंढा , पर कहीं नही मिला; फिर किसी मोड़ पर किसी दरवेश ने कहा,


आगे है कुछ मोड़ ,तुम्हारी उम्र के ,


उन्हें पार कर लो....


वहाँ एक अंधे फकीर कि मोहब्बत की दूकान है;


वहाँ ,मुझे प्यार कर हर समान मिल जायेगा..





मैंने वो मोड़ पार किए ,सिर्फ़ तेरी यादों के सहारे !!


वहाँ वो अँधा फकीर खड़ा था ,


मोहब्बत का समान बेच रहा था..


मुझ जैसे,


तुझ जैसे,


कई लोग थे वहाँ अपने अपने यादों के सलीबों और सायों के साथ....


लोग हर तरह के मौसम को सहते वहाँ खड़े थे.


उस फकीर की मरजी का इंतज़ार कर रहे थे....


फकीर बड़ा अलमस्त था...


खुदा का नेक बन्दा था...


अँधा था......



मैंने पूछा तो पता चला कि


मोहब्बत ने उसे अँधा कर दिया है !!


या अल्लाह ! क्या मोहब्बत इतनी बुरी होती है..


मैं भी किस दुनिया में भटक रहा था..


खैर ; जब मेरी बारी आई


तो ,उस अंधे फकीर ने ,


तेरा नाम लिया ,और मुझे चौंका दिया ,


मुझसे कुछ नही लिया.. और


तस्वीर बनाने का साजो समान दिया...


सच... कैसे कैसे जादू होते है जिंदगी के बाजारों में !!!!



मैं अपने सपनो के घर आया ..


तेरी तस्वीर बनाने की कोशिश की ,


पर खुदा जाने क्यों... तेरी तस्वीर न बन पाई.


कागज़ पर कागज़ ख़त्म होते गए ...


उम्र के साल दर साल गुजरते गये...


पूरी उम्र गुजर गई


पर


तेरी तस्वीर न बनी ,


उसे न बनना था ,इस दुनिया के लिए ....न बनी !!



जब मौत आई तो , मैंने कहा ,दो घड़ी रुक जा ;


वक्त का एक आखरी कागज़ बचा है ..उस पर मैं "उसकी" तस्वीर बना लूँ !


मौत ने हँसते हुए उस कागज़ पर ,


तेरा और मेरा नाम लिख दिया ;


और मुझे अपने आगोश में ले लिया .


उसने उस कागज़ को मेरे जनाजे पर रख दिया ,


और मुझे दुनियावालों ने फूंक दिया.


और फिर..


इस दुनिया से एक और मोहब्बत की रूह फना हो गई..



बीती बातें




दिल बीती बातें याद करता रहा


यादों का चिराग रातभर जलता रहा


नज़म का एक एक अल्फाज़ चुभता रहा


दिल बीती बातें याद करता रहा



जाने किसके इन्तेजार मे


शब्बा सफर कटता रहा


जो गीत तुमने छेड़े थे


रात भर मैं वह गुनगुनाता रहा


दिल बीती बातें याद करता रहा



शमा पिगलती ही रही थी


और दूर कोई आवाज दे रहा


जुंबा जो कह पा रही थी


अश्क एक एक दास्तां कहता रहा


दिल बीती बातें याद करता रहा








यादें पुरानी आती ही रही,


दिल धीमे धीमे दस्तक देते रहा


चिंगारियां भड़कती ही रही


टूटे हुए सपनो से कोई पुकारता रहा


दिल बीती बातें याद करता रहा



दिल बीती बातें याद करता रहा


यादों का चिराग रातभर जलता रहा


नज़म का एक एक अल्फाज़ चुभता रहा


दिल बीती बातें याद करता रहा



शुक्रवार, 22 मई 2009

मुझे निभाना है प्रण- निर्मला जी

जीवन मे हमने
आपस मे
बहुत कुछ बाँटा
बहुत कुछ पाया
दुख सुख
कर्तव्य अधिकार
इतने लंबे सफर मे
जब टूटे हैं सब
भ्रमपाश हुये मोह भँग
क्या बचा
एक सन्नाटे के सिवा
मै जानती थी
यही होगा सिला
और मैने सहेज रखे थे
कुछ हसीन पल
कुछ यादें
हम दोनो के
कुछ क्षणो के साक्षी1
मगर अब उन्हें भी
तुम से नहीं बाँट सकती
क्यों कि मै हर दिन
उन पलों को
अपनी कलम मे
सहेजती रही हूँ
जब तुम
मेरे पास होते हुये भी
मेरे पास नही होते
तो ये कलम मेरे
प्रेम गीत लिखती
मुझे बहलाती
मेरे ज़ख्मों को सहलाती
तुम्हारे साथ होने का
एहसास देती
अब कैसे छोडूँइसका साथ्
अब् कैसे दूँ वो पल तुम्हें
मगर अब भी चलूँगी
तुम्हारे साथ साथ्
पहले की तरह्
क्यों की मुझे निभाना है
अग्निपथ पर
किये वादों का प्रण

गुरुवार, 21 मई 2009

रिश्ते की ताजगी न रही............................तुममें वो सादगी न रही,

रिश्ते की ताजगी,
न रही,
तुममें वो सादगी,
न रही,
कहती हो प्यार,
मुझसे है,
पर
ये बातें सच्ची न लगी,
तुम कहती थी,
तो
मैं सुनता था,
तुम रूठती थी,
तो
मै मनाता था,
तुम चिढ़ती थी,
तो
मैं चिढ़ाता था,
तुम जीतती थी,
तो
मैं हार जाता था,
ये सब अच्छा लगता था,
मुझे
वक्त ने करवट ली,
मैं भी हूँ,
तुम भी हो,
साथ ही साथ हैंं,
पर
वो प्यार न रहा,
वो बातें न रही,
तुम कहती हो कि-
मैं बदल गया,
शायद हां- मैं ही बदल गया।
क्योंकि
तुम्हारा जीतना,
तुम्हारा हसना,
तुम्हारा मुस्कुराना,
अच्छा लगता है अब भी,
चाहे मुझे हारना ही क्यों न पड़े ।।